हमें मुजफ्फरगढ़ ले जाकर रेलगाड़ी में ठूंस दिया गया। पीने को पानी तक नहीं मिला। हालत यह थी कि जान बचाने को बच्चों को पेशाब तक पिलाना पड़ा। हर स्टेशन पर रेलगाड़ी पर मुसलमान पत्थर मारते। पूरा रास्ता रोते-कांपते बीता। हम कैथल पहुंचे, जहां से एक रिश्तेदार के साथ रोहतक के शिविर में गए।
शांता बत्रा
सीतापुर (पाकिस्तान)
हम 1947 में पाकिस्तान से भारत आए थे। तब मैं लगभग 11 साल की थी, पांचवीं में पढ़ती थी। एक दिन सुनाई दिया कि भारत-पाकिस्तान का विभाजन होने वाला है, कभी भी झगड़ा-फसाद शुरू हो सकता है। फिर अचानक एक रोज सेना की गाड़ी आ गई। कहने लगे कि जल्दी से तैयार होकर घर से निकल जाओ। परिवार के लोग पैसा, गहने आदि इकट्ठे करने लगे तो सैनिकों ने कहा कि यहां से कुछ नहीं ले जाना।
सब यहीं छोड़कर जल्दी यहां से भागो। उस समय हमारे परिवार में कुल आठ लोग थे। उस समय वहां बड़ी संख्या में मुसलमान इकट्ठे हो गए थे। सेना के जवानों ने मुहल्ले के सभी हिन्दुओं को इकट्ठा करके ट्रक में बैठाया। रास्ते में ड्राइवर ने कहीं भी गाड़ी नहीं रोकी।
हमारे पीछे छूट गए एक परिजन को मुसलमानों ने लाठियों से वहीं जान से मार दिया। किसी तरह हम अलीपुर पहुंचे। वहां 10 दिन रहे। पास में खाने-पीने को कुछ नहीं था। कभी आसपास रहने वाले कुछ खाने को दे दिया करते। वहां से हमें मुजफ्फरगढ़ ले जाकर रेलगाड़ी में ठूंस दिया गया। पीने को पानी तक नहीं मिला। हालत यह थी कि जान बचाने को बच्चों को पेशाब तक पिलाना पड़ा।
हर स्टेशन पर रेलगाड़ी पर मुसलमान पत्थर मारते। पूरा रास्ता रोते-कांपते बीता। किसी तरह अटारी पहुंचे। वहां भी मुसलमानों से पत्थर खाए। आगे हम कैथल पहुंचे। फिर एक रिश्तेदार के साथ रोहतक के शिविर में पहुंचे।
टिप्पणियाँ