एक ओर पूरे पश्चिम बंगाल में डॉक्टर से बलात्कार और जघन्य हत्या के खिलाफ देश भर में आक्रोशपूर्ण विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, तो दूसरी ओर भारत के ही एक अन्य प्रदेश में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया गया है। 20 अगस्त 2024 को विशेष पॉक्सो अदालत ने आखिरकार कुख्यात अजमेर बलात्कार मामले का निपटारा किया, जो 32 साल पुराना एक दर्दनाक अध्याय है।
यह मामला 1992 में अजमेर शरीफ के खादिम के विस्तारित परिवार के सदस्यों द्वारा 100 से अधिक युवतियों के सुनियोजित बलात्कार से जुड़ा है। दशकों की कानूनी लड़ाई और असीमित देरी के बाद, अदालत के फैसले ने एक विरोधाभासी संतोष दिया, लेकिन साथ ही इसने यह भी उजागर किया कि ऐसे भयानक अपराधों में न्याय पाने की राह कितनी जटिल और चुनौतीपूर्ण होती है, जहां न्याय त्वरित और पूर्ण होना चाहिए।
भारत में बलात्कार के मामले अक्सर जटिल और कठिन होते हैं और ऐसे अपराधों में न्याय पाने की प्रक्रिया में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप न्याय देर से मिलता है या अपर्याप्त होता है।1992 का अजमेर बलात्कार मामला इस सचाई का एक कड़वा उदाहरण है। इस प्रकरण में न्याय की राह में इतने सारे रोड़े थे कि पूरा मामला तीन दशक से अधिक समय तक चला।
गवाहों की कमी
न्याय में देरी का एक प्रमुख कारण कई पीड़ितों का गवाही देने से इंकार करना था। भारत में बलात्कार के साथ जुड़ी सामाजिक बदनामी अक्सर पीड़िताओं को चुप रहने पर मजबूर कर देती है, जो समाज के फैसले और बहिष्कार के डर से अधिक डरती हैं। इस बदनामी ने न केवल कानूनी प्रक्रिया को बाधित किया, बल्कि आरोपियों को भी साहस दिया, जो इस हेकड़ी से भरे थे कि उन्हें जवाबदेह नहीं ठहराया जाएगा। जांच में 30 पीड़िताओं की पहचान की गई; इनमें से केवल एक दर्जन ने ही मामले दर्ज कराए, और उनमें से भी दस ने बाद में अपना मामला वापस ले लिया। अंतत:, केवल दो पीड़िताएं ही न्याय के लिए डटी रहीं।
अजमेर बलात्कार मामले में पहला फैसला 1998 में सुनाया गया, जिसमें छह साल की कानूनी कार्यवाही के बाद अजमेर जिला अदालत ने आठ आरोपियों को दोषी ठहराते हुए उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। शेष आरोपियों में से एक, फारुक चिश्ती, जो भारतीय युवा कांग्रेस का पूर्व नेता था, मानसिक रूप से अस्थिर हो गया, उसे ‘शिजोफ्रेनिया’ रोग हो गया। फारुख को 2007 में एक फास्ट ट्रैक कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (बलात्कार) और 120बी (आपराधिक साजिश) के तहत दोषी ठहराया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। लेकिन, 2013 में उसे साढ़े छह साल की सजा काटने के बाद जेल से रिहा कर दिया गया।
एक अन्य आरोपी, पुरुषोत्तम ने जमानत पर रिहा होने के तुरंत बाद कथित रूप से आत्महत्या कर ली थी। हालांकि, कुछ रिपोर्ट संकेत देती हैं कि वह अभी भी जीवित हो सकता है। छह अन्य आरोपी, जिनमें सोहेल गनी भी शामिल है, फरार हो गए और अभी तक पकड़ में नहीं आए। सलीम नफीस चिश्ती को जनवरी 2012 में गिरफ्तार किया गया था।
गवाहों की कमी और अन्य कारणों से, राजस्थान उच्च न्यायालय ने बाद में आठ में से चार दोषियों की आजीवन कारावास की सजा को 10 साल के कारावास में बदल दिया, जबकि शेष चार की आजीवन कारावास की सजा को बरकरार रखा। राजस्थान सरकार ने इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी, जहां चार दोषियों ने भी अपनी सजा के खिलाफ अपील की। 2004 में, सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य की अपील और दोषियों की अपील, दोनों को खारिज कर दिया। न्यायमूर्ति एन. संतोष हेगड़े और न्यायमूर्ति बी. पी. सिंह की पीठ ने कहा, ‘मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए, हम इस राय पर पहुंचे हैं कि यदि सजा को दस साल के कठोर कारावास तक घटा दिया जाए तो न्याय का उद्देश्य पूरा हो जाएगा।’
