योगेश्वर श्रीकृष्ण भारत के पुरा इतिहास के महानतम राष्ट्रनायक हैं। देश की 80 प्रतिशत धर्मप्राण जनता उन्हें इष्ट-आराध्य के रूप में पूजती है तथा उनके आदर्शों से अनुप्राणित होती है। 16 कलाओं से परिपूर्ण योगेश्वर श्रीकृष्ण का समूचा जीवन धार्मिक, नैतिक, सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन की दृष्टि से एक युगांतकारी अवतरण माना जाता है; जिसने ‘’यदा-यदा हि धर्मस्य…संभवामि युगे-युगे’’ का उद्घोष कर असुरत्व के विनाश और देवत्व के संरक्षण के लिए धरती पर समग्र क्रांति का बिगुल बजाया और पथभ्रष्ट समाज को सही दिशा दी। उनका संपूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व हमारे पुरा इतिहास का एक अमिट आलेख है।
भारत की सनातन संस्कृति के इस विलक्षण लोकनायक ने अपने सम्मोहक व्यक्तित्व व अनूठे न्यायप्रिय आचरण से मनुष्य जाति को एक नया जीवन-दर्शन दिया। उनके सार्वदेशिक व सर्वकालिक उपदेशों का मूलाधार लोकमंगल है। युगनायक श्रीकृष्ण अपने समय के सर्वोत्कृष्ट दार्शनिक थे और अनूठे प्रजा वत्सल राजा तथा सुयोग्य प्रशासक भी। कर्मयोगी भी और कर्म से निवृत्त प्रखर संन्यासी भी। उनकी पूर्णता व पारंगतता अद्भुत थी। गीतानायक कृष्ण के व्यक्तित्व में न्यायप्रियता, समदृष्टि, मानवता, मैत्रीभाव, उत्तम नीतिमत्ता, सदाचार, सत्यनिष्ठा, निर्भीकता, शालीनता, मातृ-पितृ व गुरुभक्ति तथा प्रेम का आदर्शतम रूप परिलक्षित होता है। सार रूप में कहें तो कृष्ण के विराट व्यक्तित्व का विस्तार असीमित था। वे व्यक्ति से विराट बने, लोकोत्तर हुए और जगद्गुरु के रूप में विश्व में प्रतिष्ठित हुए।
श्रीमद्भागवत, हरिवंश पुराण तथा महाभारत में वर्णित उल्लेखों के मुताबिक विष्णु के 8वें अवतार के रूप में श्रीकृष्ण का जन्म 8वें मनु वैवस्वत मन्वंतर के 28वें द्वापर युग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को अर्द्ध रात्रि के समय रोहिणी नक्षत्र में हुआ था। भारत के महान गणितज्ञ आर्यभट्ट की गणना के मुताबिक यह समय 3112 ईसा पूर्व अर्थात लगभग 5128 साल पहले का निकलता है। भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि की अर्धरात्रि को विशिष्ट ग्रहीय दशाओं में मथुरा के राजा कंस के कारागार में चमत्कारी परिस्थितियों में अवतरित यह महामानव आध्यात्मिकता का शिखर पुरुष माना जाता है। लीलाधर श्रीकृष्ण के जीवन की बहुआयामी गतिविधियों पर विहंगम दृष्टिपात करने पर हम पाते हैं कि आसुरी शक्तियों, अत्याचारों व अवांछनीय परम्पराओं के निराकरण के विरुद्ध जन्म के साथ ही शुरू हो गया उनका संघर्ष जीवन पर्यन्त जारी रहा। चाहे दुधमुंही आयु में पूतना, वक्कासुर, शटकासुर जैसी शक्तिशाली आसुरी शक्तियों का अंत और माखन चोरी की व बृज की मनोहारी लीलाओं से लेकर मामा कंस के अंत करने के उपरांत उग्रसेन को पुनः मथुरा का राजा बनाना हो। तदुपरांत कंस के श्वसुर मगध के शक्तिशाली सम्राट जरासंध के अत्याचारों से मथुरावासियों को मुक्ति दिलाने के लिए सुदूर पश्चिम में गुजरात प्रांत में समुद्र के मध्य एक भव्य नगरी बसाकर पिता वासुदेव को राजा बनाना हो तथा जगत की भलाई के लिए रण छोड़कर भागने का अपयश अपने सिर लेना हो। महाभारत के युद्ध के सूत्रधार अर्जुन को गीता का उपदेश देकर कर्मण्येवाधिकारस्ते की अनूठी व्याख्या करना हो, सबकुछ अपने आप में अद्भुत है।
