1980 के दशक के किशोरों के लिए जॉन रैम्बो एक आकर्षक चरित्र था। हॉलीवुड ने उसे ‘अजेय’ अमेरिकी सैनिक के रूप में पेश किया, जो कुछ भी गलत नहीं कर सकता था। फिल्म रैम्बो-3 में जॉन रैम्बो ‘दुष्ट’ और ‘क्रूर’ सोवियत सेना के विरुद्ध लड़ने के लिए अफगानिस्तान गया था। शक्तिशाली सोवियत सैनिकों से मुकाबला करने के लिए उसके पास ‘निर्दोष’ अफगान थे। कम से कम हॉलीवुड द्वारा इसे इसी तरह पेश किया गया था।
तब और आज भी अधिकांश लोगों को इस बात का अहसास नहीं है कि रैम्बो एक सीआईए गुप्तचर था, जो पूरे मध्य पूर्व, पाकिस्तान और अन्य स्थानों से आए मुजाहिदीनों के साथ मेलजोल रखता था। अफगानिस्तान में सोवियत उपस्थिति के विरुद्ध छद्म युद्ध लड़ने के लिए अमेरिका द्वारा उसे पूरी तरह सशस्त्र, प्रशिक्षित और वित्त पोषित किया गया था। बाद में उन मुजाहिदीनों ने अमेरिका के तब करीबी सहयोगी पाकिस्तान के समर्थन से लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हिजबुल मुजाहिदीन और सबसे कुख्यात अल-कायदा जैसे आधुनिक आतंकी संगठनों को जन्म दिया। ओसामा बिन लादेन खुद इस्लामी कट्टरपंथ के उस पारिस्थितिकी तंत्र का एक उत्पाद था, जिसे अमेरिका ने अपने गुप्त उद्देश्यों के लिए अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में खड़ा किया था।
1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में जनरल जिया-उल-हक ने अमेरिका के कहने पर पाकिस्तानी समाज में आतंकवाद और मजहबी कट्टरपंथ को बढ़ावा देना शुरू किया। इसने पूरे पाकिस्तान में अनगिनत कट्टरपंथी मदरसों को जन्म दिया, जहां से ‘जिहाद’ के लिए मर-मिटने को तैयार कट्टरपंथी तत्वों की अंतहीन आपूर्ति शुरू हुई। इसका प्रयोग सबसे पहले अफगानिस्तान को संघर्षों की अंधी गहरी खाई में धकेलने में किया गया। फिर कट्टरपंथियों की फौज को भारत में तबाही मचाने के लिए भेजा गया। एक ऐसा राष्ट्र, जो प्रकृति में लोकतांत्रिक था, बहुलवाद और कानून के शासन में विश्वास करता था और आधुनिकता को अपनाने के लिए अपने औपनिवेशिक अतीत को तोड़ने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा था।
दशकों तक भारत ने पाकिस्तान से भेजे जाने वाले आतंकवाद की अंतहीन खेप का मुकाबला किया, जिसके बीज अमेरिकी मदद से बोए गए थे। दशकों तक पश्चिम और विशेष रूप से अमेरिका, यह स्वीकार करने से कतराता रहा कि पाकिस्तान में कट्टरपंथी आतंकवाद का पारिस्थितिकी तंत्र एक बहुत बड़ा खतरा है, क्योंकि पश्चिम के ‘गंदे’ खेलों को अंजाम देने के लिए पाकिस्तान एक जांचा-परखा मित्र था।
आखिरकार, 9/11 के भीषण आतंकी हमलों के बाद वाशिंगटन को यह सच स्वीकार करना पड़ा कि आतंकवाद का खतरा अमेरिका को भी नहीं बख्श रहा है। पिछले कुछ वर्षों में इस्लामी आतंकवाद का खतरा और पाकिस्तान के साथ इसका ऐसा गहरा संबंध बन गया कि अंतत: इसने पाकिस्तान को भी डसना शुरू कर दिया। यहां तक कि हिलेरी क्लिंटन ने एक बार पाकिस्तान के बारे में टिप्पणी की थी, ‘‘अगर आप अपने घर के पीछे सांप पालते हैं, तो उनसे यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे केवल आपके पड़ोसियों को ही डसेंगे।’’
