गत 22 जुलाई को धार स्थित भोजशाला परिसर के पुरातत्व विभाग द्वारा किए गए सर्वेक्षण की रिपोर्ट मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में प्रस्तुत कर दी गई। इसके पूर्व 11 मार्च को उच्च न्यायालय ने पुरातत्व विभाग को यह सर्वेक्षण करने के आदेश दिए थे। विभाग को लगभग 6 हफ्तों में सर्वेक्षण कर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए कहा गया था, परंतु उसे यह कार्य करने में 98 दिन का समय लगा। उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए सर्वेक्षण के आदेश के विरुद्ध मुस्लिम पक्ष की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लगा कर रोक की मांग की गई थी। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने रोक की मांग तो स्वीकार नहीं की, परंतु यह आदेश दे दिया कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने तक, सर्वेक्षण की रिपोर्ट के आधार पर कोई आदेश नहीं दिया जा सकेगा।
इस बीच भोजशाला को मां सरस्वती का मंदिर मानने वाला हिंदू समुदाय सर्वेक्षण में प्राप्त हुए साक्ष्यों के बारे जानकर उल्लास से भरा हुआ है और उसे विश्वास है कि इन साक्ष्यों के आधार पर निश्चित ही न्यायालय भोजशाला परिसर को मंदिर घोषित कर उन्हें पूजा का पूर्ण अधिकार प्रदान कर देगा। फिलहाल इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा रहेगी। पुरातत्व विभाग द्वारा इस सर्वेक्षण हेतु गठित टीम में डॉ. आलोक त्रिपाठी, अतिरिक्त संचालक, पुरातत्व विभाग के नेतृत्व में करीब 30 विशेषज्ञ एवं अधिकारी सम्मिलित थे। पारदर्शिता की दृष्टि से डॉ. इजहार आलम हाशमी और जुल्फिकार अली जैसे मुस्लिम अधिकारी इस टीम का हिस्सा थे। इनके अतिरिक्त डॉ. भुवन विक्रम, डॉ. गौतमी भट्टाचार्य, डॉ. गिरिराज कुमार मिश्र जैसे विशेषज्ञ अधिकारी भी टीम के रूप में सर्वेक्षण कार्य में संलग्न थे। करीब 40-50 श्रमिक उत्खनन कार्य में जुटे रहे। इनके अलावा हिंदू और मुसलमान समाजों की ओर से भी एक- एक घोषित प्रतिनिधि सर्वेक्षण के दौरान उपस्थित रहा।
बताया गया है कि सर्वेक्षण के दौरान अनेक नई मूर्तियां, प्रतिमाएं, भित्ति चित्र, निर्माण में प्रयुक्त किए गए पत्थर आदि मिले हैं जिनकी वजह से इस धारणा को बल मिलता है कि भोजशाला परिसर दरअसल एक मंदिर था और यह कि उस मंदिर को नष्ट कर उसी स्थान पर मस्जिद बनाने के प्रयास किए गए थे। पुरातत्व विभाग के विशेषज्ञों द्वारा जी.पी.आर., जी.पी.एस. एवं कार्बन डेटिंग जैसी आधुनिक तकनीकों सहित पारंपरिक उत्खनन के तरीकों का भी उपयोग किया गया जिससे कि भोजशाला परिसर के वास्तु का सही चरित्र, उद्देश्य और निर्माण काल का अंदाजा लगाया जा सके। सर्वेक्षण के दौरान 1,700 से भी अधिक मूर्तियां, प्रतिमाएं, संस्कृत शिलालेख, भोजकालीन सिक्के एवं मंदिर के शिखर आदि भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं। ये सभी इस धारणा की पुष्टि करते हैं कि यह परिसर भोजकालीन है और यहां वाग्देवी का मंदिर रहा होगा जहां ज्ञान का आदान-प्रदान होता था।
