रक्षाबंधन आते ही हम तरह-तरह की कहानियाँ सुनते हैं। इतिहास में कई कहानियाँ सम्मिलित कर दी जाती हैं और कई कहानियाँ ऐतिहासिक संदर्भों के परे जाकर भी रच दी जाती हैं। और फिर ऐसी कहानियों से हिंदुओं के हर पर्व के साथ कुत्सित खेल किया जाता है। रक्षाबंधन भी इससे अछूता नहीं है। जो पर्व पूरी तरह से हिंदुओं की आस्था का प्रतीक है, उसे भी हुमायूँ जैसे अय्याश और अफीमची व्यक्ति के साथ जोड़ने का प्रयास किया जाता है।
रानी पद्मिनी के जौहर की कहानी सभी को पता है, परंतु दूसरे जौहर की कहानी पर चर्चा कम होती है। चित्तौड़ का दूसरा जौहर किया था रानी कर्णावती ने। इस जौहर में उन्होंने तीन हजार महिलाओं के साथ अग्नि में प्रवेश कर लिया था। यह जौहर रानी कर्णावती ने तब किया था, जब उन्होंने यह देखा था कि अब गुजरात का बहादुरशाह चित्तौड़ को जीत लेगा तो उन्होंने अपने दोनों बेटों विक्रमजीत सिंह और उदय सिंह को गुप्त मार्ग से पन्ना धाय के माध्यम से बूंदी भेज दिया था और फिर सेनापतियों को बुलाकर हमले की नीति बनाई थी।
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ऐसा कहा जाता है कि चित्तौड़ की रानी कर्णावती ने हुमायूँ को राखी भेज कर गुजरात के क्रूर शासक बहादुरशाह के विरुद्ध सहायता मांगी थी और हुमायूँ उस राखी की लाज रखते हुए रानी की सहायता करने के लिए आया था। मगर वह समय पर नहीं पहुँच सका था, जिसके कारण रानी को जौहर करना पड़ा था। और हुमायूं ने इस बात का बदला बहादुर शाह से लिया था और उसे पराजित किया था।
पर क्या वास्तव में यही कहानी है। घटनाक्रम यही है। मगर इस घटनाक्रम की कहानी कुछ और है। दरअसल बाबर केवल भारत पर चार वर्ष के लगभग ही रुक सका था और पानीपत के प्रथम युद्ध के चौथे वर्ष 1530 में उसकी मौत हो गई थी। उसकी मौत के बाद जहां दिल्ली की गद्दी पर हुमायूँ बैठा तो वहीं गुजरात में बहादुर शाह का शासन था। उस समय चित्तौड़ में राणा सांगा के बेटे विक्रमादित्य को सिंहासन पर बैठाकर रानी कर्णावती शासन कर रही थी। बहादुरशाह और हुमायूं दोनों की ही नजर चित्तौड़ पर थी। बहादुर शाह राणा सांगा और राणा रतन सिंह के रहते चित्तौड़ पर देखने की हिम्मत नहीं कर सका था। मगर विक्रमादित्य के शासन के प्रति उसे आशा थी कि वह चित्तौड़ जीत लेगा। उसने चित्तौड़ पर हमला करने का विचार किया और आगे बढ़ा।
ऐसा कहा जाता है कि राणा सांगा की पत्नी रानी कर्णावती ने बहादुर शाह के हमले से रक्षा के लिए हुमायूं को पत्र भेजा था। परंतु हिस्ट्री ऑफ मेडिवल इंडिया (पृष्ठ 213) में इतिहासकार सतीश चंद्र लिखते हैं कि “कुछ ऐतिहासिक किवदंतियों के अनुसार राणा सांगा की विधवा रानी कर्णावती ने हुमायूं की मदद की चाह में हुमायूं को राखी भेजी थी, और हुमायूं ने उसका उत्तर भी दिया था। परंतु किसी भी समकालीन इतिहासकार ने इस कहानी का उल्लेख नहीं किया है और यह सच भी नहीं हो सकता है।“
मगर इससे भी अधिक विस्तार से इतिहासकार एसके बनर्जी अपनी पुस्तक हुमायूं बादशाह में लिखते हैं। वे यह तो लिखते हैं कि रानी कर्णावती ने हुमायूं को पत्र भेजा था, मगर हुमायूं उनकी सहायता के लिए नहीं आया था। वे हुमायूँ और बहादुरशाह के बीच हुए लंबे पत्राचार की बात लिखते हैं। वे इस पुस्तक के पृष्ठ 87 पर लिखते हैं कि रानी कर्णावती ने हुमायूं को सहायता के लिए पत्र भेजा था। मगर इसके अलावा कोई भी प्रतिक्रिया नहीं आई थी कि हुमायूं ग्वालियर तक आ गया था और वह दो महीने तक वहाँ टिका रहा था। यह चित्तौड़ की पहली घेराबंदी की बात थी। इसमें रानी को बहादुरशाह के साथ एक अपमानजनक संधि करनी पड़ी थी। यह संधि 24 मार्च 1533 को हुई थी।
