अजमेर बलात्कार कांड ने जितना देश को वर्ष 1992 में परेशान किया था उतना ही व्यथित तब किया जब वर्ष 2024 में इसके आरोपियों पर फैसला आया। हर किसी के मन में यही पीड़ा थी कि आखिर न्याय मिलने में इतने वर्ष क्यों लग गए? आखिर इतने वर्ष तक न्याय घिसटता क्यों रहा? इतने वर्ष न्याय इसीलिए घिसटता रहा था क्योंकि उसमें प्रभावी खादिम परिवार के लोग थे। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि यदि यह मामला साधारण इंसानों का होता तो कार्यवाही में इतनी रुकावटें नहीं आई होतीं।
इस मामले में खादिम के परिजन शामिल थे तो इसीलिए राजनीतिक स्तर पर भी सावधानी बरती गई कि यह मामला सांप्रदायिक रंग न ले ले। यह तर्क समझ से परे होता है कि अपराधी के मुस्लिम होते ही एक बहुत बड़ा वर्ग बचाव की मुद्रा में क्यों आ जाता है? वह यह क्यों सोचने लगता है कि अपराधी का नाम लेने से सांप्रदायिक तनाव पैदा हो जाएगा? आखिर ऐसा क्यों होता है? और जब वर्षों के बाद निर्णय आता है तो भी एक वर्ग उठ खड़ा होता है कि दोषियों के नाम नहीं छापने चाहिए।
आखिर दोषियों के नाम क्यों नहीं छापने चाहिए? क्या यह बात सभी दोषियों के लिए है या फिर केवल मुस्लिम दोषियों के लिए? क्योंकि हर बार जब मुस्लिम दोषी होते हैं तभी यह मांग उठती है कि आखिर दोषियों के नाम क्यों? ऐसे में याद आता है बम विस्फोटों का वह दौर, जब हर देश में जैसे ही बम विस्फोट होते थे, वैसे ही खंडन आने लगता था कि “जिन्होनें यह किया है वे इस्लाम नहीं मानते!”। और जब संदिग्धों के नाम आते थे, आरोपियों के नाम आते थे और यहाँ तक कि दोषियों के नाम आते ही जैसे बचाव अभियान चलता था। कौन भूल सकता है कि कैसे कश्मीर के आतंकी बुरहान वानी को एक प्रिंसिपल का मासूम बेटा साबित करने का अभियान चलाया गया था।
ऐसा ही प्रयास अब अजमेर बलात्कार कांड को लेकर योगेंद्र यादव और सबा नकवी ने किया है। सबा नकवी के साथ बातचीत करते हुए योगेंद्र यादव इस बात पर निराशा जताते हैं कि इस खबर को प्रकाशित करते समय बड़े बड़े अक्षरों में दोषियों का नाम और चित्र छापे गए।
https://twitter.com/AbhishBanerj/status/1828620393956905443
यह एक लंबा इंटरव्यू है, जिसमें तमाम बातों पर सबा नकवी और योगेंद्र यादव चर्चा कर रहे हैं। और इसके बाद वे लोग अजमेर कांड पर आते हैं और इस बात पर हैरानी व्यक्त करते हैं कि जब देश में और घटनाएं हो रही हैं, उस समय मीडिया अजमेर सेक्स स्कैंडल को दिखा रहा है।
सबा नकवी कहती हैं कि जब देश एक घटना को लेकर उबल रहा है, दलित महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहे हैं और महाराष्ट्र में देखिए कि क्या हुआ और कुछ प्रमुख पत्रकार इसे लेकर आते हैं कि देखो अजमेर में क्या हुआ।
फिर वह कहती हैं कि “वह सब फैकचुल अर्थात तथ्यपरक था,” फिर भी उन्हें यह लगता है कि केवल मुस्लिम होने के कारण यह सब किया गया।
क्या योगेंद्र यादव और सबा को इस बात का दुख है कि इतने वर्षों के बाद ही सही न्याय तो मिला है? इतने वर्षों के बाद ही सही कम से कम कुछ घावों पर मरहम तो लगा ही है, इतने वर्षों बाद ही सही कुछ बातें साफ तो हुई हैं। या फिर योगेंद्र यादव सब कुछ अंधेरे में रखना चाहते हैं कि लड़कियों को या कहें लोगों को असली अपराधियों के विषय में पता ही न चले?
