सम्पूर्ण भारत में प्रतिवर्ष भाद्रपक्ष कृष्णाष्टमी को भारतीय जनमानस के नायक योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में जन्माष्टमी पर्व धूमधाम से मनाया जाता है , जो इस वर्ष 26 अगस्त को मनाया जा रहा है। माना जाता है कि मथुरा के कारागार में इसी दिन वसुदेव की पत्नी देवकी ने अर्धरात्रि के समय श्रीकृष्ण को जन्म दिया था। भारतीय संस्कृति में जन्माष्टमी पर्व के महत्व को जानने के लिए भगवान श्रीकृष्ण के जीवन दर्शन और उनकी अलौकिक लीलाओं को समझना जरूरी है।
श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व न केवल भारतीय इतिहास के लिए बल्कि सम्पूर्ण विश्व के इतिहास के लिए अलौकिक और अद्भुत माना जाता है। भारतीय संस्कृति में सम्पूर्ण अवतार माने जाने वाले श्रीकृष्ण को सोलह कलाओं में सम्पूर्ण माना जाता है। उनके व्यक्तित्व की विविध विशेषताओं के कारण ही उन्हें भारतीय-संस्कृति में महानायक का पद प्राप्त हुआ। उन्होंने अपने बाल्याकाल में अनेकों लीलाएं की, जन्माष्टमी के अवसर पर ऐसी ही अनेक लीलाओं का मंचन किया जाता है। बाल्याकाल से लेकर बड़े होने तक उनकी अनेक लीलाएं विख्यात हैं। उन्होंने अपने बड़े भाई बलराम का घमंड तोड़ने के लिए हनुमान जी का आव्हान किया था, जिसके बाद हनुमान ने बलराम की वाटिका में जाकर बलराम से युद्ध किया और उनका घमंड चूर-चूर कर दिया था।
श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि जीवन में कितनी भी प्रतिकूल परिस्थिति क्यों न हो, हमें उसका मुकाबला सदैव मुस्कराते हुए ही करना चाहिए। ईश्वर होकर भी वे हमेशा साक्षी भाव से दृष्टा बने सब स्वीकारते हुए सहज बने रहे। महिलाओं को मान देने और उनकी रक्षा करने में तो वे सदैव अग्रणी रहे। दरअसल भगवान श्रीकृष्ण का धर्म महिलाओं का ही धर्म है। श्रीकृष्ण के माध्यम से ही हजारों महिलाओं ने मोक्ष पाया था। महिलाओं ने श्रीकृष्ण की जीवनभर सहायता की और श्रीकृष्ण ने भी हर पल उनके मान-सम्मान की रक्षा की। दरअसल महिलाओं के प्रति कृष्ण का विशेष अनुराग था और महिलाएं भी उनके प्रति विशेष अनुराग रखती थी। इसके पीछे कई कारण माने जाते हैं। पहला, वे महिलाओं की संवेदना और उनकी भावनाओं को समझते थे। दूसरा, वे महिलाओं का विशेष सम्मान करते थे। तीसरा, महिलाओं की रक्षा के लिए वे हर समय तत्पर रहते थे।
कृष्ण ने नरकासुर नामक असुर के बंदीगृह से 16100 बंदी महिलाओं को मुक्त कराया था, जिन्हें समाज द्वारा बहिष्कृत कर दिए जाने पर उन महिलाओं ने श्रीकृष्ण से अपनी रक्षा की गुहार लगाई और तब श्रीकृष्ण ने उन सभी महिलाओं को अपनी रानी होने का दर्जा देकर उन्हें सम्मान दिया था। श्रीकृष्ण द्वारा सभी सभी कन्याओं को अपनी रानी का दर्जा दिए जाने के बावजूद वे सभी अपनी इच्छानुसार पूरी स्वतंत्रता के साथ महल के बजाय सम्मानपूर्वक द्वारका में रहती थी और उन्होंने भजन, कीर्तन, ईश्वर भक्ति आदि करके सुखपूर्वक जीवन व्यतीत किया। उनमें से कईयों के साथ यादव पुत्रों ने विवाह भी किया था।