उसके बाद वर्ष 1535 में बहादुरशाह ने फिर से चित्तौड़ पर हमला कर दिया। कर्णावती ने राजपूत राजाओं से सहायता मांगी और सभी राजपूत सहायता के लिए एक साथ आए। मगर इस बार जब रानी ने देखा कि विजय की आशा नहीं है तो राजपूत पुरुषों ने साका और रानियों ने जौहर कर लिया। यह जौहर 8 मार्च 1535 को हुआ था। इसी पुस्तक में हुमायूं और बहादुरशाह का पत्राचार भी सम्मिलित है। इस लंबे पत्राचार में चित्तौड़ को लेकर भी बात है और एक और महत्वपूर्ण तथ्य पृष्ठ 108 पर अंकित है। जिसमें बहादुरशाह के चौथे पत्र के हवाले से लिखा गया है, “चूंकि हम ईमान और इंसाफ लाने वाले हैं, तो पैगंबर के अल्फ़ाज़ों में अपने भाई की मदद करो, फिर चाहे वह जुल्मी हो या जुल्म सहने वाला।“ हालांकि, यह कहा और किसी संदर्भ में गया है। परंतु यह हो उसी दौरान रहा था।
जब 1534 में हुमायूं कालपी पहुंचा था तो वहाँ का शासक आलम खान, मुगलों के प्रति आत्मसमर्पण करने के स्थान पर बहादुरशाह के पास चला गया था। बहादुरशाह और हुमायूं दोनों को ही एक दूसरे से खतरा था। हुमायूं के लिए बहादुरशाह और बहादुरशाह के लिए हुमायूं सबसे बड़ी चुनौती थे। ये सारे पत्राचार चित्तौड़ के युद्ध से पहले के हैं। जिनमें चित्तौड़ का भी उल्लेख है। एक पत्र में बहादुरशाह ने हुमायूं से कहा था कि वह चित्तौड़ शहर का दुश्मन है, और वह काफिरों को अपनी ताकत से नष्ट करने जा रहा है, जो भी रास्ते में आएगा, तुम देखना मैं कैसे उसे मिटाता हूं।
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एसके बनर्जी इसी पुस्तक में लिखते हैं कि मुस्लिम शासकों की नीति हिन्दू राजाओं और मुस्लिम राजाओं के प्रति अलग थीं। मुस्लिम राजा को एक ‘काफिर’ राज्य के साथ स्थाई संधि बनाए रखने की अनुमति नहीं थी। यही कारण था कि वर्ष 1533 में राणा के साथ संधि के बाद भी बहादुर शाह के पास एक काफिर राज्य को अपने नियंत्रण में लेने के अतिरिक्त चित्तौड़ को नष्ट करने का कोई और कारण था ही नहीं।
इसी पुस्तक के अगले अध्याय (पृष्ठ 118) में लिखा है कि हुमायूं और बहादुरशाह के बीच जब पत्राचार समाप्त हुआ, तब तक हुमायूं सारंगपुर पहुँच गया था और वहां पर वह एक महीने से अधिक रहा। हुमायूं जब पूर्वी मालवा की ओर बढ़ रहा था तो बहादुरशाह को चिंता हुई कि वह उस पर हमला न कर दे। मगर उसके वजीर सदर खान को उस मुस्लिम रिवाज पर यकीन था कि एक काफिर की मदद में कभी भी एक मुस्लिम शासक दूसरे मुस्लिम शासक पर हमला नहीं करेगा और फिर उसने बहादुरशाह को यकीन दिलाया कि हुमायूं उस पर तब हमला नहीं करेगा जब वह गैर-मुस्लिम के साथ युद्ध कर रहा है। और वही हुआ।
चित्तौड़ में रानी कर्णावती ने हजारों रानियों के साथ जौहर कर लिया था। जौहर पूरी तरह से सच है, हुमायूं का न आना सच है, मगर वह कहानी सच नहीं है कि हुमायूं जब तक आया तब तक रानी ने जौहर कर लिया था और राखी का मान रखते हुए हुमायूं ने बहादुरशाह पर हमला किया। हुमायूं ने बहादुरशाह पर इसलिए बाद में हमला किया था, क्योंकि बहादुरशाह तब तक थक चुका था और जब तक बहादुरशाह चित्तौड़ पर हमले में व्यस्त था, तब तक हुमायूं को अपनी ताकत बढ़ाने का मौका मिल गया था।
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