वास्तव में ज्ञान की बातें भले ही अमेरिका में बाकी लोगों की तरह हिलेरी क्लिंटन भी आसानी से भूल जाती हैं कि पाकिस्तान को उन सांपों को पालने-पोसने में किसने मदद की थी। मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका, यूरोप, अमेरिका और कहने की जरूरत नहीं है कि भारत में कहीं भी अधिकांश आतंकी हमलों का संबंध हमेशा पाकिस्तान से रहा है। फिर भी अमेरिका ने सबक नहीं सीखा। इसके विपरीत, यह गैर-राज्य अभिकर्ताओं के उपयोग से आगे बढ़ गया और सत्ता परिवर्तन को गति प्रदान करने के लिए अन्य विभिन्न तरीकों से भीड़ को हथियार बनाने की कला में महारत हासिल कर ली, जहां भी यह उनके अनुकूल था। जन अशांति राष्ट्रों को बाधित करने, सरकारों को गिराने और किसी भी राष्ट्र की प्रगति को अवरुद्ध करने का एक शक्तिशाली उपकरण बन गई, जिसने विश्व मामलों पर उनकी पकड़ के लिए खतरा पैदा कर दिया।
अरब स्प्रिंग यानी युद्ध के नए तरीके
2010 के बाद से अरब स्प्रिंग मध्य पूर्वी और उत्तरी अफ्रीकी देशों में शासन की संरचना को नष्ट करने का एक नया उपकरण बन गया। ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’, ‘लोकतंत्र’, ‘मुक्त विश्व’, ‘मानवता’ और ‘समानता’ के नाम पर एक-एक कर देश कभी न खत्म होने वाले संघर्षों में फंसते चले गए। सोशल मीडिया का उपयोग भावनाओं को भड़काने तथा मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीकी देशों के लोगों को उनकी संबंधित सरकारों के विरुद्ध विद्रोह के लिए जोड़-तोड़ के एक उपकरण के रूप में किया गया। जनता की अशांति ने गृह युद्धों का मार्ग प्रशस्त किया। सीरिया या ट्यूनीशिया के विश्वविद्यालयों से शुरू छात्रों का विरोध अंतत: कट्टरपंथी आतंकी समूहों द्वारा हाइजैक कर लिया गया।
सद्दाम हुसैन की फांसी के बाद इराक अमेरिका के नियंत्रण से पूरी तरह बाहर हो गया। वास्तव में, इराक पर अमेरिकी आक्रमण ही संदिग्ध था। अराजकता के कारण सांप्रदायिक हिंसा, हथियारों की मुफ्त उपलब्धता और सोशल मीडिया की हिंसक सक्रियता ने सशस्त्र समूहों को जन्म दिया, जिन्होंने अपने-अपने देशों के विरुद्ध प्राय: एक-दूसरे के विरुद्ध युद्ध छेड़ना शुरू कर दिया। इन सब कारणों से आईएसआईएस, अल-नुसरा और ऐसे कई हिंसक आतंकी संगठनों का जन्म हुआ।
उनकी क्रूरता, समानांतर अर्थव्यवस्था बनाने के प्रयास और इस्लामी राज्य बनाने की उनकी आकांक्षा के परिणामस्वरूप मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हिंसा के दलदल में धंस गया, जिसने एक के बाद एक शहर और देश को नष्ट कर दिया। सीरिया से लीबिया तक, इराक से लेकर उत्तरी अफ्रीका के बाकी हिस्सों तक, कोई भी जगह इससे नहीं बची। केवल सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, ओमान, कुवैत और कुछ अन्य ही अपेक्षाकृत बरकरार रहे, लेकिन बड़े रक्तपात के बिना नहीं।
