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बेहद जरूरी है भारत में धर्म और रिलीजन का अंतर स्‍पष्‍ट करना, भयंकर हैं इसके खतरे

न्‍यायालय ने केंद्र और राज्‍य सरकारों समेत विभाग, मंत्रालयों से स्‍थ‍ित‍ि स्‍पष्‍ट करने को कहा

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डॉ. मयंक चतुर्वेदी

वक्‍त गुजरते देर नहीं लगती, देखते ही देखते एक साल बीतने को है। लेकिन एक जवाब जिसे न्‍यायालय ने स्‍थित‍ि स्‍पष्‍ट करने के लिए केंद्र, राज्‍य एवं मंत्रालयों से चाहा था, उसका कोई उत्‍तर अब तक न्‍यायालय को नहीं मिल। बात दो शब्‍दों की है, जिनका उपयोग देश भर में अभी प्राय: एक ही अर्थ में किया जा रहा है जबकि दोनों के मायनों में अंतर है। शब्‍द का सही अर्थ नहीं समझने के कारण देश में कई गलतफहमियां पैदा हो रही हैं और जो शब्‍द ‘विश्‍व बंधुत्‍व’ एवं सभी के कल्‍याण की कामना करता है, वह ‘धर्म’ संकुचित होकर अपनी श्रेष्‍ठता प्रदर्श‍ित करने का अर्थ खो चुका दिखता है। सभी जगह संकुचित ‘रिलीजन’ शब्‍द का ‘धर्म’ जैसे व्‍यापक अर्थ रखनेवाले शब्‍द के रूप में उपयोग हो रहा है।

रिलीजन, धर्म, विश्‍व बंधुत्‍व,

अब इस मामले को लेकर एक साल बीतने को है। इस संबंध में दिल्ली हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की गई थी। इसमें अदालत से ‘धर्म’ और ‘रिलिजन’ शब्दों के बीच स्पष्ट अंतर करने का आग्रह किया गया । पिछले साल दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई हुई। इस दौरान हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की खंडपीठ ने केंद्र और दिल्ली सरकार से जवाब मांगा था।

पीआईएल के जरिए ये है मांग

याचिका में भारतीय ज्ञानपरंपरा के अनेक उदाहरण प्रस्‍तुत कर यह बताने का प्रयास किया गया था कि धर्म और रिलिजन दोनों ही शब्‍दों में बड़ा अंतर है। इस आधार पर याचिकाकर्ता ने न्‍यायालय से केंद्र और राज्य सरकारों को यह निर्देश देने की मांग की, कि वे जन्म प्रमाण पत्र, आधार कार्ड, स्कूल प्रमाण पत्र, राशन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, निवास प्रमाण पत्र, मृत्यु प्रमाण पत्र और बैंक खाता आदि जैसे दस्तावेजों में धर्म के बजाय अपने-अपने विश्‍वास के अनुसार रिलीजन के समानार्थी मत, पंथ या मजहब शब्‍द का उचित अर्थ इस्तेमाल करें। इसके साथ ही उन्‍होंने न्यायालय के समक्ष यह मांग भी रखी कि केंद्र और राज्य अपने प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में एक अध्याय अलग से “धर्म और रिलिजन” शामिल करने का निर्देश देने की कृपा करें। ताकि इस संबंध में बनी भ्रम की स्‍थ‍िति दूर हो सके ।

केंद्र व राज्‍य के इन अधिकारियों से मांगा गया जवाब

याचिका में भारत संघ, सचिव के माध्यम से गृह, शिक्षा, कानून और न्याय, संस्कृति मंत्रालय समेत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार, मुख्य सचिव के द्वारा इस मामले की स्‍थ‍िति स्‍पष्‍ट करने की मांग न्‍यायालय के समक्ष रखी थी। लेकिन नवम्‍बर 2023 से अगस्‍त 2024 पर आ गए, पूरा एक वर्ष बदल गया, पर अब तक इसे लेकर किसी की ओर से कोई जवाब न्‍यायालय में प्रस्‍तुत नहीं किया गया है।

धर्म नहीं देता कन्‍वर्जन की अनुमत‍ि

याचिका के माध्‍यम से जो बताया गया है, उसके अनुसार धर्म बहुत ही व्‍यापक शब्‍द है। इस्‍लाम, ईसाई, पारसी, यहूदी, सिख, बौद्ध, यह सभी मत, पंथ, रिलीजन और मजहब हो सकते हैं। धर्म किसी को सांप्रदायिक नहीं बनाता। धर्म में किसी पर अपने विचार थोपने का या जबरन उसे मनवाने का कोई आग्रह अथवा दबाव नहीं मिलता। वैश्‍विक कुटुम्‍ब की भावना को लेकर चलनेवाला धर्म, कन्‍वर्जन की अनुमति नहीं देता, वह उससे दूर है। साथ ही धर्म यह घोषणा नहीं कहता कि मेरा ही विचार श्रेष्‍ठ है। धर्म में व्‍यापक सोच, दृष्टि और गहरा विचार समाहित है, इसलिए धर्म कभी भी रिलीजन का पर्यायवाची नहीं हो सकता है।