हिंदू समाज यह मानता आया है कि भोजशाला का निर्माण महान राजा भोज के कार्यकाल में 1034 में संपन्न हुआ था। विद्या की अधिष्ठात्री मां सरस्वती की मूर्ति से सुसज्जित यह मंदिर एक विशाल विद्यालय में स्थित था, जहां विविध कौशल, कलाएं और विद्याएं पढ़ाई-सिखाई जाती थीं। अपने समय में भोजशाला ज्ञानार्जन का एक प्रमुख स्थान था। कालांतर में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा धार पर आक्रमण किया गया और पहली बार बर्बर आक्रांताओं द्वारा भोजशाला को निशाना बनाया गया। इसके पश्चात् आने वाले शतकों में आक्रमण होते रहे। महमूद खिलजी द्वारा इस क्षेत्र पर आधिपत्य जमा कर, वाग्देवी मंदिर को नष्ट कर मस्जिद में परिवर्तित करने का प्रयास किया गया। इस बीच, परिसर के ठीक बाहर कमाल मौला के मजार का भी निर्माण कर दिया गया जो आज भी वहीं स्थित है। 19वीं शती में मालवा पर अंग्रेजों का आधिपत्य हो चुका था।
भोजशाला तब तक क्षत- विक्षत स्वरूप में तब्दील हो चुकी थी। अंग्रेजों ने वाग्देवी की मूर्ति के सौंदर्य और कला को पहचान कर मूर्ति को इंग्लैंड भिजवा दिया। आज भी यह मूर्ति लंदन के संग्रहालय में रखी है, जिसे भारत लाने के प्रयास जारी हैं। स्वतंत्रता के पश्चात् प्रारंभिक दशकों में यह परिसर सुना ही पड़ा रहा, परंतु कालांतर में मुस्लिम समाज द्वारा इसे मस्जिद तो हिंदू समाज द्वारा इसे मंदिर बता कर नमाज और पूजा के दावे किए जाने लगे और यह परिसर एक विवादित स्थल में परिवर्तित हो गया। 1961 में एक मुस्लिम याचिकाकर्ता द्वारा न्यायालय में याचिका दायर कर परिसर में पांच वक्त की नमाज पढ़ने की अनुमति मांगी गई थी। परंतु तत्कालीन राज्य एवं केंद्र सरकारों द्वारा ऐसी अनुमति देने से इंकार कर दिया गया। तत्पश्चात् याचिकाकर्ता द्वारा याचिका वापस ले ली गई परंतु करीब दो दशक बाद मुस्लिम समाज द्वारा शुक्रवार की नमाज अदा करने का सिलसिला प्रारंभ हो गया।
इस परिस्थिति में हिंदू पक्ष द्वारा 4 फरवरी, 1991 से सत्याग्रह प्रारंभ कर परिसर पर पूर्ण अधिकार की मांग की गई। अनेक बार वृहद स्तर पर प्रदर्शन किए गए जिनका तत्कालीन सरकारों द्वारा बल प्रयोग के साथ दमन भी किया गया। 2003 तक यह आंदोलन विशाल स्वरूप प्राप्त कर चुका था। फरवरी, 2003 में करीब डेढ़ लाख लोगों द्वारा प्रचंड सत्याग्रह किया गया।
तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार द्वारा बल प्रयोग किया गया जिस वजह से 3 लोगों की मौत हो गई एवं सैकड़ों गिरफ्तार हुए। अंतत: सरकार द्वारा यह व्यवस्था दी गई कि मंगलवार को हिंदू पूजा करेंगे, वहीं शुक्रवार को मुस्लिम समाज नमाज अदा करेगा। 718 वर्ष बाद भोजशाला परिसर में पुन: मंत्रोच्चार प्रतिध्वनित होने लगा था! तब से अब तक यथास्थिति बनी हुई है, जबकि न्यायालय में हिंदुओं द्वारा पूर्ण अधिकार की याचिका भी दायर की गई है। इस याचिका पर सुनवाई के दौरान ही उच्च न्यायालय द्वारा सर्वेक्षण के आदेश दिए गए थे।
समस्त उत्खनन, सफाई एवं साक्ष्य एकत्रीकरण की 98 दिन की कार्रवाई केदौरान हिंदू और मुस्लिम पक्ष के प्रतिनिधि सतत मौजूद रहे। हिंदू समाज की ओर से यह उत्तरदायित्व गोपाल शर्मा को दिया गया था, जो कि गत तीन से अधिक दशक से पूर्णत:, भोजशाला पुनरुद्धार के कार्य में संलग्न हैं। गोपाल शर्मा द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार विभाग द्वारा काफी सतर्कता और कौशल के साथ साक्ष्य जुटाने का कार्य किया गया है। विभाग की वैज्ञानिक प्रक्रियाओं से कई ऐसे साक्ष्य भी उभर कर नजर आने लगे हैं जो अब तक लक्षित नहीं हुए थे। उन्होंने बताया कि परिसर की भित्तियों पर हाथ के पंजों के सैकड़ों निशान नजर आने लगे हैं। इन निशानों के संबंध में मान्यता है कि आततायियों के अत्याचारों से बचने के लिए बड़ी संख्या में स्त्रियों द्वारा जौहर किया गया होगा जिसके पूर्व इस प्रकार दीवारों पर छापे लगाए जाते थे। उन्होंने परिसर के गलियारे में लगे पत्थरों पर प्राकृत भाषा में लिखे ऐसे लेख भी बताए जो मूलत: स्वर्णाक्षरों में लिखे गए थे। यह सुवर्ण लूट लिया गया।
