गत 9 जुलाई को केंद्र सरकार ने 1966 के उस प्रतिबंध को हटा लिया है, जिसमें कहा गया है कि सरकारी सेवा में लगे लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग नहीं ले सकते हैं। इसके बाद से अनेक सेकुलर नेता, पत्रकार और कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी परेशान हैं। उनका कहना है कि सरकार ने गलत निर्णय लिया है। इसलिए कुछ लोग इसके विरोध में सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गए हैं।
बता दें कि नवंबर, 1966 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सरकारी कर्मचारियों के संघ की गतिविधियों में शामिल होने पर पाबंदी लगाई थी। बाद में मोरारजी देसाई की सरकार (1977-1979) ने इसे हटा दिया था। 1980 में सत्ता में लौटने के बाद इंदिरा गांधी ने उक्त प्रतिबंध फिर से लगा दिया था। इंदिरा गांधी की इस कार्रवाई से 34 साल पहले अंग्रेजी हुकूमत के दौरान दिसंबर, 1932 में मध्य भारत सरकार ने पहले जिला परिषदीय विद्यालयों के शिक्षकों और फिर स्थानीय निकाय सहित सभी प्रकार के सरकारी कर्मचारियों को संघ से दूर रखने का आदेश जारी किया।
यह संघ को डराने, आतंकित करने का प्रयास था। लेकिन डॉ. हेडगेवार कहां डरने वाले थे। उन्होंने अकोला जिला परिषद्, नागपुर नगरपालिका, सावनेर, वर्धा, भंडारा, काटोल एवं उमरेड की नगर पालिकाओं द्वारा उक्त आदेश के विरुद्ध प्रस्ताव पारित कराकर सरकार के पास भिजवाए। यही नहीं, संघ का पक्ष समझाने के लिए वे प्रांत की विधान परिषद के अनेक सदस्यों से मिले।
मध्य प्रांत में उन दिनों अंग्रेजों के प्रशंसक राघवेंद्र राव की सरकार थी। उनके कुछ मंत्रियों और विधायकों को भी डॉ. हेडगेवार ने सरकार के संघ-विरोधी कदम का विरोध करने के लिए तैयार कर लिया। परिणाम यह हुआ कि सरकार विधान परिषद में 1933 का बजट पारित नहीं करवा सकी और उसका पतन हो गया। इसके साथ ही सरकारी कर्मचारियों पर लगी पाबंदी भी भूतकाल की बात बन गई।
अंग्रेजी शासन में दूसरा प्रतिबंध
1940 में संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार दिवंगत हुए। इसके बाद श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्रीगुरुजी ने संघ का कार्यभार संभाला। ब्रिटिश सरकार संघ को अपना का कट्टर विरोधी मानती थी। इसलिए उसने डॉ. साहब के जाने के तुरंत बाद सेना या पुलिस जैसे बूट पहनने और परेड करने पर रोक लगा दी। उसकी सोच थी कि श्रीगुरुजी द्वारा ठीक से सरसंघचालक का दायित्व संभालने से पूर्व ही उन्हें झटका दिया जाए। पर श्रीगुरुजी ने लंबे बूट की जगह कपड़े के जूते अपना लिए और पथ संचलन स्थगित कर दिए। लेकिन संघ कार्य निर्बाध चलता रहा। संघ पूरी तरह सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन है। इसके बावजूद उसे राजनीतिक संगठन मानकर उस पर प्रतिबंध लगाए जाते रहे हैं।
गांधी-हत्या के बहाने
30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने यह झूठ फैलाया, ‘‘संघ वालों ने खुशियां मनाईं, मिठाई बांटी।’’ यही नहीं, श्रीगुरुजी के शोक संदेश के प्रकाशन को रोका गया। इसके बाद 4 फरवरी को संघ को प्रतिबंधित किया गया। श्रीगुरुजी कैद कर लिए गए। इससे पूर्व तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने 6 जनवरी को ही लखनऊ में कहा, ‘‘कांग्रेस में कुछ लोग हैं, जो किसी बहाने से संघ पर प्रतिबंध लगाना चाहते हैं।’’ हत्या की प्रारंभिक जांच पूरी होने के बाद 22 फरवरी को उन्होंने नेहरू को भेजी चिट्ठी में लिखा, ‘‘हत्या और षड्यंत्र से जुड़े सभी लोगों की पहचान हो गई है और आर.एस.एस. इसमें कहीं लिप्त नहीं पाया गया है। इसीलिए गांधी की हत्या के कारण संघ पर कोई मुकदमा भी नहीं चलाया गया।’’
