राजस्थान में अजमेर शहर विख्यात है। देश-विदेश से लोग यहां दरगाह पर मन्नत मांगने आते हैं। हिंदी सिनेमा के लगभग सारे निर्माता-निर्देशक, अभिनेता-अभिनेत्री भी वहां दुआ मांगने जाते हैं। लेकिन इस दरगाह से जुड़े लोगों ने जो किया, उसकी टीस शहर की न जाने कितनी लड़कियों और उनके परिजनों के जीवन बरसों से थी। उनकी पीड़ा का कोई ओर छोर नहीं था। न तो उन्हेें कोई पूछने वाला था, न ही उनके दर्द को समझने वाला। दर्जनों आंखें न्याय की आस में अदालत की देहरी पर टकटकी लगाए हुए थीं, तो न जाने कितनी आंखें उसी पीड़ा के साथ बंद हो गईं। कई ने तो न्याय की आस ही छोड़ दी थी। आखिर क्या थी वह पीड़ा? क्योें अजमेर जैसे शहर में वे इतने वर्षों तक न्याय की बाट जोहती रहीं?
20 अगस्त, 2024 को खबर आई कि अजमेर सामूहिक बलात्कार कांड के शेष सभी 6 आरोपियों को पॉक्सो अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। यह खबर दिन भर चर्चा में रही और इसी के साथ हृदय को झकझोर देने वाली दरिंदगी की 32 वर्ष पुरानी कहानी ताजा हो गई। दरिंदों ने स्कूल-कॉलेज की 200 से अधिक नाबालिग-बालिग लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाया था। इतने बरस बाद न्याय मिलना या न मिलना लगभग बराबर है! जिन्होंने उस नर्क को भुगता, उनसे बेहतर इसे और कोई क्या समझेगा। यह ऐसा दर्द है, जिसकी छाप उनकी स्मृतियों में अमिट है। चाहकर भी वे खुद को उस भयावह अतीत से अलग नहीं कर सकतीं। यह मामला ऐसा है कि साक्ष्य के लिए रखे गए बिस्तरों से बदबू आने लगी थी।
यह मामला इस बात की खुशी मनाने का नहीं है कि इतने दोषियों को सजा मिली। यह तो उस अंतहीन वेदना का मामला है, जिसमें पीड़ित लड़कियां, उनके परिजन और कुछ मामलों में ससुराल पक्ष के लोग पल-पल घुटते रहे। दोषियों को सजा मिलने के बाद भी उनकी वेदनाएं शायद कम न हों।
उफ्फ यह पीड़ा
किसी भी लड़की के साथ यौन शोषण जघन्य अपराध है, क्योंकि यह अपराध उसकी आत्मा को कुचल देता है, लहूलुहान कर देता है, मार डालता है। उसे जिंदा लाश बना देता है। यह उस लड़की को अपनी देह का दुश्मन बना देता है, जिसके कारण उसे यह सब झेलना पड़ता है। नतीजा, पीड़िता अपने जीवन के सबसे सुंदर रूप मातृत्व तक से घृणा करने लगती है। दरअसल, बलात्कांर जैसा अपराध लड़की के अस्तित्व पर सबसे बड़ा हमला होता है और अपराधी को उसके अपराध की सजा मिलने में दशकों लग जाएं तो वेदना का अंत कैसे होगा? लड़कियों के साथ हैवानियत 1992 में हुई और अदालत का निर्णय 2024 में निर्णय आया। एक बार कल्पना कीजिए, कैसे पीड़िताओं ने न केवल लड़ने का साहस दिखाया, बल्कि न्याय के लिए 32 वर्ष तक अदालतों मे चक्कर काटती रहीं।
32 वर्ष! इतने वर्ष में तो लड़कियां अपना लड़कपन और अल्हड़पन छोड़कर परिपक्वता की सीढ़ी चढ़ जाती हैं। लेकिन पीड़ित बच्चियों को तो इसका अवसर ही नहीं मिला। वे तो अपना बचपन और अल्हड़पन उसी क्षण गंवा बैठी थीं, जब वे हवसी दरिंदों के शिकंजे में आई थीं। कैसे उनकी देहों पर एक नहीं, कई हाथ न जाने कितनी बार फिरे होंगे! न जाने कितनी बार उन्हें अपनी देह से घृणा हुई होगी। ऊपर से इतने वर्ष तक न जाने कितनी बार उन्हें अदालत में बुलाया गया होगा। शायद उन्हेंं यह भी याद नहीं होगा कि इतने वर्ष में कितनी बार तारीख पड़ी! लेकिन हर तारीख उन्हें उस घृणित स्पर्श, उस उत्पीड़न की याद जरूर दिलाता होगा।
मीडिया में ऐसी ही एक महिला (पीड़िता) का आया था, जिसमें वह दुखी मन से जज से कहा था, ‘‘क्यों आप मुझे बार-बार अदालत में बुला रहे हैं? अब तो तीस वर्ष हो गए हैं!’’ लगभग चीखते हुए उसने कहा था, ‘‘अब मैं दादी बन चुकी हूं। मुझे अकेला छोड़ दें!’’ ‘दादी!’ यह शब्द हथौड़े की तरह दिमाग पर लगता है। उम्र के इस पड़ाव पर तो उसे अपनी आने वाली पीढ़ियों को अपनी परंपराएं हस्तांतरित करनी थीं। लेकिन उसके पास तो दर्द के सिवा देने को कुछ है ही नहीं! क्या उस महिला की पीड़ा कोई समझ सकता है?
