भारत

ऐ नेताजी! कौन जात हो?

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हितेश शंकर

‘‘जाति को अपने आप में, अपने उचित परिवेश से अलग करके देखा जाए तो यह अनिवार्य रूप से एक सामाजिक व्यवस्था है। फिर भी, यह हर व्यावहारिक उद्देश्य के लिए करोड़ों लोगों के धर्म का निर्माण करती है। और यह उनके व्यक्तिगत चरित्र को पूरी तरह से अकल्पनीय सीमा तक आकार देती है। यह धर्म और व्यक्तिगत चरित्र के बीच संबंध की कड़ी के रूप में खड़ी है; धार्मिक विश्वासों के बीच जिसने इसे आकार दिया और चरित्र के बीच जिसने इसे जन्म दिया। यह हिंदू चरित्र का कारण बनता है; यह हिंदू धर्म द्वारा निरूपित है। यह उस संपूर्ण स्थिति की ‘कुंजी’ है, जिस पर मिशनरी प्रयास को हमला करना है; क्योंकि यह वही है जिसने लोगों को उनके धर्म से आपस में बांध रखा है…।’’
(1908 में प्रकाशित बॉम्बे के पूर्व बिशप लुइस जॉर्ज माइल्ने की पुस्तक ‘मिशन टू हिंदूज:अ कंट्रीब्यूशन टू द स्टडी आफ मिशनरी मेथड्स’ का अंश)

हितेश शंकर

जो प्रश्न तब मिशनरियों को चुभता था, वही प्रश्न अंग्रेजों द्वरा पैदा की गई कांग्रेस को अब तक चुभ रहा है। राजनीति का प्रश्न है-हिंदुस्थान की जाति क्या है? समाज और इतिहास का उत्तर है-हिंदूू! (वैसे, यह इसके नाम से ही स्पष्ट है।) किंतु जब यह देश कांग्रेस पार्टी से उसकी जाति पूछेगा तो उत्तर में किस पुरखे का नाम आएगा- ईस्ट इंडिया कंपनी, ए.ओ. ह्यूम!

सो, अपनी जाति पर मौन और पूरे देश की जनता की जाति पूछने के लिए मुखर राहुल गांधी के लिए यह विचित्र स्थिति थी, जब उनकी जाति का सवाल उठने पर पूरी पार्टी और सहयोगी दल बगलें झांकने लगे। वास्तव में जाति का प्रश्न ऐसा है जिसकी व्याख्या राजनीति ने अपनी तरह से करनी चाही, किंतु भारतीय समाज में विभिन्न परंपराओं को संजोने के साथ एकता के कारक के रूप में समाज जाति को धारण किए रहा।

प्रश्न यह है कि भारत में जाति का स्थान क्या है? क्या इसे अतिशय महिमामंडित किया गया या इसे निहित कारणों से बार-बार सधे ‘हाथों’ से निशाना बनाया गया? क्षुद्र राजनीति से परे यदि परंपरा और समाजशास्त्र की दृष्टि से देखेंगे तो पाएंगे कि इस पहचान में कुछ ऐसा जरूर है, जिसके कारण समाज ने भले इसे कुछ समय के लिए लुका-छिपा लिया, दबे स्वर में बात की, किंतु अपनी जाति को नहीं छोड़ा। यही वह कुंजी है, जो जाति की पहेली खोलती है। भारत के लिए जाति क्या है? भारत से बाहर वालों के लिए जाति का यह सामाजिक किला कैसा है? आक्रांताओं या औद्योगिकीकरण ने भारतीय समाज की इस व्यवस्था को सामूहिक और भिन्न-भिन्न इकाइयों के तौर पर कैसे देखा?

रामायण में शबरी-निषादराज, वेद में महिदास, संतों में दादू-नारायणगुरु-रविदास। हम आपस में सहज थे। किसी वर्गीकरण से मन नहीं बंटे थे, किंतु भारत को जीतने आए आक्रांताओं के लिए जाति एक भूल-भुलैया थी। यह सामाजिक चक्र उनकी अब तक देखी किसी कबीलाई व्यवस्था की तरह नहीं था, जहां लोग एक-दूसरे के शत्रु और खून के प्यासे हों, बल्कि विभिन्न वर्गों के कार्य और प्रथाओं का वर्गीकरण करते हुए उन्हें एक रखने वाली कड़ी थी जाति।

औद्योगिक क्रांति के बाद पूंजीवादी पक्ष को यही जाति भारत का पहरेदार लगती थी। यह अकारण नहीं था कि ढाका की महीन मलमल बुनने वाले हजारों जुलाहों की उंगलियां अंग्रेजों ने कटवा दीं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी जाति की सीढ़ी से उतरा यह कौशल ऐसा था, जिसके सामने मैनचेस्टर की विशालकाय मिल का कपड़ा घटिया और मोटा लगता था। उद्योग-धंधों को बर्बाद करने के साथ आक्रमणकारियों ने भारत की पहचान बदलने के लिए, कन्वर्जन के लिए भी खूब जोर लगाया। न झुकने पर जातियों का सामूहिक अपमान भी किया गया। तनकर खड़े रहने वाले सिरों पर ‘मैला’ इन आक्रांताओं ने ही तो रखवाया था! अन्यथा बताइए, उसके पूर्व भारत में ‘मैला ढोने’ की कुप्रथा का उल्लेख कहां और कब मिलता है!