जन्माष्टमी के अवसर पर श्रीकृष्ण के साथ द्रौपदी का तो सहज ही स्मरण हो आता है, जिसका भगवान श्रीकृष्ण ने न केवल हर संकट में साथ देकर अपनी मित्रता का कर्त्तव्य निभाया था बल्कि द्रौपदी के सम्मान की भी रक्षा की थी। एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान कृष्ण ने जब अपने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया था, उस समय उनकी अंगुली कट गई थी, जिससे अंगुली से रक्त बहने लगा था, तब द्रौपदी ने अपनी साड़ी फाड़कर उनकी अंगुली पर बांधकर रक्त को बहने से रोका था। इसी कर्म के बदले श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को आशीर्वाद देकर कहा था कि एक दिन मैं अवश्य तुम्हारी साड़ी की कीमत अदा करूंगा। इन्हीं पुण्य कर्मों के चलते श्रीकृष्ण ने द्रौपदी के चीरहरण के समय उनकी साड़ी को इस पुण्य के बदले ब्याज सहित इतना बढ़ाकर लौटा दिया कि कौरवों की भरी सभा में उनकी लाज बच गई।
श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व में आकर्षण, प्रेमभाव, गुरुत्व, युद्धनीति, बुद्धिमत्ता, चातुर्य इत्यादि अनेक विशेषताएं और विलक्षणताएं समायी हुई हैं। परमज्ञानी, ब्रह्मनिष्ठ, महापुरूष, पूर्ण पुरूष श्रीकृष्ण सदैव सत्य के पक्षधर रहे। वह साधु पुरुषों का उद्धार करने, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए ही पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं को समझना जहां पहुंचे हुए ऋषि-मुनियों और बड़े-बड़े विद्वानों के भी बूते से बाहर है, वहीं अनपढ़, गंवार माने जाते रहे निरक्षर और भोले-भाले ग्वाले और गोपियां उनका सानिध्य पाते हुए उनकी दिव्यता का सुख पाते रहे। उनके लिए वह गोपियों की मटकियां फोड़ने वाले नटखट कन्हैया, माखनचोर, रास रचैया और गोपियों के चित्तचोर थे।
श्रीकृष्ण को प्रेम और मित्रता के अनुपम प्रतीक के रूप में भी जाना जाता है। बचपन के निर्धन मित्र सुदामा को उन्होंने अपने राज्य में जो मान-सम्मान दिया, वह मित्रता का अनुकरणीय उदाकरण बना। एक भक्त के लिए वह भगवान होने के साथ-साथ उसके ऐसे गुरु भी हैं, जो जीवन जीने की कला सिखाते हैं। वह महाभारत काल के ऐसे आध्यात्मिक और राजनीतिक दृष्टा रहे, जिन्होंने धर्म, सत्य और न्याय की रक्षा के लिए दुर्जनों का संहार किया। महान् दार्शनिक, चिंतक, गीता के माध्यम से कर्म एवं सांख्य योग के संदेशवाहक तथा महाभारत युद्ध के नीति निर्देशक श्रीकृष्ण शांति, प्रेम एवं करूणा के साकार रूप थे। उनके आदर्श, उनके जीवन की विद्वत्ता, वीरता, कूटनीति, योगी सदृश उज्जवल, निर्मल एवं प्रेरणादायक पक्ष, सब हमारे लिए अनुकरणीय हैं। पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक, सत्य-असत्य से परे पूर्ण पुरूष की अवधारणा को साकार करते श्रीकृष्ण भारतीय परम्परा के ऐसे प्रतीक हैं, जो जीवन का प्रतिबिम्ब हैं और सम्पूर्ण जीवन का चित्र प्रस्तुत करते हैं।
महाभारत युद्ध के समय शांति के सभी प्रयास असफल होने पर श्रीकृष्ण ने संशयग्रस्त धनुर्धारी अर्जुन को ज्ञान का उपदेश देकर कर्त्तव्य मार्ग पर अग्रसर किया और अन्याय की सत्ता को उखाड़ने के लिए अपने ही कौरव भाईयों के साथ युद्ध करते हुए उन्हें अपने कर्मों का पालन करने के लिए गीता का उपदेश दिया। अर्जुन को दिए उपदेश में उन्होंने कहा था कि हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस भावना से भजता है, मैं भी उसको उसी प्रकार से भजता हूं। गीता में उपदेश देते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः। अभ्युत्थानम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।।’’ अर्थात् ‘‘हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात् साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं।’’
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