असमय कुम्हलाए सपने
सच में! इस न्याय के शोर में वे सपने तो कहीं खो ही गए, जो सैकड़ों लड़कियों की आंखों में बसे होंगे। किसी ने सोचा होगा कि डॉक्टर बनेगी, किसी ने कुछ और सोच होगा। कोई गायिका बनना चाहती होगी, तो कोई शिक्षिका। संभव है, उनमें से कुछ अपने सपने को हासिल करने में सफल भी हुई होंगी। मगर उनका क्या, जिनके न तो सपने पूरे हुए, न अरमान। सब कुछ बिखर गया होगा। कुछ तो शायद खुद को भी संभाल न पाई होंगी। न जाने कितनी पीड़ित लड़कियों ने अपनी इहलीला समाप्तख कर दी होगी!
उस दृश्य की कल्पना कीजिए, एक ओर लड़कियां कुछ बनने के सपने देख रही हों और दूसरी ओर उनकी तस्वीरें दिखाकर कुछ लोग इसकी पुष्टि करना चाह रहे हों कि कहीं अमुक लड़की भी तो उन लड़कियों में शामिल नहीं है, जिन्हें हवस का शिकार बनाया गया! अजमेर में सैकड़ों लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार हुए थे। दुर्भाग्य की बात है कि सभी जानते थे कि अपराधी कौन है, जिन्होंंने शहर की इतनी लड़कियों की आबरू तार-तार की। लेकिन राजनीति, मजहब का ऐसा घालमेल था कि कोई मुंह नहीं खोल पा रहा था।
दो पत्रकारों ने दिखाया साहस
लड़कियों के शरीर को रौंदने वाले नफीस चिश्ती, नसीम उर्फ टार्जन, सलीम चिश्ती, इकबाल भाटी, सोहेल गनी और सईद जमीर हुसैन आम लोग नहीं थे। ये वे लोग थे, जिनके खिलाफ कोई भी मुंह खोलने से डरता था, आवाज उठाना तो दूर की बात थी। लेकिन एक था, जिसने साहस किया। उसका नाम था- संतोष गुप्ता। इसी बहादुर स्थानीय पत्रकार ने 1992 में पहली बार रिपोर्ट लिखी, तब पता चला कि कैसे अपराधी स्कूल और कॉलेज की लड़कियों को अपने जाल में फंसाते थे और फिर उन्हेंर ऐसी जगह ले जाया जाता था, जहां उनके साथ कई लोग बलात्कार करते थे।
उसी हालत में उनकी तस्वीरें खींची जाती थीं और फिर वही तस्वीरें दिखाकर उन्हें ब्लैकमेल किया जाता था कि वे और लड़कियों को लेकर आएं। इस तरह एक के बाद दूसरी, फिर तीसरी और आगे यौन शोषण का यह सिलसिला चलता रहता था। न जाने कितनी लड़कियों की सिसकियां शहर में गूंजती रही होंगी। दुर्भाग्य कि कोई उनके आबरू की रक्षा न कर सका।
समाचार छपने के कुछ दिन बाद कुछ तस्वीरें लीक हुई, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। तब ‘दैनिक नवज्योति’ में 15 दिन बाद संतोष की दूसरी खबर प्रकाशित हुई कि अजमेर में लंबे समय से एक सेक्स स्कैंडल चल रहा है। इसके बाद फिर खबर प्रकाशित हुई और हैवानों की करतूतें एक-एक कर सामने आने लगीं।
