भारत 78वां स्वतंत्रता दिवस का उत्सव मना रहा है। भारतीय समाज अनादि काल से उत्सवी रहा है। हालांकि किसी उत्सव का उल्लास कई बार उसकी पृष्ठभूमि और उससे संबंधित इतिहास के नकारात्मक पहलू को विस्मृत कर देता है, लेकिन इतिहास को भूलने का मतलब वर्तमान को धोखा देना और भविष्य को अनिश्चित करना है। अत: इतिहास का स्मरण आवश्यक है ताकि नई पीढ़ी यह जान सके कि जिसे वह स्वतंत्रता का उत्सव समझती है, उसमें विभाजन, भारतभूमि के खंडित होने का प्रक्रम, हिंदुओं के नरसंहार और महिलाओं से बलात्कार की पीड़ा भी है।
नई और भावी पीढ़ी के लिए जरूरी है कि वह अखंड भारत की अवधारणा को समझे। इसके दो मुख्य कारण हैं। पहला, यह सनातन धर्म-संस्कृति का गौरवमयी अतीत है, जो प्रेरणा व उत्साह का संचार करता है। दूसरा, यह सबक भी है कि अतीत में हुई गलतियों का परिणाम आज तक हम भुगत रहे हैं। अखंड भारत से तात्पर्य यह है कि भारत का विस्तार पहले अफगानिस्तान से लेकर श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व एशिया तक था। विएतनाम से इंडोनेशिया तक और बर्मा से फिलीपींस तक के क्षेत्र को सामूहिक रूप से दक्षिण-पूर्व एशिया कहा जाता है। आधुनिक युग में इस क्षेत्र को प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का प्रतिरूप माना जाता है। इसी वजह से इसे वृहत्तर भारत कहा जाता है।
पौराणिक आख्यानों के अनुसार, अगस्त्य ऋषि ने समुद्र पार कर इस क्षेत्र को भारतीय संस्कृति की दिग्विजयी अवधारणा से परिचित कराया था। इन देशों में बर्मा यानी ब्रह्म देश, जिसे प्राचीन काल में श्रीक्षेत्र कहा जाता था, की वर्तमान राजधानी रंगून या रामवती है। कपिलवस्तु के शाक्य राजकुमार अभिराज ने सेकिस्सा (तगौग) नामक नगर बसाया था, जहां 2500 वर्ष पुराना डीमोन पैगोडा जैसे कई ऐतिहासिक हिंदू मंदिर हैं। कंबोज या कंबोडिया, जिसे राजर्षि कंबुज ने संस्कारित किया, जहां संसार का सबसे बड़ा विष्णु मंदिर अंकोरवाट है। इसी तरह, चंपा यानी विएतनाम, जिसे कौडिन्य नामक ब्राह्मण ने भारतीय संस्कृति से दीक्षित किया। वहां ब्राह्मी लिपि में 100 से अधिक शिलालेख मिले हैं। मलय देश या स्वर्ण भूमि, जिसकी राजधानी कुआलालंपुर या कैवल्यपुरम् है, भारतीय संस्कृति से अनुप्राणित है। वहां दक्षिण भारतीय तथा ओडिशा के लोगों को ‘ओरांग कलिंग’ कहा जाता है। इसके अलावा, जावा में शैलेंद्रवंश का गौरवमयी इतिहास रहा है।
ये सभी दक्षिण-पूर्व एशियाई देश कभी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के उत्कर्ष केंद्र थे। लेकिन भारत ने इनके विरुद्ध कभी भी किसी प्रकार के अत्याचार नहीं किए। चीन भी अपनी सांस्कृतिक समृद्धि के लिए भारत का ऋणी रहा है। हू शिह, जो अमेरिका में चीनी राजदूत थे, ने कहा था, ‘‘सांस्कृतिक दृष्टि से भारत ने चीन पर विगत 20 शताब्दियों से न केवल विजय प्राप्त की है, अपितु उस पर वर्चस्व भी बनाया, जबकि इस सफलता के लिए उसने एक भी सैनिक नहीं भेजा।’’ इसी के समकक्ष अफगानिस्तान, हिंदुकुश से लेकर हिंद महासागर के छोर रामायण काल से लेकर महाराजा रणजीत सिंह के सिख साम्राज्य तक भारत के अभिन्न अंग रहे। लेकिन धीरे-धीरे अखंड भारत के कई टुकड़े हो गए। 1947 में जो विभाजन हुआ, वह भारत का आखिरी विभाजन था।