क्या पश्चिम ने उन लोगों को कमजोर कर दिया, जो कट्टरपंथी इस्लामी समूहों के खिलाफ थे? यह याद रखना चाहिए कि सद्दाम हुसैन से लेकर बशर अल असद और मुअम्मर गद्दाफी तक, लोकतंत्र के प्रति बहुत अधिक सम्मान न रखने वाले तानाशाह रहे होंगे, लेकिन उनके संबंधित देश चाहे वह इराक हो, सीरिया या लीबिया, अपेक्षाकृत आधुनिक राष्ट्र थे। उनके देशों में महिलाओं को स्वतंत्रता थी और वे प्रतिबंधात्मक, प्रतिगामी या दमनकारी कानूनों के अधीन नहीं थीं। शिक्षा प्रणाली जीवंत थी और प्रत्येक ने अपने-अपने क्षेत्र में कल्याणकारी राज्य बनाने का प्रयास किया था। यहां तक कि सद्दाम हुसैन या गद्दाफी के कट्टर आलोचक भी इससे इनकार नहीं कर सकते।
दिलचस्प बात यह है कि उनमें से प्रत्येक अल-कायदा जैसे कट्टरपंथी आतंकी समूहों के सख्त खिलाफ थे। फिर भी अंत में उन्हें निशाना बनाया गया। लीबिया और इराक नष्ट हो गए, जबकि गंभीर रूप से घायल सीरिया रूसी और ईरानी हस्तक्षेप की सहायता से किसी तरह बच गया। वे अरब राष्ट्रवाद की बाथिस्ट विचारधारा के समर्थक थे। उनके पास अपने मुद्दे हो सकते हैं, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे इस्लामी आतंकी समूहों के खिलाफ लड़ाई में सबसे आगे थे। अमेरिकी हस्तक्षेप ने अनिवार्य रूप से वहां ऐसे कट्टरपंथी इस्लामी आतंकी समूहों के खिलाफ लड़ाई को खत्म कर दिया।
क्या सत्ता परिवर्तन के खेल से मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका को मदद मिली? मूलत: विचारणीय प्रश्न यह है। क्या मध्य पूर्व में अरब स्प्रिंग द्वारा समर्थित, पश्चिम द्वारा समर्थित विद्रोह ने मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका क्षेत्र को बेहतर बनाने में मदद की? क्या अमेरिका सद्दाम हुसैन और मुअम्मर गद्दाफी को नष्ट करके इराक या लीबिया को बेहतर बना सकता है? क्या कोई इससे इनकार कर सकता है कि लीबिया कभी अफ्रीका के आर्थिक रूप से बेहतर देशों में से एक था? आज लीबिया, इराक की तरह कभी न खत्म होने वाले गृहयुद्ध में डूब गया है। आंतरिक उथल-पुथल उस समय शुरू हुई, जब गद्दाफी को अमेरिका समर्थित बलों ने मार डाला। भले ही अमेरिका यह दावा करता रहा कि गद्दाफी युग का अंत लीबिया के लिए एक नई सुबह लाएगा, लेकिन हमेशा की तरह हुआ बिल्कुल इसके विपरीत।
इससे भी बुरी बात यह है कि गद्दाफी के मारे जाने के एक साल से भी कम समय के बाद लीबिया के बेंगाजी में आतंकी समूह अंसार-अल-शरिया द्वारा अमेरिकी राजदूत क्रिस्टोफर स्टीवंस की हत्या कर दी गई, जो लीबिया में गद्दाफी के निष्कासन के कारण पैदा हुई गड़बड़ी और शून्यता की पुष्टि है। लीबिया पर अराजकता का साया अब स्थायी था। संयुक्त राज्य अफ्रीका बनाने का सपना देखने वाले गद्दाफी से लेकर सद्दाम हुसैन तक, जो तेल के व्यापार के लिए आधार मुद्रा के रूप में यूरो के पक्ष में डॉलर को छोड़ना चाहते थे, जाहिर तौर पर कई लोग यह निष्कर्ष निकालते हैं कि उनके पतन के वास्तविक कारणों का इससे कोई लेना-देना नहीं है।अमेरिका वास्तव में वहां लोकतंत्र लाना चाहता है।
दरअसल, यह एक ‘विंडो ड्रेसिंग’ मात्र थी, जिसका उद्देश्य वास्तविक इरादों को छिपाना था ताकि गद्दाफी एक मजबूत और एकजुट अफ्रीका के ध्वजवाहक न बनें, ऐसा न हो कि उसके संसाधनों का दोहन करना मुश्किल हो जाए या सद्दाम हुसैन बाकियों को यह न बता सकें कि तेल व्यापार के लिए अन्य मुद्राओं के पक्ष में डॉलर को कैसे डंप किया जाए।
हाइब्रिड युद्ध यानी अराजकता फैलाना
