विशयह पहचान तेवर बदलती है। समान नागरिक संहिता (यूसीसी), नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के नाम पर यह पहचान उग्र हो जाती है। बेसहारा शाहबानो के संविधान सम्मत न्याय पर उबल पड़ती है। सड़क रोक कर नमाज पढ़ने का हठ करती है। पर्सनल लॉ बोर्ड को अपने अस्तित्व का मुद्दा बनाती है। लड़कियों की शादी की उम्र तय करने पर बिफर जाती है। यही पहचान बाजार में हलाल प्रमाणपत्र जारी करती है। लेकिन दुकान की पहचान बताने वाले साइनबोर्ड लगाने से हिचक जाती है।
पहचान की कसक फिलिस्तीन के लिए उभरती है, रोहिंग्याओं के लिए उमड़ती है, लेकिन चीन के उईगर मुसलमानों के लिए दुबक जाती है। कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार पर उसे सांप सूंघ जाता है। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के वास्तविक अल्पसंख्यकों की दुर्दशा पर यह पहचान मुंह फेर लेती है। यह पहचान खुद को एक वैश्विक इकाई बताती है और शेष दुनिया को एक दूसरी पहचान देती है- काफिर, धिम्मी या जिम्मी। इस दूसरी पहचान की व्याख्याएं की जाती हैं। इस पहचान के नाम पर ही देवबंद के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है कि जिहाद काफिरों के विरुद्ध संघर्ष करने का नाम है। देवबंद वह संस्था है, जिसका भारत के अधिकांश मदरसों पर कब्जा या दबदबा है। अफगान तालिबान भी स्वयं को देवबंदी कहते हैं।
‘पहचान’ पर चुप्पी क्यों?
एक इस्लामी देश में काफिरों या धिम्मियों के क्या अधिकार हैं और उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इस पर बाकायदा साहित्य और फतवे मौजूद हैं। फतवा-ए रजविया ऐसी ही एक ‘मार्गदर्शक’ किताब है। इसमें कहा गया है कि ‘काफिर शब्द का प्रयोग गाली के तौर पर भी किया जाता है। हिंदू निस्संदेह काफिर हैं, और उलमा ने घोषित किया है कि जो उन्हें काफिर नहीं मानता वह खुद काफिर है। वे यकीनन बुतपरस्त (मूर्तिपूजक) और मुशरिक हैं, ऐसा फतवों में कहा गया है। वे यकीनन पूजा के समय बुतों के सामने सिर झुकाते हैं, यदि उनमें से कोई ऐसा नहीं भी करता, तो भी काफिर संबंधी आदेश उस पर लागू होता है। इसलिए हिंदुओं के काफिर होने में कोई शक नहीं है।’
फतवा-ए-रजविया में आगे कहा गया है कि ‘मुशरिक बुरे होते हैं। काफिर की कौम चाहे कितनी नेक हो, उसका परिवार चाहे कितना नेक हो, वह किसी गुलाम मुसलमान से बेहतर नहीं होता। काफिरों के साथ मत बैठो। उन्हें अपने नजदीक मत बैठाओ। उनका पहले अभिवादन मत करो। उनके साथ पानी मत पियो और न ही उनके साथ खाना खाओ। उलेमाओं ने यह घोषित किया है कि अल्लाह और पैगंबर के दुश्मनों से दुश्मनी रखना हर मुसलमान का लाजमी फर्ज है। काफिरों के दशहरा जैसे त्योहारों में भाग लेना, मूर्तियों पर फूल चढ़ाना, शंख बजाना, ऐसे काम करने वाला ‘अपराधी’ इस्लाम से बाहर हो जाता है। उसको इस्लाम दोबारा ग्रहण करना पड़ेगा और निकाह भी दोबारा करना पड़ेगा। काफिरों के मजहबी जज्बात का लिहाज करते हुए कोई चीज करना या किसी चीज से गुरेज करना कुफ्र है। ऐसा करना काफिरों के कुफ्र को बल प्रदान करना है। इस्लाम को मिटाने में उनकी मदद करना है। अलबत्ता, किताब मुसलमान को काफिरों से व्यापार करने की इजाजत देती है, लेकिन जिम्मियों या धिम्मियों से नहीं। जिम्मी या धिम्मी इस्लामी शासन के अंतर्गत रहने वाले काफिरों को कहते हैं।’