काबिलेगौर हो कि श्रीकृष्ण जिस युग में अवतरित हुए थे, उस समय सत्ता के दो प्रमुख केन्द्र थे- हस्तिनापुर और मथुरा। दोनों की ही सत्ता उनके पास नहीं थी फिर भी वे उन दोनों की सत्ता के केंद्र बिंदु थे। विश्वभर के सभी सत्ताधारी उनके इर्द-गिर्द मंडराते रहते थे। श्रीकृष्ण ने अन्य लोगों को सत्ता सौंपी, स्वयं सत्ता से सदैव विरक्त रहे। वास्तव में श्रीकृष्ण राष्ट्रनायक इसीलिए बन सके क्योंकि उन्होंने समाज में अत्याचार करने वाली शक्तियों के विरुद्ध लोकशक्ति को संगठित करने में महती भूमिका निभायी। श्रीकृष्ण हमारे पुरा इतिहास के ऐसे महानायक हैं जिनके इंगित मात्र पर बृज की गोप-गोपिकाएं तत्कालीन नरेश कंस के विरुद्ध एकजुट हो गए थे। जो समूचे राष्ट्र को दिशा देता है, वही सच्चा राष्ट्रनायक होता है। उसके जीवन में पदलिप्सा नहीं होती। त्याग, सत्ता से अनासक्ति तथा लोकशक्ति को संगठित करने की अद्भुत क्षमता; इन तीनों गुणों के कारण ही श्रीकृष्ण युग परिवर्तन करने में सफल हुए। उनकी विनम्रता इस सीमा तक थी कि राजसूय यज्ञ में जब सभी को काम सौंपा गया तो श्रीकृष्ण ने लोगों की झूठी पत्तलें उठाने का जिम्मा खुद ले लिया।
जहां एक ओर श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व विनम्रता के साथ ही असीम करुणा से परिपूर्ण है जो अपने निर्धन मित्र सुदामा की मदद के लिए द्वार तक नंगे पांव दौड़ा चला आता है तो वहीं दूसरी ओर महाभारत के सूत्रधार के रूप में अनीति और अत्याचार का प्रतिकार करने वाला भी उन जैसा कोई दूसरा नहीं मिलता। बालपन से लेकर कुटुम्बीय जीवन तक, उनकी हर बात में जीवन-सूत्र छुपे हैं। सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक और राजनीतिक हर क्षेत्र में वे सच्चे सारथी की भूमिका में खड़े दिखायी देते हैं। उनके विचार और व्यवहार राष्ट्र और समाज की दिशा तय करते हैं। वे एक ऐसी जीवनशैली सुझाते हैं जो सार्थकता और संतुलन लिए हो, समस्याओं से जूझने की ललक लिए हो। गीता में वर्णित उनके सन्देश जीवन-रण में अटल विश्वास के साथ खड़े रहने की सीख देते हैं।
कृष्ण से जुड़ी हर बात हमें जीवन के प्रति जागृत होने का सन्देश देती है। मानव-मन और जीवन के कुशल अध्येता कृष्ण अत्यंत सहजता से समझाते हैं कि जीवन जीना भी एक कला है। उनके चरित्र को जितना जानो उतना ही यह महसूस होता है कि इस धरा पर प्रेम का शाश्वत भाव वही हो सकता है, जो कृष्ण ने जिया है।
परमाणु ऊर्जा के जनक डॉ. होमी जहांगीर भाभा ने श्रीकृष्ण को दी थी ‘’राष्ट्रपिता’’ की उपाधि
जानना दिलचस्प हो कि देश में परमाणु ऊर्जा के जनक महान वैज्ञानिक डॉ. होमी जहांगीर भाभा ने आजाद भारत के प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलन के मंच से कृष्ण को भारत के आदि पिता के रूप में महिमामंडित करते हुए कहा था, ‘’आज हम सब देशवासी देश की आजादी में महात्मा गांधी के अप्रतिम योगदान का सम्मान करते हुए उनको “राष्ट्रपिता” का मान देते हैं। अवश्य ही गांधी महामानव हैं, देश के लिए उनका योगदान अप्रतिम है; मगर मेरी दृष्टि में “राष्ट्रपिता” की उपाधि का प्रथम श्रेय भारतीय इतिहास के सर्वोत्तम राष्ट्रनायक श्रीकृष्ण को ही दिया जाना चाहिए।‘’ श्रीकृष्ण को अपनी ऊर्जा का मूल स्रोत मानने वाले डॉ. भाभा को अपने अध्ययन कक्ष की तीन वस्तुएं विशेष रूप से प्रिय थीं –अपना धर्मग्रन्थ ‘जेंदअवेस्ता’, ‘श्रीमद्भगवदगीता’ और महाभारत के युद्ध का वह चित्र था जिसमें श्रीकृष्ण मोहग्रस्त अर्जुन को आत्मा की अनश्वरता का उपदेश देकर कर्तव्यपथ पर प्रेरित करने वाला गीता का उपदेश दे रहे हैं।