बल नहीं तो छल सही
अखंड भारत किस प्रकार खंडित होता रहा, इसे दो भागों में समझा जा सकता है। सर्वप्रथम 7वीं सदी से निरंतर होने वाले इस्लामी हमलों से वृहत भारत के हिस्से क्षीण होते रहे। लेकिन हिंदू समाज इन हमलों का यथासंभव प्रतिकार करता रहा। यही कारण था कि अपने हजरत मुहम्मद की मृत्यु के 100 वर्ष के भीतर जिन मुस्लिम आक्रांताओं ने सासानिद व बाइजेन्टाइन जैसे शक्तिशाली साम्राज्यों को पराजित किया, सीरिया, ईरान, मेसोपोटामिया पर विजय प्राप्त की, उनकी हमलावर त्वरा भारतीय तलवारों से टकरा कर ठहर गई। खलीफा उमर के समय (636 ई.) में ठाणे विजय के लिए भेजा गया अभियान विफल रहा।
दूसरी बार खलीफा उस्मान के समय (644 ई.) अब्दुल्ला बिन उमर के नेतृत्व में सिंध विजय का अभियान भी असफल रहा। पुन: अल-हरीस (659 ई.) और अल-मुहल्लब (664 ई.) के नेतृत्व में भेजे गए अभियान भी न केवल विफल रहे, बल्कि दोनों सेनानायक हिंदुओं के हाथों मारे गए। इसके बाद दमिश्क के खलीफा वलीद और उसकी इराकी गवर्नर हज्जाज के साथ सिंध के राजा दाहिर के विवाद के बाद उबेदुल्लाह (711ई.) एवं बुदैल के नेतृत्व में भेजे गए दोनों अभियान असफल रहे। दोनों पराजित हुए और मारे गए। तीसरी बार मीर कासिम (712 ई.) को थोड़ी-बहुत सफलता तो मिली, लेकिन मुस्लिम आक्रांता भारत के सीमाई क्षेत्रों तक ही सीमित रहे।
हिंदुओं के विरुद्ध जब मुस्लिम आक्रांताओं का बल प्रयोग विफल रहा, तो उन्होंने दूसरा रास्ता अपनाया। उन्होंने भारत में सूफीवाद का प्रचार-प्रसार शुरू किया ताकि भारतीयों को भ्रमित कर उनका कन्वर्जन किया जा सके। यह धारणा तथ्य से परे है कि भारत में इस्लाम का प्रसार तलवार के जोर पर हुआ। वास्तव में इस्लाम यहां सूफीवाद का लबादा ओढ़कर आया। इसका प्रमाण है-शेख इस्माइल। वह भारत आने वाला पहला सूफी था, जो 1001 ई. में महमूद गजनवी के एक लूटपाट अभियान में उसके साथ लाहौर आया था। इसके बाद चिश्ती, नक्शबंदी कुब्राविया जैसे अनेक सूफियों के भारत आगमन का सिलसिला शुरू हुआ।
इनका इरादा पराक्रमी और दयालु हिंदुओं की सहृदयता का लाभ उठाकर उन्हें पथभ्रष्ट करना था, क्योंकि मुस्लिम आक्रांता यह बात भली-भांति समझ चुके थे कि बल प्रयोग से हिंदुओं का कन्वर्जन मुश्किल है। उनके विश्व विजय के मंसूबे हिंदुओं की तलवारों की चमक के आगे धरे रह गए, तो धूर्तों ने सूफीवाद का सहारा लिया और कन्वर्जन के जरिए अखंड भारत के विभाजन की नींव रखी। मोहम्मद अली जिन्ना ने एक बार कहा था, ‘‘पाकिस्तान का पहला बीज तब बोया गया था, जब हिंदुस्थान के पहले हिंदू को मुसलमान बनाया गया था।’’
ईसाइयत ने अपनाई इस्लामी नीति
इस्लामी सूफीवाद के धोखाधड़ी से कन्वर्जन की नीति को आगे चलकर ईसाई मिशनरियों ने बहुत अच्छी तरह से न सिर्फ समझा, बल्कि उसे भारत में लागू भी किया। 15-16वीं सदी में यूरोपीय व्यापारियों के साथ आने वाले ईसाई प्रसारकों ने भी प्रारंभ में बल प्रयोग का प्रयास किया। गोवा में पुर्तगाली शासन के दौरान होने वाले ईसाई अत्याचार इसके उदाहरण हैं। फिर उन्होंने सेवा-व्रत का चोला पहनकर अपनी कुत्सित योजना को अंजाम देना शुरू किया।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने असम यात्रा के दौरान ईसाई मिशनरियों के जन सेवा कार्य की प्रशंसा करते हुए चेताया था कि इसका उद्देश्य कन्वर्जन नहीं होना चाहिए। तब मिशनरी ने कहा था, ‘‘हम यदि मानवता के विचार से प्रेरित होते तो इतनी दूर आने की क्या आवश्यकता थी और इतना धन खर्च करने की क्या जरूरत थी? हम यहां केवल ईसा मसीह के अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए आए हैं।’’