दर्ज हुईं अनेक एफआईआर
इस मामले को और जटिल बनाया था कानून प्रवर्तन के तरीके ने। अजमेर बलात्कार मामले में, पुलिस ने दस से अधिक आरोपपत्र दाखिल किए, लेकिन जिस तरह से उन्हें प्रस्तुत किया गया, उसने अभियोजन पक्ष के प्रयासों को बहुत हद तक कमजोर कर दिया। पहले आठ आरोपियों के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल किए गए, इसके बाद चार अन्य के खिलाफ चार अलग-अलग आरोपपत्र दाखिल किए। इसके बाद, छह अतिरिक्त आरोपियों के खिलाफ चार और आरोपपत्र दाखिल किए गए।
इस खंडित दृष्टिकोण ने एक महत्वपूर्ण प्रक्रियाजनित दोष पैदा किया। मामले को कई आरोपपत्रों और आरोपियों में विभाजित करके, अभियोजन पक्ष ने सामूहिक सबूतों की ताकत को कमजोर कर दिया। प्रत्येक आरोपपत्र को अलग—अलग देखने पर वे कम प्रभावशाली लग सकते थे और बचाव पक्ष इस खंडों में बंटी रणनीति से उत्पन्न असंगतियों या कमियों का फायदा उठा सकता था। इसके अलावा, विस्तारित समय सीमा ने आरोपियों को गवाहों को प्रभावित करने या डराने का मौका दिया, जिससे मामला और कमजोर हो गया।
न्याय दिलाने में सबसे बड़ी कमी तब आई जब पुलिस आरोपों को एकीकृत करने और एक सुसंगत, सम्मोहक मामला पेश करने में विफल रही, जो समय की कसौटी पर खरा उतर सकता था। इस असंगठित रणनीति ने न केवल मुकदमे में देरी की, बल्कि पीड़ितों के लिए त्वरित और व्यापक न्याय हासिल करने की संभावना को भी कम कर दिया। 32 साल बाद भी, देर से आया यह फैसला भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में मौजूद प्रणालीगत समस्याओं की एक कड़ी की ओर संकेत करता है, विशेष रूप से यौन हिंसा से जुड़े मामलों में।
राजनीतिक और सामाजिक संरक्षण
जहां बंगाल में बलात्कार के मामले को लेकर समाज न्याय की मांग कर रहा है, वहीं 100 से अधिक नाबालिग पीड़िताओं से जुड़े अजमेर बलात्कार मामले पर चुप्पी छाई हुई है। हाल ही में सुनाए गए फैसले की रिपोर्ट केवल कुछ स्थानीय मीडिया संस्थानों ने दी। आरोपी कांग्रेस के सदस्य थे और स्थानीय रूप से प्रभावशाली थे।
मुख्य आरोपी फारुख चिश्ती अजमेर युवा कांग्रेस का अध्यक्ष था। नफीस चिश्ती कांग्रेस की अजमेर इकाई का उपाध्यक्ष था तो अनवर चिश्ती इसका संयुक्त सचिव था। रिहा होने के बाद, फारुक चिश्ती ने फिर से अजमेर में एक आरामदायक जीवन बिताना शुरू किया था, वह अक्सर अपने परिवार के साथ दरगाह शरीफ में आते—जाते देखा गया था। इस परिवार में उसके साथ उसका भाई नफीस चिश्ती भी था, जो इस मामले में एक अन्य आरोपी था।
तत्काल आवश्यकता है सुधार की
अजमेर बलात्कार मामला हर तरह से एक घृणित अपराध था, जिसमें बलात्कार और ब्लैकमेल, दोनों अपराध शामिल थे। इसमें कई पीड़िताएं नाबालिग थीं। यह मामला एक बड़े गिरोह से जुड़ा था, जिसमें स्थानीय रूप से प्रभावशाली राजनेताओं का एक नेटवर्क शामिल था जिन्होंने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके लड़कियों का शोषण किया। बहरहाल, इस मामले में जो निर्णय आया है वह अपर्याप्त प्रतीत होता है। यह संकेत करता है कि ऐसे मामलों को कैसे देखा जाना चाहिए। इस प्रक्रिया में सुधार की तत्काल आवश्यकता है—पीड़िताओं की सुरक्षा और समर्थन सुनिश्चित करने से लेकर जांच और अभियोजन प्रक्रिया में दक्षता और सामंजस्य तक में। इन बदलावों के बिना, न्याय की राह लंबी और बाधाओं से भरी रहेगी, और पीड़िताओं को वैसा संतोष नसीब नहीं होगा, जिसकी वे हकदार होती हैं।
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