महान अंतरिक्ष विज्ञानी डॉ. विक्रम साराभाई भी योगेश्वर श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व व कृतित्व से अत्यंत प्रभावित थे
बताते चलें कि न सिर्फ डॉ. भाभा अपितु देश के महान अंतरिक्ष विज्ञानी डॉ. विक्रम साराभाई भी श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व व कृतित्व से अत्यंत गहरायी से प्रभावित थे। विक्रम साराभाई की श्रीकृष्ण भक्ति के संदर्भ में एक कथानक प्रचलित है। कहा जाता है कि एक दिन डॉ. विक्रम साराभाई दोपहर के समय भोजनावकाश के समय अपने कार्यालय में बैठे ‘’श्रीमद्भगवदगीता’’ का अध्ययन कर रहे थे। तभी एक युवा वैज्ञानिक उनसे मिलने वहां आया।
चूंकि वह डॉ. साराभाई को पहचानता नहीं था, इसलिए उसे उनके कार्यालय में एक व्यक्ति को ‘’गीता’’ पढ़ते देख भारी विस्मय हुआ। वह युवा वैज्ञानिक उपहासास्पद स्वर में उनसे बोला, ‘’विज्ञान के इस युग में जहाँ एक ओर आज हमारे वैज्ञानिक चांद पर पहुंच गये हैं और दूसरी ओर आप हैं कि विज्ञान के इस केंद्र में बैठ कर “गीता” व “रामायण” जैसी धार्मिक पुस्तकें पढ़ने में समय बर्बाद कर रहे हैं।‘’ उस युवक के मुंह से यह बात सुनकर विक्रम साराभाई ने हौले से मुस्कुराते हुए उस युवा से पूछा, ” महोदय ! आप ‘’श्रीमद्भगवदगीता’’ के विषय में क्या जानते हो?” इस पर वह युवा पुनः दम्भपूर्ण स्वर में बोला,‘’ छोड़िए इन बातों को, मैं इन बेकार की बातों में समय बर्बाद नहीं करना चाहता। मैं तो ‘’विक्रम साराभाई शोध संस्थान’’ का छात्र हूं, और यहां डॉ. विक्रम साराभाई से मिलने आया हूं। श्रीमद्भगवदगीता जैसी किताबें मेरे लिए बिल्कुल निरर्थक हैं।” उसके यह कहने पर जब डॉ. साराभाई ने जब उसे अपना परिचय दिया तो वह युवा स्तब्ध होकर उन्हें देखता रह गया।‘’
धर्म और विज्ञान की सीमाओं से परे है ‘’श्रीमद्भगवदगीता’’ के सार्वदेशिक व सर्वकालिक उपदेश
भारत के इन विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिकों के जीवन के उपरोक्त प्रसंग इस बात को प्रमाणित करते हैं कि धर्म और विज्ञान की सीमाओं से परे ‘’गीता’’ में दिये गये श्रीकृष्ण के सार्वदेशिक व सर्वकालिक उपदेशों का मूलाधार लोकमंगल है तथा धर्म और विज्ञान इस लोकमंगल की सिद्धि की दो अलग अलग रास्ते। श्रीकृष्ण का उदात्त चरित्र इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि लोकमंगल में सतत संलग्न रहने वाला लोकनायक ही वास्तव में राष्ट्रनायक होता है। इस दृष्टि से श्रीकृष्ण भारतीय इतिहास के सर्वोत्तम राष्ट्रनायक साबित होते हैं।
उनका व्यक्तित्व व कृतित्व ही नहीं उपलब्धियां भी अत्यंत विराट हैं। द्वारका से लेकर मणिपुर तक भारत को एकसूत्र में आबद्ध कर उन्होंने राष्ट्र को इतना बलवान बना दिया था कि सैकड़ों वर्ष तक विदेशी शक्तिओं द्वारा कई प्रयत्न किये जाने के बावजूद देश खंडित नहीं हुआ। जीवन के विभिन्न आयामों को एक साथ अधिकारपूर्वक जीना भारतीय संस्कृति के इस विलक्षण महानायक की अनूठी विशिष्टता थी। समूचे विश्व को ज्ञान, कर्म और भक्ति योग की दिव्य ज्योति दिखाने वाले लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का समूचा जीवन अपूर्व तेजस्विता व अन्याय के प्रतिकार का पर्याय कहा जा सकता है। श्रीमद्भगवत गीता जैसी कालजयी कृति के सर्जक कृष्ण हर मोर्चे पर क्रांतिकारी विचारों के धनी नजर आते हैं।
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