लड़कियों की इज्जत से खेलने वालों में शहर के नेता और खादिम थे। ये वही लोग थे, जिन पर इस शहर की सबसे बड़ी पहचान दरगाह की देखभाल की जिम्मेदारी थी। ये वही लोग थे, जो चिश्ती को अपना पूर्वज मानते हैं। ये वही लोग थे, जिन पर अपने शहर का नाम रोशन करने की जिम्मेदारी थी। जिसने भी उनके खिलाफ आवाज उठाई, उन पर हमले किए गए। एक अंग्रेजी अखबार से बातचीत में अजमेर दरगाह की देखरेख करने वाली अंजुमन कमेटी के संयुक्त सचिव मुसब्बिर हुसैन ने इस प्रकरण को शहर पर धब्बा बताया था। उन्होंने कहा था, ‘‘यह ऐसा मामला है जिसके बारे में अजमेर में कोई भी बात नहीं करना चाहता, क्योंकि अपराध की प्रकृति ही ऐसी है। यह हमारे शहर के इतिहास पर एक धब्बा है।’’
संतोष गुप्ता के बाद ‘लहरों की बरखा’ नामक दैनिक पत्रिका के पत्रकार मदन सिंह ने बाकायदा आरोपियों के नाम प्रकाशित किए। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने कांग्रेस के पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल और उसके स्थानीय माफिया दोस्त सवाई सिंह का नाम लिखा तो उन पर जानलेवा हमले किए गए। लेकिन पुलिस ने उसे अनदेखा किया और हमलावरों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। अंत में 12 सितंबर, 1992 को अस्पताल में उनकी हत्या कर दी गई। इसके बाद राजनीति और अपराध का गठजोड़ सामने आया और अक्तूबर आते-आते अजमेर सुलग उठा।
ऐसे हुई थी शुरुआत
जब पूरे प्रकरण का पटाक्षेप हुआ, तब पता चला कि तीन वर्ष पहले कक्षा नौ की एक छात्रा और स्थानीय दबंग परिवार के लड़के के बीच प्रेम प्रसंग था। लड़के के दोस्तों ने दोनों की आपत्तिजनक तस्वीरें ले लीं और लड़की को ब्लैकमेल किया कि वह अपनी सहेलियों से उन्हें मिलवाए। इस तरह अपराध की एक शृंखला शुरू हुई, जिसका शिकार 200 से अधिक लड़कियां बनीं।
अधिकारियों के अनुसार, उन्हें इस अपराध की जानकारी थी, लेकिन स्थानीय राजनेताओं ने यह कहकर कानूनी कार्रवाई करने से रोक दिया कि इससे शहर में सांप्रदायिक तनाव बढ़ेगा, क्योंकि कई आरोपी दरगाह के प्रभावी खादिम परिवार के हैं। खादिम परिवार का एक आरोपी फारुख चिश्ती उस समय युवा कांग्रेस का नेता था, जिसे बाद में मानसिक रूप से विक्षिप्त करार दिया गया था। दूसरा नफीस चिश्ती कांग्रेस की अजमेर इकाई का उपाध्यक्ष और तीसरा अनवर चिश्ती अजमेर में कांग्रेस का संयुक्त सचिव था।
एक समय ऐसा भी आया, जब अजमेर की लड़कियों की शादी बड़ी समस्या बन गई थी। शहर की लड़कियों से कोई भी वैवाहिक संबंध नहीं जोड़ना चाहता था। लड़के वाले एक ही प्रश्न पूछते थे, लड़की बलात्कांर कांड की पीड़िता तो नहीं है? क्या ऐसी अनेक शर्मिंदगियों के लिए कभी न्याय मिल पाएगा? क्या वास्तव में न्याय कभी मिल पाएगा उन तानों और उलाहनों के लिए, जो बच्चियों के सपनों की मौत का कारण बने? न्याय के इस शोर में उन लड़कियों की पीड़ा जस की तस ही रहेगी!
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