केंद्र की भाजपा नीत एनडीए सरकार ने अपने एक आदेश के माध्यम से शासकीय सेवा में कार्यरत कर्मचारियों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की गतिविधियों में शामिल होने पर लगी रोक को हटाने का जो काम किया है, न्यायालय ने भी उस पर मुहर लगा दी है। न्यायालय ने कोर्ट में प्रस्तुत सभी तथ्यों के आधार पर माना है कि यह प्रतिबंध तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने बिना किसी उचित कारण के लगाया था। इसके साथ ही न्यायालय की ओर से जो टिप्पणियां की गई हैं, वे बहुत महत्व रखती हैं । ये टिप्पणियां हर उस सरकार के लिए हैं जो तानाशाही रवैया अपनाती हैं।
वस्तुत: मप्र उच्च न्यायालय में यह याचिका केंद्र सरकार के सेवानिवृत्त अधिकारी पुरुषोत्तम गुप्ता ने वर्ष 2023 में दायर की थी। उन्होंने मांग की थी कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा की जाने वाली सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों से प्रभावित होकर एक सक्रिय सदस्य के रूप में संघ में शामिल होना चाहते हैं, किंतु वे ऐसा इसलिए नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि इस पर प्रतिबंध लगाया गया है। जबकि संघ गैर राजनीतिक संगठन है और हर भारतवासी को अन्य संगठनों की तरह इसकी गतिविधियों में शामिल होने का अधिकार है। संगठन अपने जीवन काल से ही देश सेवा के कार्य में जुटा हुआ है। जिसके बाद न्यायालय ने केंद्र सरकार से इस संबंध में पूछा और उसके परिणाम स्वरूप प्रतिबंध हटाया गया। किंतु क्या यह मामला एक खबर में सिमट जाना चाहिए? वास्तव में न्यायालय का यह निर्णय एक समाचार से कहीं ज्यादा है, जिसकी गहराई को प्रत्येक भारतवासी को समझने की आवश्यकता है।
माननीय न्यायाधीश सुश्रुत धर्माधिकारी एवं गजेन्द्र सिंह ने 1966 में केंद्र सरकार के कर्मचारियों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रवेश लेने पर लगाए गए प्रतिबन्ध के आदेश को निरस्त करते हुए साफ कहा कि आरएसएस जैसी गैर सरकारी संस्थाओं पर पड़ने वाले इसके व्यापक प्रभाव को देखते हुए न्यायालय को यह उचित लगता है कि इस विषय पर अपनी टिप्पणियां दी जाएं। ये टिप्पणियां इसलिए भी आवश्यक हो जाती हैं जिससे कि आने वाले समय में कोई सरकार अपनी सनक और मौज के चलते राष्ट्रीय हितों में कार्यरत किसी स्वयंसेवी संस्था को सूली पर न चढ़ा दे, जैसा कि गत पाँच दशकों से आरएसएस के साथ होता आया है।
कोर्ट ने कहा कि प्रश्न यह उठता है कि आरएसएस को किस सर्वेक्षण या अध्ययन के आधार पर सांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्षता विरोधी घोषित किया गया था? किस आधार पर सरकार इस नतीजे पर पहुंची थी कि सरकार के किसी कर्मचारी के, सेवानिवृत्ति के पश्चात भी संघ परिवार की किसी गतिविधि में भाग लेने से समाज में सांप्रदायिकता का संदेश जाएगा? न्यायालय को, बारंबार पूछे जाने के बावजूद, इन प्रश्नों के कोई उत्तर प्राप्त नहीं हो सके। ऐसी दशा में न्यायालय यह मानने के लिए बाध्य है कि ऐसा कोई सर्वेक्षण, अध्ययन, सामग्री या विवरण है ही नहीं जिसके आधार पर केंद्र सरकार यह दावा कर सके कि उसके कर्मचारियों के आरएसएस जो कि एक अराजनीतिक संगठन है कि गतिविधियों से जुड़ने पर प्रतिबंध आवश्यक है। जिससे कि देश का धर्मनिरपेक्ष तानाबाना और सांप्रदायिक सौहार्द अक्षुण्ण बना रहे। इस मामले की सुनवाई के दौरान अलग-अलग तारीखों पर हमने पांच बार यह पूछा कि किस आधार पर केंद्र के लाखों कर्मचारियों को पाँच दशकों तक अपनी स्वतंत्रता से वंचित रखा गया था?