-(फतवे, उलमा और उनकी दुनिया : अरुण शौरी, अध्याय-सबसे बदतर रचना, पृष्ठ : 155 से 196)
ताक पर कानून
इस पहचान के ठेकेदार सब तरफ हैं, जो किसी भी कीमत पर भारत के मुसलमान को भारत की मुख्यधारा में मिलने से रोकना चाहते हैं। वे इस पहचान के नाम पर वंदे मातरम् और राष्ट्रगान का भी विरोध करते हैं। यह लोग अलग पहचान को पोसते हैं। आधुनिकीकरण के हर कदम का विरोध करते हैं। फिर पहचान को गट्ठा वोटों में बदलने का धंधा करते हैं और खरीदारों के साथ परस्पर संरक्षण के सह-संबंध में रहते हैं। सरदार पटेल ने संविधान सभा में कहा था कि जो अल्पमत जबरदस्ती देश का विभाजन करवा सकता है, उसे अल्पमत क्यों कहना चाहिए? उसे आरक्षण और विशेष सुविधाएं क्यों? सरदार पटेल के जाने के बाद सत्ताधीशों ने उनकी चेतावनी को दरकिनार कर दिया। अल्पसंख्यक पहचान को खड़ा किया गया और उसके आधार पर भारत में ‘अल्पसंख्यकवाद’ की राजनीति शुरू की गई। यह राजनीति चुनावी भी थी और मजहबी भी। फिर संविधान की मूल भावना को भी ताक पर रख दिया गया। कानून सबके लिए बराबर होना चाहिए। बराबर होता भी है।
समस्या कानून का पालन करने की है। जब शाहीनबाग का ‘प्रहसन’ चल रहा था, तो एक विमर्श सब तरफ योजनाबद्ध तरीके से फैलाया गया कि ‘कागज नहीं दिखाएंगे।’ देखते ही देखते देश में सैकड़ों स्थानों पर ऐसे छोटे-बड़े शाहीन बाग खड़े हो गए। दिल्ली में भीषण दंगा हुआ। देश में जगह-जगह पर पत्थरबाजी और आगजनी की घटनाएं हुईं। पुलिस पर घातक हमले हुए। हाल ही में मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में मोहर्रम के दौरान तनाव की स्थिति बन गई। पुलिस प्रशासन ने सूचना जारी की थी कि मोहर्रम के ताजिए एक निश्चित ऊंचाई से अधिक के न बनाए जाएं, क्योंकि जब वे सड़कों पर जुलूस की शक्ल में निकाले जाते हैं, तो बिजली के तारों से टकराकर दुर्घटना होने का भय बना रहता है। फलस्वरूप विद्युत विभाग को बिजली की आपूर्ति रोकनी पड़ती है, जिससे लोगों को तकलीफ होती है। इस बात को नहीं माना गया और शांति व्यवस्था भंग हुई। पहचान के इस खेल में कानून और संविधान की भावना को बार-बार धता बताईजाती है।
दुकानों पर मालिक का नाम लिखना कानून का हिस्सा है। सभी से कानून पालन करने को कहा गया है, पर संविधान विरोधी कदम बताकर इसका विरोध किया जा रहा है। आज जब सब तरफ स्वेच्छाचारी हलाल प्रमाणपत्र चल रहे हैं, तब जो व्यक्ति हलाल व हराम में विश्वास नहीं रखता, उसे जानने का अधिकार नहीं है कि वह जो खरीद रहा है ‘हलाल’ तो नहीं है? जब सब तरफ से खाद्य पदार्थों पर थूकने या उन्हें अन्य प्रकार से गंदा करने के हजारों वीडियो आ रहे हैं, तो उस पर ‘सेकुलर’ तूफान क्यों नहीं खड़ा होता? क्यों सुधार-समझाइश की कोशिश नहीं होती? यह सब छोड़िए, इन आपत्तियों को स्वीकार भी नहीं किया जाता। ऐसी घटनाओं को सिरे से नकार दिया जाता है। ‘सेकुलर राजनीति’ का निर्लज्ज चेहरा यही है कि जब ‘हमारे लिए सबसे बड़ा कानून शरिया कानून है’ जैसे बयान दिए जाते हैं तो चुप्पी साध ली जाती है और जब संविधान में दिए गए कानून के अनुसार दुकानदार को अपना नाम लिखने को कहा जाता है, तो उसे गैर-संवैधानिक बताया जाता है। वे कानून का पालन करवाने के पीछे की ‘नीयत’ पर सवाल उठाते हैं और ‘फतवा-ए-आलमगीरी’, ‘फतवा-ए-रजविया’ और फतवा फैक्ट्री को मौन समर्थन देते हैं।
पहचान पर घमासान
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