दुख की बात है कि पश्चिम, विशेष रूप से अमेरिका ने सविनय अवज्ञा शुरू करने के लिए भीड़ को हथियार बनाने और अंतत: एक राष्ट्र को अराजकता में धकेलने में और अधिक महारत हासिल कर ली है। ढेरों गैर-सरकारी संगठन, थिंक टैंक तकनीकी मीडिया दिग्गजों के साथ मिलकर काम करते हैं ताकि धीरे-धीरे अराजकतावादी गुस्से में सत्ता विरोधी आक्रोश का जहर घोला जा सके। एल्गोरिदम और कृत्रिम बुद्धिमता के उपयोग, सोशल मीडिया के प्रसार की सहायता से यह सुनिश्चित कर दिया गया है कि पश्चिम किसी देश के लोगों को एक खास विमर्श में भरोसा दिलाने के लिए राज्यों को दरकिनार कर सकता है, जिसे लोगों को उनके राष्ट्र के खिलाफ खड़ा करने के लिए लगातार और बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है। किसी भी विपरीत दृष्टिकोण को ‘फासीवादी’, ‘वर्चस्ववादी’ या ‘सत्तावादी’ बताकर उसे हटा दिया जाता है। भीड़ को यह विश्वास दिलाकर उन्माद में डाल दिया जाता है कि अपनी सरकार को उखाड़ फेंकना उनकी सभी बीमारियों का रामबाण इलाज होगा।
किस प्रकार यूके्रन को छद्म युद्ध में फंसाया गया। अरब स्प्रिंग टेम्पलेट का यूक्रेन में भी अनुप्रयोग देखा गया। आरेंज रिवोल्यूशन से लेकर यूरोमैडन तक, यूक्रेन ने अपनी ही सरकार के खिलाफ बड़े पैमाने पर विद्रोह देखा, जो मूलत: पश्चिम समर्थक नहीं थी। हमेशा की तरह सत्ता परिवर्तन की गाथा चली। शुरुआती उत्साह के बाद यूक्रेन अंतत: रूस के साथ संघर्ष में फंस गया। वस्तुत: वह अमेरिका और नाटो की ओर से युद्ध लड़ रहा है। एक ऐसा संघर्ष, जिसे रूस के खिलाफ नाटो सदस्य टालना चाहते थे, लेकिन अपनी ओर से लड़ने के लिए यूक्रेनवासियों को अपरिहार्य मोहरों के रूप में उपयोग कर रहे हैं।
एक संघर्ष, जिसमें यूक्रेनवासी मर रहे हैं और पश्चिम के सैन्य औद्योगिक परिसर विशेष रूप से अमेरिका के सैन्य औद्योगिक परिसर को हथियार प्रणालियों की असीमित आपूर्ति के कारण अकूत मुनाफा हो रहा है, जिसे अमेरिकी सरकार यूक्रेन-रूस युद्ध को बढ़ावा देने के लिए अपनी रक्षा कंपनियों से खरीद रही है। यहां भी ‘मुक्त दुनिया’, ‘लोकतंत्र’, ‘मानवता’ के वही बहाने इस्तेमाल किए गए हैं ताकि यूक्रेनवासी लड़ते-मरते रहें। इतना कि अमेरिका को नाजी समर्थकों और यूक्रेन के विवादास्पद अर्धसैनिक संगठन अजोव ब्रिगेड जैसी श्वेत वर्चस्ववादी संस्थाओं का समर्थन करने में भी कोई समस्या नहीं है।
यह शायद केवल समय की बात है कि यूक्रेन में युद्ध का यूरोप के बाकी हिस्सों में विनाशकारी परिणाम होगा। इससे भी बुरी बात यह है कि अरब स्प्रिंग के कारण मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीकी क्षेत्र में संघर्ष पैदा हुआ, जिसके बाद इस क्षेत्र से पश्चिमी यूरोप में बड़े पैमाने पर मुसलमानों का प्रवासन हुआ। इसके कारण जनसांख्यिक परिवर्तन हुआ और सामाजिक उथल-पुथल हुई, जैसा कि अब फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, ब्रिटेन और कई अन्य देशों में स्पष्ट है। कई लोगों को डर है कि यूरोपीय संघ, अमेरिकी अरबपति जॉर्ज सोरोस और कई अन्य प्रमुख संगठनों द्वारा समर्थित ऐसे अंतहीन सामूहिक प्रवास के परिणामस्वरूप केवल इस्लामवादियों और मुख्य रूप से यूरोप की ईसाई आबादी के बीच गहरे संघर्ष होंगे।