गांधी जन्मशताब्दी वर्ष 1969 में गठित ‘जीवनलाल कपूर आयोग’ ने भी गांधी जी की हत्या के मामले में संघ को बरी कर दिया था। अत: संघ को ‘गांधी जी का हत्यारा’ बताना सत्य की हत्या है। 12 जुलाई, 1949 को संघ पर से प्रतिबंध बिना शर्त हटाया गया। तत्कालीन कानून मंत्री बाबासाहेब आंबेडकर भी संघ पर प्रतिबंध के विरोधी थे। उन्होंने सरदार पटेल के साथ मिलकर मंत्रिमंडल में नेहरू की इस जिद का विरोध किया था।
नवंबर, 1966 का फैसला
जवाहरलाल नेहरू ने 1962 के चीनी हमले के बाद संघ संबंधी अपनी धारणा में संशोधन कर लिया था। जब उन्होंने 26 जनवरी, 1963 की गणतंत्र परेड में संघ को बुलाया, तब कुछ कांग्रेसी नेताओं द्वारा यह कहने पर कि ‘संघ सांप्रदायिक है, देशद्रोही है’, उनका संक्षिप्त उत्तर था- नहीं। किंतु इंदिरा गांधी संघ को सांप्रदायिक बताती रहीं। 1966 में गोरक्षा के लिए बहुत बड़ा आंदोलन चला।
संत-महात्माओं सहित सैकड़ों लोगों ने संसद को घेर लिया। सरकार बचाव में आ गई। उसने हताशा में पुलिस से गोलियां चलवाईं। बड़ी संख्या में संत व सामान्यजन मारे गए। इतने बड़े आंदोलन की जड़ में इंदिरा ने संघ को पाया। उसकी शक्ति पर प्रहार करने के उद्देश्य से सरकारी कर्मचारियों के संघ प्रवेश पर पाबंदी लगा दी। संघ कोई राजनीतिक दल नहीं है।
साधारणत: सरकारी कर्मचारियों के राजनीतिक दलों में जाने पर उनके सेवा-नियमों के अनुसार पाबंदी रहती है। किंतु 14 उच्च न्यायालयों सहित सर्वोच्च न्यायालय भी एक बार कह चुका है कि संघ अराजनीतिक संगठन है और इस पर प्रतिबंध लगाना नियामावली के विरुद्ध है।
मौलिक अधिकार के विरुद्ध
संविधान के अनुच्छेद 19(1)(सी) में नागरिकों को संगठन/यूनियन बनाने या उनमें शामिल होने का मूलभूत अधिकार दिया गया है। शर्त यह है कि संगठन गैर-कानूनी कार्य न करता हो। संघ पर किसी गैर-कानूनी काम करने का तो कोई आरोप भी नहीं है। फिर उसमें किसी के शामिल होने को कैसे रोका जा सकता है?
निराधार था प्रतिबंध
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गत 99 वर्ष से राष्ट्र के पुनर्निर्माण एवं समाज की सेवा में सतत संलग्न है। राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता-अखंडता एवं प्राकृतिक आपदा के समय समाज को साथ लेकर संघ के योगदान को देखकर देश के विभिन्न प्रकार के नेतृत्व ने संघ की भूमिका की प्रशंसा भी की है। अपने राजनीतिक स्वार्थों के चलते तत्कालीन सरकार द्वारा शासकीय कर्मचारियों को संघ जैसे रचनात्मक संगठन की गतिविधियों में भाग लेने के लिए निराधार ही प्रतिबंधित किया गया था। शासन का वर्तमान निर्णय समुचित है और भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुष्ट करने वाला है।
-सुनील आंबेकर, अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
इतने वर्षों तक अनुच्छेद 19(1) (सी) कुचला जाता रहा और किसी ने ध्यान नहीं दिया, यह खेदजनक है। केंद्र सरकार तथा विभिन्न राज्य सरकारों के कर्मचारियों की सेवा-नियमावलियां प्रकाशित की जानी चाहिए, ताकि लोग स्वयं देख सकें कि कौन कितना लोकतांत्रिक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार संघ के संबंध में निकाले ताजा आदेश से लोकतंत्र के रक्षक के रूप में उभरी है। विपक्ष को उन्हें धन्यवाद देना चाहिए।
(लेखक ‘प्रज्ञा प्रवाह’ के कार्यकर्ता और ‘राष्ट्रदेव’ मासिक के संपादक हैं)
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