आज भी कहीं-कहीं सुवर्ण कण उस वैभवशाली इतिहास की गवाही दे रहे हैं। गोपाल शर्मा ने बताया कि सर्वेक्षण के दौरान परिसर और परिसर से सटी भूमि से 70 से भी अधिक देवी-देवताओं की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। इनमें श्रीराम, श्रीकृष्ण, गणेशजी, हनुमानजी, भैरव, जटाधारी शंकर, ब्रह्माजी, चतुर्भुज विष्णु, नरसिंह, ऋषभदेव, महादेव आदि की मूर्तियां शामिल हैं। परिसर के स्तंभों पर भी विभिन्न देवताओं की मूर्तियां उत्कीण हैं। परिसर में बने उच्चासन में प्राकृत भाषा में लिखे शिलालेख लगे हैं। यह माना जाता है कि यह उच्चासन मुगलों द्वारा बनाया गया था जिसमें यहीं के खंडित पत्थरों का प्रयोग किया गया था। इसके अतिरिक्त हिंदू मंदिरों के प्रतीक जैसे कि अष्टकमल, यक्ष, यक्षिणी, कालसर्प यंत्र, नागराज वासुकी आदि भी सहज ही परिलक्षित होते हैं। परिसर में परमार राजवंश का राजचिन्ह भी नजर आता है।
सर्वेक्षण के दौरान परिसर की खुदाई में 25 फीट से भी अधिक गहराई तक ईंट की बनी दीवारें पाई गई हैं जो कि परमार काल से भी पूर्व की प्रतीत हो रही हैं। खुदाई में मिले सरस्वती कूप में दीवार पर गणेश जी की प्रतिमा स्थित है। गोपाल शर्मा के अनुसार परिसर से सटी कमाल मौला की दरगाह के तलघर में भी हिंदू प्रतीक प्राप्त हुए हैं।
सर्वेक्षण के विवरण के आधार पर हिंदू पक्ष के अधिवक्ता हरिशंकर जैन एवं आशीष गोयल द्वारा भी यह विश्वास व्यक्त किया गया है कि यह विवरण इस तथ्य को स्थापित करने में सफल होगा कि जो निर्माण आज नजर आता है, वह पूर्व में मंदिर रहा होगा और मंदिर को नष्ट कर उसी सामग्री से मस्जिद बनाने का प्रयास किया गया होगा। साथ ही कई मूर्तियां आदि आजू-बाजू के क्षेत्र में फेंक दी गई थीं, जो आज प्राप्त हो रही हैं। ये मूर्तियां भी सिद्ध करती हैं कि यह परिसर मूल रूप से हिंदू आस्था, आराधना का केंद्र था। विवरण में बताया गया है कि परिसर में कुल 188 स्तंभ हैं। इन स्तंभों की बनावट, इन पर उत्कीर्ण हिंदू देवी-देवताओं की प्रतिमाएं और अन्य प्रतीक देख कर स्पष्ट होता है कि पूर्व में ये पत्थर मंदिर निर्माण में उपयोग में लाए गए थे। इन स्तंभों पर कीर्तिमुख भी पाया गया है, कीर्तिमुख में शेर की आकृति होती है जिस पर सिंग भी होते हैं। प्राचीन मंदिरों के स्तंभों पर कीर्तिमुख बनाने की परंपरा रही है।
कई दशक से हिंदू समाज इस परिसर में अपने आराध्य की पुनस्स्थापना हेतु प्रयत्नशील रहा है। इस उद्देश्य के लिए सत्याग्रह, संघर्ष और बलिदान का लंबा इतिहास रहा है। पुरातत्व विभाग की इस ताजा रिपोर्ट से संघर्षरत समाज में निश्चित ही नई आशा पल्लवित हुई है। संघर्ष समिति के कार्यकर्ताओं को विश्वास है कि न्यायालय प्रस्तुत साक्ष्यों के आधार पर यह निर्णय देगा कि भोजशाला परिसर एक मंदिर है, जहां मां सरस्वती वाग्देवी के रूप में पूजित होती रही थीं। क्या यह पूजा क्रम पुन:आरम्भ होगा, यह न्यायालय के निर्णय पर ही निर्भर करेगा!
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