क्रांतिकारी शिवराम राजगुरू जिला पुणे के निवासी थे। वे नागपुर की भोंसले वेदशाला में संस्कृत पढ़ने आये। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार से उनका परिचय हुआ, और वे संघ के प्रथम संघस्थान मोहिते के बाड़े की शाखा के स्वयंसेवक बन गये। डॉक्टर जी क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति की अन्तरंग समिति में थे तथा समिति की ओर से पंजाब भेजे गये शचीन्द्र सान्याल एवं यूपी भेजे गये योगेश चटर्जी से अच्छी प्रकार परिचित थे । राजगुरू भी मूलतः क्रांतिकारी स्वभाव के थे। उन्होंने सुना कि चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह आदि ने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन आर्मी (एच. एस. आर. ए.) नाम से दल गठित किया, वे भी उसमें शामिल होने पंजाब पहुंच गये। राजगुरु बहुत बेहतरीन निशानेबाज थे। उनकी इस खूबी से प्रभावित होकर आजाद जी ने उन्हें दल में भर्ती कर लिया ।
राजगुरु को बहुत शीघ्र ही अपनी खूबी प्रदर्शित करने का मौका मिल गया । नवंबर 1928 में लाहौर साइमन कमीशन का विरोध करते हुए पंजाब केसरी लाला लाजपत राय पर पुलिस ने डंडे बरसाये जो घातक सिद्ध हुए और लाला लाजपत राय जी का निधन हो गया। क्रांतिकारियों ने तय किया कि इस हत्या का बदला लिया जाएगा।
राजगुरु और भगत सिंह आदि को पिस्तौल / रिवॉल्वर के साथ लाहौर कोतवाली भेजा गया। वहां से मोटरसाइकिल द्वारा बाहर आते ही डीएसपी सांडर्स को इन लोगों ने भून दिया। बाद में इनकी ओर से पोस्टर चिपकाया गया कि ये वास्तव में एस पी स्कॉट को निशाना बनाना चाहते थे, पर गलती से सांडर्स हत्थे चढ़ गया। अंग्रेज पुलिस तथा सरकार को यह खुली चुनौती थी। पूरा प्रशासन इन लोगों की धरपकड़ में जुट गया। पुलिस ने गोली चलाने के बाद भागते हुए एक सिख नौजवान को देखा था, लिहाजा केशधारी युवकों की जांच धड़ल्ले से की जाने लगी। भगत सिंह ने अपने केश कटवाए तथा एक यूरोपियन का वेश बनाया । उनका गोरा रंग उसमें सहायक रहा। यह तय किया गया कि भगत सिंह- राजगुरु को ट्रेन द्वारा लाहौर से कलकत्ता भेजा जाये। दुर्गाभाभी अपने गोद के बेटे शची को साथ लेकर उनके साथ गयीं। राजगुरु सामान उठाने वाले सहायक के रूप में साथ थे।
कलकत्ता में कांग्रेस का 1928 का अधिवेशन चल रहा था। डॉ. हेडगेवार मध्य प्रान्त कांग्रेस के सहमंत्री के तौर पर इसमें पहुंचे हुए थे। राजगुरु से उनकी मुलाकात हुई। फरारी के समय छुप कर रहने के लिए उन्होंने संघ के अधिकारी भैया जी दाणी के खलिहान पर रहने की व्यवस्था की। डॉक्टर जी ने राजगुरु को समझाया था कि वह गाँव छोड़कर कहीं न जाएं। पर चंचल स्वभाव राजगुरु रेल से पुणे पहुंच गए और वहां स्टेशन पर पकड़े गए। बाद में भगत सिंह, सुखदेव के साथ लाहौर षड्यंत्र केस चलाया गया और फांसी की सजा हुई।
कांग्रेस के तमाम नेता क्रांतिकारियों को पागल बताया करते थे। राजगुरु ने इस शेर द्वारा उन्हें जवाब दिया था –
उन्हीं बिगड़े दिमागों में घनी खुशियों के लच्छे हैं
हमें पागल ही रहने दो कि हम पागल ही अच्छे हैं।
राम प्रसाद बिस्मिल ने क्रांतिकारियों और कांग्रेसियों के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए लिखा था-
देशसेवक सभी अब जेल में मूंजे कुटे
‘वे’ वहाँ मौज से दिनरात बहारें लूटे
क्यों न तरजीह दें इस जीने पे मर जाने को ।
अहिंसा के नाम पर कांग्रेसियों का क्रांतिकारी-विरोध और अंग्रेज का समर्थन सदा चलता रहा है। तिलक-युगीन कांग्रेस ही इसका अपवाद थी। राजगुरु अपने साथी शहीदों- भगत सिंह और सुखदेव में सबसे छोटे थे। 23 मार्च 1931 का दिन तीनों हुतात्माओं की याद बरबस जगा जाता है। यह देश और खासकर यह पीढ़ी इन लोगों से विशुद्ध देशप्रेम का पाठ सीखने को तत्पर होगी कि नहीं?
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