सबा इस बात पर हैरानी व्यक्त करते हुए कहती हैं कि जहां इतनी सारे बलात्कार के कांड अब हो रहे हैं, तो ऐसे में मीडिया अजमेर बलात्कार कांड को क्यों दिखा रहा है? और सबा को लगता है कि केवल यह बताने की कोशिश हो रही है कि अपराधी मुस्लिम थे।
अपराध को हिन्दू-मुस्लिम क्यों बनाया जा रहा है, यह प्रश्न सबा जैसों से होना चाहिए। परंतु ये लोग उत्तर नहीं देंगे क्योंकि हर चीज में मुस्लिम-मुस्लिम करते ये कथित पत्रकार अपराधों में भी मजहब ले आते हैं। प्रश्न यही है कि आखिर अपराधियों के नाम मीडिया को क्यों नहीं प्रकाशित करने चाहिए?
क्या कल को योगेंद्र यादव और सबा जैसे लोग न्यायपालिका और पुलिस मे जाकर भी यही कहेंगे कि मुस्लिम आरोपी का नाम न लिखा जाए? क्या हर जगह इसी प्रकार की गोपनीयता बरती जाएगी कि अपराधी का नाम यदि मुस्लिम है तो सामने न लाया जाए।
जज अपराधी का नाम लेकर उच्चारण न करें यह भी मांग आने वाली है। या फिर एक दिन यह भी कि यदि मुस्लिम आरोपी है तो केस ही दर्ज न किया जाए। यह किस मानसिकता से ग्रसित लोग हैं, समझ से परे है।
इस वार्तालाप में योगेंद्र यादव इस मामले को दिखाने वाले या लिखने वाले मीडिया को कोसते हैं कि एक दिन यह बताया जाएगा कि एक देश का मीडिया परेशानियों की जड़ बंता है। योगेंद्र यादव को इस बात पर आपत्ति है कि आखिर कैसे दैनिक अखबार इस मामले के अपराधियों के नाम फ्रंट पर छाप सकता है।
आखिर इन नामों को क्यों नहीं छापा जाना चाहिए? क्या देश की जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि वर्ष 1992 में सैकड़ों मासूम लड़कियों के गुनाहगार कौन लोग थे? आखिर वे कौन थे जिन्होनें यह नहीं देखा कि इन बच्चियों का जीवन कैसे बर्बाद होगा? क्या उन लोगों के नाम और चेहरे जानने का अधिकार देश को नहीं है जिन्होनें अपनी हवस पूरी करने के लिए सैकड़ों लड़कियों के परिजनों को जीवित मौत मार डाला?
शायद योगेंद्र यादव का एजेंडा इन सैकड़ों लड़कियों और उनकी परिजनों की पीड़ा को समझने मे सक्षम नहीं है या फिर वह समझना नहीं चाहता है या फिर कहें कि वह उन पीड़ाओं की निरंतर उपेक्षा करता है, क्योंकि ये तमाम पीड़ाएं उनके काम की नहीं हैं।
उनका एजेंडा यही है कि ऐसे मामले में अपराधियों के नाम न दिखाए जाएं। हालांकि इस पूरी वार्तालाप में योगेंद्र यादव कहीं-कहीं पर अपने आप को निष्पक्ष दिखाने का प्रयास करते हैं, मगर उनकी चाशनी भरी कुटिलता में उस निष्पक्षता की कलुषता दिख ही जाती है। वे बंगाल की घटना का उल्लेख करते हैं और फिर कहते हैं, कि बिहार के लिए भी ऐसी आवाजें उठनी चाहिए।
प्रश्न यह उठता है कि बिहार आदि में हो रही घटनाओं के प्रति आवाज उठाने से किसने और किसे रोका है? मगर जब एजेंडा अपराधियों के नाम छिपाने को लेकर हो तो बंगाल हो या बिहार, तो अपराध का प्रदेश मायने नहीं रखता है, अपराधियों का मजहब मायने रखता है।
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