‘सेफ्टी वॉल्व’ पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे कहते हैं कि ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ भाजपा के द्वारा बांटने और नफरत फैलाने का प्रयास है। कांग्रेस के इस बयान को एक सामान्य बयान मानकर किनारे नहीं किया जा सकता। यह बयान आकलन की मांग करता है। और इस संदर्भ में दो बातों को ध्यान में रखना होगा।
पहली, दुनिया में ऐसे बहुत कम उदाहरण मिलेंगे जब इतिहास ने किसी देश को इतने गहरे दंश दिए हों। 1951 के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार विभाजन के बाद भड़की हिंसा में मारे गए लोगों की संख्या 20-30 लाख थी और लगभग 1.5 करोड़ लोग विस्थापित हुए। आधिकारिक आंकड़ों में ही मरने वालों की संख्या में 10 लाख का अंतर? साफ है, वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक रही होगी। इतनी बड़ी विभीषिका के बारे में कांग्रेस का उपरोक्त बयान उस अपराध के जिम्मेदार लोगों को बरी करने वाला है।
यह देश इस बात को नहीं भूल सकता कि विभाजन भारत पर थोपा गया ऐतिहासिक अपराध था। इसकी जड़ में थी जिन्ना की जिद और नेहरू की राजनीतिक महत्वाकांक्षा, जिसका दर्द इस देश को, यहां के लोगों को झेलना पड़ा। इस बात के ढेरों प्रमाण हैं कि जिन्ना देश के प्रधानमंत्री बनना चाहते थे और जब उनकी मांगें नहीं मानी गईं तब वह अलग पाकिस्तान की मांग पर अड़ गए।
लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक लापियरे की पुस्तक ‘द पार्टीशन आफ इंडिया’ में लॉर्ड माउंटबेटन को उद्धृत किया गया है: ‘जिन्ना ने मुझे कहा कि वह अविभाजित भारत के प्रधानमंत्री बनना पसंद करते।’ प्यारेलाल नैयर की पुस्तक ‘महात्मा गांधी: द लास्ट फेज’ (1956) में कहा गया है: ‘जिन्ना अविभाजित भारत के प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद पाले हुए थे, लेकिन कांग्रेस ने उन्हें स्वीकार करने से इनकार कर दिया।’ मौलाना आजाद की पुस्तक ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ (1959) में भी साफ लिखा है: ‘जिन्ना अविभाजित भारत का प्रधानमंत्री बनना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस इस पर सहमत नहीं हुई।’ उसी तरह कराची यूनिवर्सिटी में रखे गए ऐतिहासिक रिकॉर्ड भी यही बात कहते हैं। जरा सोचिए, इस देश के करोड़ों लोगों ने आंदोलन क्यों किया था? देश को स्वतंत्र कराने के लिए या नेहरू को प्रधानमंत्री बनाने के लिए?
आज जो लोग किसी को एक थप्पड़ मारने पर भी चिल्ला उठते हैं, असहिष्णुता की बात करने लगते हैं, वे दुनिया के इस भीषणतम नरसंहार पर चुप बैठे हैं! उसे याद करना उन्हें विभाजनकारी लगता है! यह लाशों के ढेर पर बैठकर फाख्ता उड़ाने का खेल है। और उनकी जिद है कि हम इस दोमुंहेपन को बर्दाश्त करें! मगर क्या ऐसा होगा?
दूसरी बात-राजनीतिक पार्टी को बचाने की कोशिशों के साथ-साथ ये इस देश के इतिहास बोध को भी मार देना चाहते हैं। हम कहते हैं कि इतिहास से सबक सीखना चाहिए नहीं तो इतिहास अपने आप को दोहराता है। वे चाहते हैं कि हम इतिहास से कोई सबक न सीखें ताकि इतिहास अपने को दोहराए। और जब इतिहास अपने आप को दोहराएगा, तो चोट देश खाएगा और मलाई ये खाएंगे।
आज बांग्लादेश त्रासद स्थिति से गुजर रहा है लेकिन कांग्रेसी तो भारत को इससे भी गया-गुजरा बताते नहीं थकते। सलमान खुर्शीद कहते हैं कि भारत बांग्लादेश जैसी स्थिति की ओर जा रहा है। अधीर रंजन चौधरी कहते हैं कि भाजपा के शासन में भारत की स्थिति बांग्लादेश जैसी होती जा रही है। चुनाव के दौरान राहुल के बयान को याद करें जब उन्होंने कहा था कि बस तीली दिखाने की देर है, देश में आग भड़क उठेगी। पूरे देश में मानो जगह-जगह पेट्रोल पड़ा हो!