जनहित याचिका में 97 बिन्‍दु उठाए गए हैं , ताकि किसी के मन में धर्म और रिलीजन का अंतर पूरी तरह से स्‍पष्‍ट हो सके। भारत में समय-समय पर हुईं स्‍मृतियों, महाभारत, भागवत एवं अन्‍य ग्रंथों के उद्धरणों का हवाला दिया है जो किसी समय भारत में न्‍याय प्रणाली का अहम हिस्‍सा रहे। कई शब्दों का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं किया जा सकता। जैसे योग, कर्म, ब्रह्म, धर्म आदि। लेकिन अभी देखने में  आ रहा है कि हम धर्म को रिलीजन ही मानते हैं जोकि सही नहीं है। धर्म एक परंपरा है, जबकि रिलिजन एक पंथ या वंश है जिसे संप्रदाय कहा जाता है। यह संप्रदाय दो भागों से बना है; सम + प्रदाय। इसका मतलब है, किसी चीज को समान रूप से देखना। जब आप किसी व्यक्ति विशेष या पुस्तक का ज्ञान किसी को अच्छे तरीके से देते हैं तो उसे संप्रदाय कहते हैं। संप्रदाय एक विचारधारा पर काम करता है।’’

अपनी याचिका में वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्‍याय, नीतिज्ञ विदुर की कही बातों को दोहराते दिखे, उन्‍होंने कहा; “धर्म की कोई सीमा नहीं होती। पेड़ों की रक्षा ही धर्म है। वायु, जल और भूमि को प्रदूषण से मुक्त रखना धर्म है और नागरिकों के कल्याण और प्रगति का रक्षक तथा संरक्षक होना धर्म है। धर्म लोगों को जोड़ता है। धर्म प्राणियों को प्राणियों से जोड़ता है। धर्म वह शिक्षक है जो व्यक्ति को अपने कर्तव्यों और दूसरों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाना सिखाता है।’’साथ ही उन्‍होंने महर्ष‍ि वेद व्यास के उद्धरण को लेकर बताया है, ‘‘रिलीजन भीड़ के लिए काम करता है और धर्म बुद्धि के लिए है। धर्म का पालन तर्क और बुद्धि के अनुसार करना चाहिए। न कि इसलिए करना चाहिए क्योंकि हर कोई वही कर रहा है। हमें धर्म का पालन तभी करना चाहिए जब हमें उसमें तर्क मिले और हमें ज्ञान प्राप्त हो। किसी ओर के रास्ते पर चलने से वह रिलिजन बन जाएगा, धर्म नहीं रहेगा ।’’

महाभारत में बताए गए हैं, धर्म के आठ आधार

उन्‍होंने कहा, ‘‘महाभारत वेद व्यास जी ने धर्म के आठ तरीके बताते हैं।  (i) यज्ञ; का मतलब है कर्म जो बहुत से लोगों के लाभ के लिए किया जाता है। (ii) अध्ययन; का अर्थ है अध्ययन; स्वयं और दुनिया का अध्ययन। (iii) दान; अर्थात दान (iv) तप; अर्थात स्वयं में सुधार करते रहना, स्वयं का मूल्यांकन करना तथा नकारात्मक गुणों को दूर कर सकारात्मक गुणों को बढ़ाना। (v) सत्यम्; सत्य के मार्ग पर चलना। (vi) क्षमा; दूसरों तथा स्वयं की गलतियों के लिए क्षमा करना। (vii) दंभ; इंद्रियों को वश में रखना। (viii) आलोभ; लालच या लालच में न आना।’’

वे कहते हैं कि महाभारत में वेद व्यास धर्म और उसके मार्ग के बारे में बात करते हैं लेकिन इस बात का कोई उल्लेख नहीं करते कि किसकी पूजा करनी चाहिए और किसकी नहीं। धर्म इस बारे में बात करता है कि हमें कैसे व्यवहार करना चाहिए और हमारा दृष्टिकोण क्या होना चाहिए। अत: इसका मतलब मानसिक दृष्टिकोण या क्रिया-उन्मुख चीजें हैं।

एक व्‍यक्‍ति एक समय में मुसलमान, ईसाई या यहूदी नहीं हो सकता

अश्‍विनी उपाध्‍याय का धर्म और रिलीजन को लेकर तर्क यह भी है कि “रिलिजन” शब्द हमारे पास पश्चिमी संस्कृति से आया है । “रिलिजन” शब्द का उपयोग पश्चिम में यहूदी, ईसाई या इस्लाम जैसे मतों का वर्णन करने के लिए किया जाता है। हालाँकि कोई अपना “रिलिजन” बदल सकता है और एक यहूदी ईसाई बन सकता है, या एक ईसाई, मुसलमान बन सकता है, और इसी तरह, कोई एक ही समय में यहूदी, ईसाई या मुसलमान नहीं हो सकता। इस तथ्य के गहन निहितार्थ पर विचार करने के लिए एक पल रुकना चाहिए, यह देखते हुए कि तीनों पंथ एक ईश्वर में विश्वास करते हैं और इसलिए, संभवतः, वे सभी खुद को एकेश्वरवादी कहते हैं। अब भले ही वे सभी एक ही ईश्वर में विश्वास करते हों, फिर भी कोई एक ही समय में यहूदी, ईसाई और मुसलमान नहीं हो सकता। तीनों “रिलिजन” की अपनी मान्‍यताओं के अनुसार आचरण है।