पादरी और मिशनरियों ने जाति को अपने कन्वर्जन अभियान में बड़ी अड़चन के रूप में देखा, कांग्रेस इसे हिंदू एकता के कांटे के तौर पर देखती है। वह ब्रिटिश राज की तर्ज पर लोकसभा सीटों को जाति के आधार पर बांटना और विभाजन-वैमनस्य बढ़ाना चाहती है

जरा-सी खोज करेंगे तो इस बात के साक्ष्य मिल जाएंगे कि भारत का पीढ़ीगत कौशल जिन आंखों में खटकता था, उन्हीं आंखों में हिंदू धर्म की विविधता, परंपराओं और प्रथाओं को नष्ट करने का सपना भी पलता था। ए.एम होकार्ट ने ‘लेस कास्ट्स’ में उल्लेख किया है- ‘‘यह स्वीकार्य है, और यह दावा करना काफी आसान है कि वंशानुगत व्यवसाय औद्योगिक क्रांति के बाद की दुनिया में हमारे ‘आधुनिक’ जीवन के साथ असंगत हैं, और इसलिए यह जरूरी है कि हम ‘प्रगति’ के सीधे रास्ते पर चलें। हालांकि, इस बात को लेकर एक स्पष्ट अनिश्चितता है कि किस तरह और किस समय अवधि में भारत को ‘जातिविहीन’ समतावादी यूटोपिया बनाने का प्रस्ताव है, जिसका सपना देखा गया था और हिंदू धर्म इस तरह की स्थिति का सामना करने पर किस रूप में ढलेगा।’’

वास्तव में हिंदू समाज की जाति व्यवस्था सदा आक्रांताओं के निशाने पर थी। मुगलों ने तलवार के बल पर और मिशनरियों ने ‘सेवा और सुधार’ की आड़ में इसे अपना निशाना बनाया। एक ने सिर पर मैला रखवाया तो दूसरे ने इसे असमानता और उत्पीड़न का स्रोत बताया, जबकि सचाई कुछ और ही थी। जाति के रूप में राष्ट्र के साथ एकजुट समाज सीधी सच्ची बात समझता था-जाति से दगा यानी देश से दगा। भारत को एक रखने वाला यह समीकरण जितना मुगलों को समझ नहीं आया, उससे ज्यादा बारीकी से मिशनरियों ने इसे समझा।

भारत को, इसके स्वाभिमान को तोड़ना है तो बंधन और जंजीर बता कर पहले जाति की एकता के सूत्र को तोड़ो। संदर्भ देखिए- ‘‘जाति हिंदू धर्म को मानने वालों के इतिहास के साथ अटूट रूप से जुड़ी है। यह उनके पूरे राष्ट्रीय जीवन में व्याप्त है। यह उनके संपूर्ण दर्शन और साहित्य का सार है। यह बचपन से लेकर मृत्यु तक जीवन के हर कार्य से जुड़ी है। इस प्रकार लोगों पर इसका कितना प्रभाव है, इसकी कल्पना की जा सकती है और जाति से कटना उन्हें देश से कटना लगता है।’’ (1859 में कलकत्ता के लंदन मिशनरी सोसाइटी के रेवरेंड एडवर्ड स्टॉरो द्वारा लिखित ‘भारत और ईसाई मिशन’ का अंश)

जो सूत्र मिशनरियों ने कन्वर्जन के लिए समझ लिया था, उसे ब्रिटिश हुकूमत ने सत्ता का आधार बना लिया- बांटो और राज करो! निश्चित ही हिंदू के जीवन का बड़ा चक्र, जिसमें उसकी मर्यादा, नैतिकता, उत्तरदायित्व और समुदाय से बंधुत्व की भावना शामिल है, जाति के इर्द-गिर्द घूमता है, जो व्यक्तिवाद केंद्रित ईसाई मान्यताओं के उलट है। यह मिशनरियों को खटकता रहा। आश्चर्य नहीं कि यही बंधुत्व और भावनात्मक एकता देश को बांटकर अपनी राजनीति की राह सीधी करने वाली कांग्रेसी सोच को भी खटकती है। वेरियर एल्विन से टेरेसा तक और ए.ओ. ह्यूम से राहुल-सोनिया तक… कहानी वही है।

पादरी और मिशनरियों ने जाति को अपने कन्वर्जन अभियान में बड़ी अड़चन के रूप में देखा, कांग्रेस इसे हिंदू एकता के कांटे के तौर पर देखती है। वह ब्रिटिश राज की तर्ज पर लोकसभा सीटों को जाति के आधार पर बांटना और विभाजन-वैमनस्य बढ़ाना चाहती है। केवल इसीलिए तो उसे जातिगत जनगणना चाहिए।

सो, भारत में जाति को देखने से ज्यादा और मतलब के लिए लोग तोलने, देश तोड़ने की बजाय इसका महत्व समझने की जरूरत है। इसके लिए राहुल, उनकी मां एंटोनियो माइनो और पूरी कांग्रेस को चर्च और उपनिवेशवाद का चश्मा उतारना होगा; क्योंकि यह दृष्टिकोण कई लोगों को समझ में नहीं आता है, खासकर उनको जो उपनिवेशवाद के उसी ‘भारत तोड़ो, पैसा जोड़ो’ एजेंडे पर चलते हुए जाति और सामाजिक पहचान को हिंदू एकता तोड़ने की कड़ी के तौर पर प्रयोग करना चाहते हैं।

@hiteshshankar

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