बांग्लादेश में अशांति
वापस सत्ता परिवर्तन के मुद्दे पर लौटते हैं। ऐसा बहुत कम होता है कि कोई पूर्व राष्ट्राध्यक्ष सत्ता से बेदखल होने पर खुले तौर पर अमेरिका को दोषी ठहराए। बांग्लादेश की अपदस्थ पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना, जिन्हें हिंसक छात्र विरोध के बीच देश से बाहर निकलना पड़ा था, ने खुद को सत्ता से बेदखल करने के लिए अमेरिकी सरकार को सीधे तौर पर दोषी ठहराया है। उन्होंने दावा किया कि रणनीतिक रूप से स्थित सेंट मार्टिन द्वीप की संप्रभुता, वहां सैन्य अड्डा स्थापित करने के लिए अमेरिका को सौंपने से इनकार करने के कारण उन्हें पद से हटाया गया।
क्या बांग्लादेश में उथल-पुथल संगठित या सुनियोजित थी? वास्तव में अमेरिका बंगाल की खाड़ी में अपना कब्जा चाहता है और ‘लिली-पैड’ अड्डों की एक शृंखला स्थापित करने का प्रयास कर रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि शेख हसीना सरकार के खिलाफ आम जनता में एक निश्चित स्तर का आक्रोश था, जो प्रदर्शनकारी छात्रों के खिलाफ पुलिस गोलीबारी से और बढ़ गया। हालांकि, जिस तरह से उस गुस्से को भुनाया गया, राष्ट्रव्यापी विरोध पैदा करने के लिए ‘चैनलाइज’ किया गया, सोशल मीडिया को हसीना विरोधी कहानी से भर दिया गया, राष्ट्रव्यापी विरोध को हसीना सरकार को हटाने की नए सिरे से मांग के साथ पुनर्जीवित किया गया, उसके बाद भी वहां के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण में भारी कमी कर दी थी।
बांग्लादेश सेना ने आचरण को दरकिनार करते हुए शेख हसीना को एक घंटे से भी कम समय में देश छोड़ने के लिए कहा। उन्हें इसकी इजाजत भी नहीं दी गई कि अपने देशवासियों को अंतिम संदेश दे सकें। मोहम्मद यूनुस, जो अमेरिका के साथ अपनी निकटता के लिए जाने जाते हैं, को अंतरिम सरकार का ‘मुख्य सलाहकार’ बनाया गया। आश्चर्यजनक तरीके से कोटा विरोधी आंदोलन का नेतृत्व करने वाले छात्रों को, जिनके पास शासन कोई अनुभव नहीं था, उन्हें सरकार में शीर्ष सलाहकार नियुक्त किया गया। लगता नहीं कि यह सब बिना किसी बड़ी भूमिका के स्वाभाविक ढंग से हुआ है।
शेख हसीना को सत्ता से बेदखल करने के बाद भीषण हिंसा, अवामी लीग के सदस्यों और समर्थकों की लक्षित हत्या, हिंदुओं के व्यापारिक संगठनों पर योजनाबद्ध हमले, मंदिरों का विनाश, हिंदू परिवारों पर हमले और महिलाओं से अभ्रदता की गई। खून की प्यासी भीड़ बेरोकटोक एक के बाद एक संस्थाओं को गिरती रही, आगजनी करती रही और यह सुनिश्चित करती रही कि देश वास्तव में अराजकता की चपेट में आ जाए।
आज बांग्लादेश में जो हालात हैं, वहां सर्वोच्च न्यायालय के शीर्ष न्यायाधीशों को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जबकि पुलिसकर्मियों की लक्षित हत्या ने तो पुलिस के बुनियादी ढांचे को हिलाकर रख दिया है, जो अब लगभग बेकार हो चुका है। बांग्लादेश में जो हुआ, वह अरब स्प्रिंग का एक विशेष उदाहरण है, जिसने एक सरकार को हटाने के अलावा कट्टरपंथियों को प्रोत्साहित करते हुए नरमपंथियों को ‘बैकफुट’ पर ला दिया है। हालांकि, बांग्लादेश में समृद्धि और शांति भारत के वास्तविक हित में है, लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि देश जिस मौजूदा संकट में घिर गया है, उसे देखते हुए इसे कैसे हासिल किया जा सकता है।