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इसके साथ ही यहां कोर्ट ने यह भी माना है कि यदि याचिकाकर्ता द्वारा यह याचिका प्रस्तुत नहीं की जाती, तो ये प्रतिबंध आगे भी जारी रहते जो कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1) का खुला अपमान होता। न्यायालय ने कुछ सवाल भी उठाए। क्या केंद्र सरकार के कर्मचारियों पर आरएसएस में प्रवेश पर प्रतिबंध किसी ठोस आधार पर लगाया गया था या सिर्फ एक संगठन, जो कि तत्कालीन सरकार की विचारधारा से सहमत नहीं था को कुचलने के लगाया गया था? दो- क्या समय-समय पर कोई समीक्षा की गई थी? यह एक प्रतिष्ठित कानूनी परम्परा है कि कोई भी प्रतिबन्ध अनन्त काल तक जारी नहीं रह सकता और यह कि समय-समय पर ऐसे प्रतिबंध की, बदलते समय और संविधान की व्याख्याओं के तहत सतत विस्तृत हो रही स्वतंत्रता के आधार पर समीक्षा होनी चाहिए।
यहां न्यायालय कहता है कि यदि यह प्रतिबंध सोच समझ कर हटाया जा रहा है तो न्यायालय यह अपेक्षा रखता है कि भविष्य में कभी पुनः आरएसएस एवं उसके अनुषांगिक संगठनों को लेकर इस तरह का प्रतिबंधात्मक प्रस्ताव लाया गया तो उसके पीछे गहन अध्ययन, ठोस सामग्री, मजबूत आंकड़े, उच्चतम अधिकारियों के स्तर पर गंभीर चिंतन तथा बाध्यकारी सबूतों का आधार होना चाहिए। अन्यथा ऐसा प्रतिबंध भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 19 का अपमान ही कहलायेगा।
वास्तव में मौलिक स्वतंत्रता पर रोक लगाने वाला आदेश सदैव ही ठोस सबूतों और न्यायोचित आंकडों पर आधारित होना चाहिए। अपने निर्णय में न्यायालय इसे भी दुखद माना है कि केंद्र सरकार को इस त्रुटि को दुरुस्त करने में पाँच दशक लग गए।
इंदौर न्यायालय को यहां गृह मंत्रालय को आदेश देते हुए भी देखा गया जिसमें उसने साफ शब्दों में कहा कि प्रतिबंध हटाने वाले परिपत्र को अपनी अधिकृत वेबसाइट के होम पेज पर प्रकाशित करें ताकि आम जनता को इस बारे में जानकारी मिल सके। कुल मिलाकर यह जो निर्णय आया है, उसने फिर एक बार स्पष्ट कर दिया है कि भले ही न्याय पाने और सत्य के मार्ग पर चलते हुए सफल होने में समय लगे, किंतु यदि आप इपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार हैं, सही रास्ते पर हैं तो यह तय मानिए, देर से ही सही जो भी निर्णय आएगा, वह आपके ही पक्ष में आएगा।
रा.स्व.संघ जैसे अनुशासित, बिना किसी मत, पंथ और मजहब को देखे सभी की एक समान मदद देनेवाला गैर राजनीतिक संगठन है। कहना होगा कि देश भक्त संगठन पर इस तरह का अत्याचार करना संविधान की मूल अवधारणा एवं मौलिक अधिकारों का भी हनन है। आज से 58 साल पहले 1966 में असंवैधानिक आदेश जारी करते हुए सरकारी कर्मचारियों के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगाया गया था, जिसका कि कोई भी पुख्ता आधार कभी नहीं रहा। ऐसे में अब अच्छा है कि वर्तमान मोदी सरकार ने इस प्रतिबंध को पूरी तरह समाप्त कर दिया। क्योंकि जो आधार लेकर यह प्रतिबंध इंदिरा सरकार ने लगाया था, वह आधार ही अनुचित है ।
वस्तत: इतिहास में इस बात का जिक्र है कि सात नवंबर 1966 के दिन भारतीय संसद के बाहर हुए गोहत्या के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान इस आन्दोलन को कुचल देने के लिए इंदिरा गांधी इतनी आतुर दिखी थीं कि वह किसी भी हद तक जाने को तैयार थीं और ऐसा हुआ भी। दूसरी ओर इस पूरी घटना में देश भक्त स्वयंसेवकों को गो हत्या का पुरजोर विरोध करते हुए देखा गया था। इंदिरा सरकार ने इस मामले में पूरी तरह अपनी शक्तियों का गलत इस्तेमाल किया। विरोध प्रदर्शन में पुलिस ने निर्दोष लोगों पर गोलीबारी की थी, जिसमें कई लोग मारे भी गए। आन्दोलन सख्ती से कुचल दिया गया था। आगे अपनी व्यक्तिगत खुन्नस निकालने के लिए तत्कालीन सरकार ने शासकीय सेवारत स्वयंसेवकों पर शाखा लगाने एवं उसमें शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया था, जिससे कि अब जाकर स्वयंसेवक शासकीय कर्मचारियों को इससे मुक्ति मिल सकी है।
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