मध्य प्रदेश सरकार द्वारा गठित नियोगी आयोग (1954) की रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ था कि ईसाई मिशनरियों का आर्थिक प्रलोभन उनके कन्वर्जन की गतिविधियों को छिपाने का एक मुखौटा है। वे धमकाकर, लालच देकर भोले-भाले ग्रामीणों को कन्वर्ट कर रहे हैं। उनकी महत्वाकांक्षा संख्या के आधार पर भारत को विभाजित कर एक अलग ईसाई देश बनाना है। पूर्वोत्तर के नगा, कुकी, मिजो विद्रोह के अलावा झारखंड आंदोलन ईसाई षड्यंत्रों की ही देन थे। सर्वविदित है कि 1947 में ईसाई मिशनरियों का तर्क था कि जब भारत में 24 प्रतिशत मुसलमान तलवार के जोर पर अलग इस्लामी देश पाकिस्तान का निर्माण कर सकते हैं तो 30 प्रतिशत ईसाई, जिन्हें 76 ईसाई देशों का समर्थन हासिल है, नागालैंड से कन्याकुमारी तक एक अलग ईसाई स्थान का निर्माण क्यों नहीं कर सकते?
अमेरिकी इतिहासकार एवं दार्शनिक विल डूरेंट ने अपनी किताब ‘द स्टोरी आफ सिविलाइजेशन’ में भारत से अपील की थी, ‘‘हे भारत! इससे पहले कि पश्चिम अपनी घोर नास्तिक और भोगवादी सभ्यता से निराश हो, शांति के लिए तरसता हुआ, अति व्याकुल तुम्हारी शरण में आए तो भूल से भी अपनी लंबी राजनीतिक पराधीनता के लिए अपने श्रेष्ठ अध्यात्म को ही दोषी मानकर अपने घर को मत फूंक देना।’’ लेकिन वामपंथ के असाध्य रोग से पीड़ित और आधुनिक ‘वोग कल्चर’ से प्रताड़ित भारत का एक वर्ग आज अपनी ही संस्कृति को विस्मृत व अपमानित करने के मार्ग पर है। यह भी इतिहास का एक क्रूर व्यंग्य और विडंबना ही है कि विश्वगुरु कहलाने वाले भारत पर आज पश्चिमी सभ्यता एवं सामी पंथ हावी होने की कोशिश करते दिखते हैं।
राष्ट्र की आत्मा
यह धर्म-संस्कृति की महत्ता ही थी, जिसका पतन भारत के विघटन का मुख्य कारण बना था। संस्कृति, जो धार्मिक आचार-विचार व जीवन दर्शन को आत्मसात किए हुए है, एक व्यापक अवधारणा है। संस्कृति, राष्ट्र की आत्मा का अमूर्त स्वरूप है, भूखंड तो उसका मात्र मूर्तिमान रूप है। अत: जिस प्रकार शरीर आत्माहीन होता है, तो उसे मृत मान लिया जाता है, उसी तरह जब किसी भौगोलिक क्षेत्र से उसकी मूल संस्कृति विस्मृत या पतित होती है, तब वहां राष्ट्रीयता नष्टप्राय हो जाती है। जैसे-आज का अफगानिस्तान, जो प्राचीन काल में गांधार था, कभी अखंड भारत का हिस्सा था। गांधार को गांधारी, शकुनि ही नहीं, बल्कि व्याकरण के जनक पाणिनि का भी जन्मस्थली माना जाता है। यह कभी विश्व प्रसिद्ध तक्षशिला विश्वविद्यालय के कारण सर्वसम्मानित था, आज धर्म-संस्कृतिहीन होकर न सिर्फ पराया, बल्कि मजहबी उन्माद से कलुषित भारत द्रोही बन चुका है। पश्तो भाषा में तत्सम और तद्भव मिलाकर कम से कम 45 प्रतिशत शब्द संस्कृत के हैं।