ऐसा लगता है कि ये लोग उसी आग का इंतजार कर रहे हैं। और महाशय खड़गे कहते हैं कि विभाजन की विभाषिका को याद करना नफरत फैलाने और बांटने वाला है? बांटने और नफरत फैलाने की दुकान तो आपने खोल रखी है। दरअसल, इनका मंत्र भी वही है जो अंग्रेजों का था- बांटो और राज करो। बांटने के लिए ये नफरत फैलाएंगे और फिर इसे सत्ता पाने का औजार बनाएंगे।
मणिशंकर अय्यर मोदी को हराने के लिए कभी पाकिस्तान से मदद मांगेंगे तो कभी आतंकवादी हाफिज सईद को ‘साहब’ कहकर संबोधित करेंगे। कभी सैम पित्रोदा देश की बहुरंगी संस्कृति पर हमला करते हुए यहां के समुदायों को चीनी, अरबी, गोरे और अफ्रीकी कहकर संबोधित करेंगे।
ये और बात है कि सैम पित्रोदा का यह बयान ऐसे समय आया जब चुनाव होने थे और कांग्रेस ने फौरन उन्हें इंडियन ओवरसीज कॉंग्रेस अध्यक्ष के पद से हटाते हुए कह दिया कि यह तो उनका ‘व्यक्तिगत’ बयान है, लेकिन चुनाव बीतते ही उन्हें बहाल कर दिया। यदि पित्रोदा का वह बयान गलत था तो चुनाव के बाद सही कैसे हो गया? और यदि वह सही था तो पद से हटाया क्यों गया? इसलिए कि वे इस देश के बहुरंगे समाज के धागों को बिखेरकर राजनीति करना और सियासी रोटी तो सेंकना चाहते हैं, लेकिन अपना असली चेहरा छिपाकर।
बांटो और राज करो के सिद्धांत को तभी सफलता के साथ अमल में लाया जा सकता है जब फॉल्ट लाइन को चौड़ा किया जाए। कांग्रेस इस खेल की चैंपियन रही है, लेकिन राजनीति की इस प्रवृत्ति ने देश का बड़ा नुकसान किया है।
इन विभाजक रेखाओं के बरक्स कुछ अच्छी सकारात्मक संकेत रेखाएं दिखती हैं। आज भारत के पेट में दाना है, जेब में आना है। तिजोरियों में पैसा है, तेल भंडार संतोषजनक स्थिति में है। सेनाओं की आपूर्तियां इत्यादि सुचारु हैं और विश्व मंच पर भी सब ठीक चल रहा है।
तो जब सबकुछ ठीक चल रहा है तो गड़बड़ करने वालों के पेट में मरोड़ उठना स्वाभाविक है। यह देश के लिए सोचने का विषय है कि जब पड़ोसी देश अस्थिर हों, वैश्विक समीकरण ऐसी उत्तेजक स्थिति में हों कि जरा सी चिंगारी लगते कहीं भी आग भड़क जाए तो हमें एक राष्ट्र के तौर पर कैसा व्यवहार करना चाहिए और ऐसे नेताओं को कैसे उनकी जगह दिखानी चाहिए। यह काम शारीरिक हिंसा से नहीं होगा। यह अपनी समझ बढ़ाने से होगा। लोकतंत्र के आंगन से उन सारी ताकतों को बुहारकर होगा जो इस देश के टुकड़े-टुकड़े करना चाहती हैं और टुकड़े-टुकड़े करने वालों का हौसला बढ़ाना चाहती हैं।
इसके साथ ही वे चाहते हैं कि देश इतिहास बोध को छोड़ दे। तथ्य और सत्य की परतों को हटाकर सच को जानने की कोशश न करे। क्योंकि उन्हें पता है कि जब एक बार धागे उतरने शुरू होंगे तो ऊन के गोले की तरह उतरते ही चले जाएंगे और तब लोगों को पूरी स्पष्टता के साथ दिखेगा कि कैसे कुछ बौनों को सोची-समझी योजना के तहत महाकाय बनाकर पेश किया गया और कैसे वास्तविक महापुरुषों को धूल-धूसरित करने, उन्हें लांछित करने का खेल खेला गया।
यह सब लंबे समय से चल रहा है। लेकिन शिक्षा के प्रसार ने, समुदायों के प्रवास ने, तकनीकी विकास ने जानकारी के ऐसे स्रोत खोले हैं कि समझ को साझा करने, आपस में तालमेल स्थापित करने और एक-दूसरे को देखकर सीखने से तर्क दृष्टि विकसित हुई है और तर्कदृष्टि की एक खूबी होती है-सामने कोई कितना भी भीमकाय हो, यह बात मायने नहीं रखती। बड़े से बड़े व्यक्ति से एक बच्चा भी सवाल पूछ लेता है। बड़े से बड़े न्यूज चैनल के सामने एक मोबाइल प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है। इसलिए भड़काने और भरमाने की जो राजनीति है, उससे यह देश आगे बढ़ चुका है। अपने इतिहास बोध को ठीक करते हुए, अपनी गर्वीली कहानियों को याद करते हुए, अपने भविष्य पर नजर रखते हुए हम तैयार हैं। हमें जो भटकाने-भरमाने की कोशिश करेगा, हम उसे उसकी जगह दिखा देंगे।
@hiteshshankar
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