जो सनातन को मानता है, वह एक बार में हिन्‍दू, सिख, बौद्ध और जैन हो सकता है

अश्‍विनी, इस बीच भारतीय पंथों और विदेशी रिलिजन के बीच के अंतर को भी स्‍पष्‍ट कर देते हैं। धर्मों के वर्तमान विमर्श में, भारतीय मूल के चार मतों, अर्थात् हिंदू , बौद्ध, जैन और सिख मत को एक साथ व्‍यवहार करने के बारे में बताते हैं, वे बोले कि क्‍या विविध परंपराओं के रूप में हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख कोई भी व्‍यक्‍ति जो स्‍वयं को सनातनी मानता है, एक बार में चारों हो सकता है? एक हिंदू के दृष्टिकोण से, यह स्पष्ट रूप से संभव है, कम से कम हमारे समय में।

वरिष्‍ठ पत्रकार खुशवंत सिंह ने कहा था

यहां तक कि वरिष्‍ठ पत्रकार एवं स्‍तम्‍भकार खुशवंत सिंह ने भी इसे सुखद तथ्य माना कि महानतम सिख शासक रणजीत सिंह एक “हिंदू” थे और अपने सीने पर भगवद् गीता रखकर मृत्‍यु को प्राप्‍त हुए थे। ऐसे में सभी हिंदुओं को सहजधारी सिख और सभी सिखों को केशधारी हिंदू माना जा सकता है। याचिकाकर्ता अश्‍विनी यहां यह भी दावा करते हैं कि ये परंपराएं अलग नहीं हैं; बल्कि यह बताने की कोशिश है कि इन मतों के अनुयायियों को जो भिन्‍नता महसूस होती है, वह यहूदी, ईसाई और इस्लाम के अनुयायियों द्वारा प्रदर्शित अलगाव से बहुत अलग है। इस स्थिति की तुलना अब्राहमिक पंथों से करने पर, मुद्दा यह है कि हिंदूत्‍व में मतांतरण नहीं है। उन्‍होंने कहा, भारतीय पंथ मतांतरण नहीं करते हैं, लेकिन अब्राहमिक पंथ (संभवतः यहूदी को छोड़कर) सक्रिय रूप से सभी इस्‍लाम, ईसाईयत ऐसा करते हैं। यह दोनों के बीच अंतर का एक और बड़ा बिंदु है।

इसलिए बेहद जरूरी है धर्म और रिलिजन के बीच का अंतर स्‍पष्‍ट होना

यह तुलना इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि जब पश्चिमी या अब्राहमिक पांथिक परंपराओं और भारतीय  परंपराओं की बात आती है तो दोनों के बीच पहचान की प्रकृति अलग-अलग होती है। अब्राहमिक परंपराओं के मामले में, मजहबी या रिलिजियस पहचान अनन्य/एकल होती है; जबकि भारत के संदर्भ में जो मत, पंथ यहां हुए हैं उनके बीच बहुत व्‍यापक स्‍तर पर अलग-अलग दिखने के बाद में गहरे में समानता दिखाई देती है।

कहना होगा कि आज धर्म और रिलिजन के बीच का अंतर स्‍पष्‍ट होना इसलिए बेहद जरूरी है, क्‍योंकि व्‍यवहार में दोनों का समानार्थी उपयोग करने के कारण से इसकी परिणति भयंकर है। धर्म हिंसा पर विश्‍वास नहीं करता, धर्म मानव के मानव के बीच रिलिजन के स्‍तर पर कोई भेद नहीं करता, लेकिन अभी दोनों का उपयोग एक साथ होने से लगता यही है कि धर्म भी हिंसा फैलाता है, कन्‍वर्जन करता है, लोगों को अपने विश्‍वास के आधार पर स्‍वीकार करता और लागों को उकसाता भी है, यह एक भीड़ है, दरअसल, इस‍ दृष्टि से मुक्‍त होने के लिए जरूरी है कि न्‍यायालय इस मामले में जल्‍द निर्णय करे।  फिलहाल न्‍यायालय और याचिका कर्ता अश्‍विनी उपाध्‍याय को इंतजार है केंद्र और राज्‍य सरकारों की ओर से आनेवाले त्‍तर का, जिसके बाद ही कोर्ट अपना फैसला सुना सकता है। अभी इसमें इंतजार करते एक वर्ष बीता है आगे कितना समय और लगेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता है  ।

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