अब ईरान यानी आर्यान: अर्थात् आर्याणां देश: का उदाहरण लें। ईरान में आज भी कई प्राचीन शिव मंदिरों के अवशेष मिल जाएंगे। पूर्व ईरानी राजदूत अली असगर के अनुसार, ईरान के प्रारंभिक इतिहास को समझने के लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान अत्यावश्यक है। प्राचीन ईरानी भाषा लगभग संस्कृत ही थी। आज भी फारसी में संस्कृत के हजारों शब्द मिल जाएंगे। ईरान के शाह ने कभी कहा था, ‘‘…दोनों देशों की संस्कृति महान व मूल रूप से एक रही और समय की हजारों साल की दौड़ में हम निरंतर साथ रहे।’’ लेकिन आज वह एक इस्लामी कट्टरपंथी देश है, जहां की आबादी का एक बड़ा हिस्सा भारत के हिंदू समाज से घृणा करता है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 7वीं सदी में अरब के आक्रमण के बाद वहां की मूल संस्कृति और धर्म नष्टप्राय हो गए और जो थोड़े-बहुत बचे उन्होंने भारत में शरण ली।
2000 वर्ष से भी अधिक समय से भगवान बुद्ध के संदेशों से अनुप्राणित एवं सम्मानित श्रीलंका में भारतवंशियों का नरसंहार हुआ। बाकी जो बचे उन्हें लूटपाट और मारपीट कर भगा दिया गया। पुन: 1947 में पश्चिमी पंजाब के सिंध सीमा प्रांत बलूचिस्तान, कश्मीर एवं पूर्वी बंगाल में लाखों हिंदुओं का नरसंहार हुआ। महिलाओं से बलात्कार किया गया, उनका मान-मर्दन किया गया। हिंदुओं की धन-संपदा लूट कर उन्हें भगा दिया गया। बांग्लादेश की राजधानी ढाका स्थित ढाकेश्वरी मंदिर में गोहत्या और कन्याकुमारी को ‘ईसाई तीर्थ’ कल्लीमेरी (ईसा माता मेरी) बनाने का प्रयास इसी भारत की खंडित अवधारणा का प्रतिफल है। इससे हिंदू समाज को सीखना चाहिए, क्योंकि जब-जब वह अखंड भारत के किसी भी भौगोलिक हिस्से में अल्पसंख्यक हुआ है, तब-तब वह खंड राष्ट्र से न सिर्फ कट गया, बल्कि हिंदू द्रोहियों का गढ़ भी बना है।
प्रोफेसर हरबंस लाल ओबेरॉय कहते हैं, ‘‘हिंदू धर्म भारतमाता के प्रति शत-प्रतिशत भक्ति का धर्म है। धर्म या राजनीति के माध्यम से बाह्य श्रद्धा राष्ट्र के प्रति द्रोह का मार्ग प्रशस्त कर देती है।’’ मध्यकाल से सनातन संस्कृतिद्रोही अभियान वैश्विक रूप से चलता रहा। जब हिंदू धर्म-संस्कृति अपनी मूल भूमि पर कमजोर हुई, तब इसका वैश्विक प्रभाव पड़ा। 15वीं सदी में मलक्का से इस्लाम का प्रसार प्रारंभ हुआ, जिसने धीरे-धीरे इस पूरे क्षेत्र को संक्रमित किया। भारत के सांस्कृतिक उपग्रह क्षेत्र मध्य एशिया से लेकर पूर्व एवं पूर्वोत्तर के देशों में भी इस्लाम का प्रचार-प्रसार बढ़ने लगा, क्योंकि हिंदुत्व का शक्ति केंद्र अपनी आंतरिक कमजोरियों से जूझता किंकर्तव्यविमूढ़ था। आधुनिक युग में ईसाइयत का भी प्रसार हुआ।
भारत की राजनीतिक एकता भले ही अनेक बार खंडित हुई हो, परंतु उसकी सांस्कृतिक एकता अभेद्य बनी रही। इसने उसे तमाम झंझावतों से बचाए रखा, लेकिन उस सांस्कृतिक एकता को और सुगठित करने की आवश्यकता भी है। आधुनिक भारतीय राजनीति अपने मूल चरित्र में ही विघटनकारी रही है। आज जातिगत जनगणना का उपजाया गया विवाद एक ज्वलंत उदाहरण है कि किस प्रकार हिंदू समाज के अपने ही धर्मद्रोही राजनीतिज्ञ हिंदू राष्ट्रीयता को विभाजित करने के कुत्सित षड्यंत्र में शामिल हैं।
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