वियतनाम युद्ध के दिनों से दूर शासन परिवर्तन शुरू करना अब पश्चिम में कुछ लोगों के लिए चालाकी की कला बन गया है और इसमें अमेरिकियों को अपना खून बहाने की जरूरत नहीं पड़ती है। अब किसी देश के लोग अपने ही राष्ट्र को नष्ट करने के लिए हथियारबंद हो जाते हैं। उन्हें किसी बाहरी व्यक्ति की जरूरत नहीं है। हालांकि, सत्ता परिवर्तन के ऐसे खतरनाक खेलों से शायद ही कभी उन देशों का भुला हुआ हो। अफगानिस्तान में 20 साल बिताने और 2 खरब डॉलर से अधिक खर्च करने के बाद, 9/11 के आतंकी हमले के बाद, अफगानिस्तान अब अमेरिका के वहां जाने से पहले की तुलना में कहीं अधिक बदतर स्थिति में है। सिर्फ अमेरिका का सैन्य औद्योगिक परिसर समृद्ध हुआ। इराक से सीरिया और लीबिया तक, कहानी कोई बेहतर नहीं है। लाख टके का सवाल है कि बांग्लादेश में भाग्य किसका इंतजार कर रहा है?
भारत के लिए बाधा?
अब यह बिल्कुल स्पष्ट है कि कैसे पश्चिम ने लगातार भारत के विकास को बाधित करने की कोशिश की है। कई लोगों को आशंका है कि पश्चिम को भारत के एक जीवंत, सांस्कृतिक रूप से निहित, तकनीकी रूप से उन्नत, बहुसांस्कृतिक लोकतंत्र और पश्चिमी आदेशों का पालन करने से इनकार करने वाले लोकतंत्र के रूप में उभरने में समस्या है। अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में उथल-पुथल से लेकर बांग्लादेश में अनिश्चितता पैदा करने तक, भारत के लिए बड़ा सुरक्षा खतरा पैदा करती है।
भारतीय चुनावी प्रक्रिया में विदेशी हस्तक्षेप के आरोपों से लेकर भारतीय कॉर्पोरेट दिग्गजों के खिलाफ हिंडनबर्ग रिपोर्ट की घुड़कियों तक, भारत की ‘गलतियों’ का फायदा उठाने की कोशिश से लेकर भारत को सभी प्रकार की नकारात्मकताओं में पेश करने के लिए पश्चिम द्वारा कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। भले ही भारत ने कठिन समय के दौरान सभी बाधाओं के बावजूद दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभरने के लिए प्रयास किया और उत्साहपूर्वक कोरोना महामारी से मुकाबला किया। यहां तक कि आतंकवाद, खालिस्तानी अलगाववादी समूहों के मुद्दे पर भी अमेरिकी नेतृत्व वाले ‘फाइव आईज इंटेलिजेंस एलायंस’ का स्पष्ट दोहरा मापदंड भारत के खिलाफ पश्चिम के दोहरे खेल को और भी अधिक उजागर करता है।
पश्चिम, विशेष रूप से अमेरिका, उम्मीद करता है कि दुनिया आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में उसके पीछे आ जुटेगी, लेकिन गुरपतवंत सिंह पन्नू जैसे खालिस्तानी आतंकी द्वारा एयर इंडिया के विमानों को उड़ाने की धमकियों के प्रति वह पूरी तरह से उदासीन है। इसलिए यह पश्चिम और विशेष रूप से अमेरिका के लिए आत्मनिरीक्षण का समय है कि उसकी दखल ने दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने में मदद की है या केवल नरमपंथियों की कीमत पर अधिक तबाही मचाने और आतंकी समूहों को प्रोत्साहित करने में मदद की है?
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