जनजातीय समाज, मूल सनातन संस्कृति का पुरातन ध्वजवाहक है; हालाँकि यह बात भी सही है कि सभ्यताओं के विकास व आक्रमणकारियों द्वारा सभ्यताओं को नष्ट करने के क्रम में जनजातीय समाज में भी स्थान परिवर्तन, परम्पराओं, संस्कृतियों, विवाह, पूजा पद्धतियों, भाषा-बोली, रीति-रिवाजों एवं जीवनशैली में कुछ अंतर अवश्य दिखाई देते हैं किन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी यदि हम गहराई से विश्लेषण करेंगे तो स्पष्टतः पाएंगे कि हिन्दू समाज के जनजातीय अथवा गैर-जनजातीय दोनों समाजों के मूल में ‘सनातन संस्कृति’ विद्यमान है |
वेदों में वर्णित जीवन पद्धति के आधार पर अनादि काल से जीवन जी रहे अपने जनजातीय बन्धु भारत के सनातन समाज की रीढ़ हैं । भारतीय संस्कृति का आविर्भाव गिरि-कंदराओं से हुआ ऐसा माना जाता है इसलिए इसे ‘अरण्य संस्कृति’ भी कहा जाता है।
अथर्ववेद की ऋचा ‘माता भूमि पुत्रोहमपृथिव्या’ में जो भावना है इसको जीवन में उतारने वाला समाज ही हमारा ‘जनजातीय समाज’ है। प्रकृति में परमेश्वर को देखने वाला यह समाज प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर अपना दैनंदिन जीवन व्यतीत करता है। भारतीय समाज में सूर्य, चन्द्र, नवग्रह, वृक्ष, नाग, नदियां, धरती आदि में देव तत्त्व का दर्शन कर श्रद्धा और भक्ति के साथ समर्पित भाव की परंपरा प्राचीन काल से ही विद्यमान है।
भारतीय सनातन संस्कृति सदैव ही आक्रमणकारियों के निशाने पर रही है। भारत की सामाजिक राजनीतिक-आर्थिक-आध्यात्मिक-वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों की सर्वोत्कृष्टता तथा समृद्ध परम्परा को देखकर विभिन्न विदेशी शक्तियों यथा- तुर्कों, मंगोलों, अरबों, मुगलों व अंग्रेजों ने तलवार व बन्दूक की नोक एवं आपसी फूट डालकर तथा सभ्य समाज की उदारवादी, क्षमादान जैसी प्रवृत्तियों का फायदा उठाकर समय-समय पर आक्रमण कर यहाँ की सत्ता एवं संसाधनों पर ही कब्जा नहीं जमाया अपितु, यहाँ की संस्कृति को विखण्डित करने के लिए क्रूरतम अत्याचारों से राष्ट्र को अपूर्णीय क्षति पहुंचाई।
हमारी महान सनातन संस्कृति पर क्रूरता का अध्याय भीषण त्रासदियों से भरा पड़ा है। ईसाई मिशनरियों ने जनजातियों का शोषण किया, भोले-भाले जनजातीय समाज को प्रलोभनों में फंसाकर उनका मतांतरण करवाया, जिसका सिलसिला आज तक नहीं थम पाया। अपने उन्हीं कुत्सित प्रयासों को मूर्तरूप देने के लिए ईसाई मिशनरी, भारत के अन्दर छिपे वामपंथी, बौद्धिक नक्सलियों द्वारा जनजातीय समाज को सनातन हिन्दू समाज से अलग बताने एवं उसकी जड़ों से काटने के षड्यंत्र लगातार चलाए जा रहे हैं। हमारे जनजातीय समाज को कभी “मूलनिवासी” तो कभी उन्हें भ्रमित करते हुए उनके अधिकारों के हनन की झूठी कहानियों से बरगलाने के लिए आर्थिक प्रलोभनों द्वारा लुभाकर अलगाववाद के प्रयास किए जा रहे हैं, जबकि भारतीय संविधान में हमारे जनजातीय समाज के उत्थान एवं उनके अधिकारों के पर्याप्त उपबंध किए गए हैं। इस षड्यंत्र में कई वैश्विक शक्तियां पर्दे के पीछे से काम कर रही हैं। जनजातीय समाज के लोग व्यावहारिक रूप से अत्यंत ही सहनशील, उदार व धार्मिक प्रवृत्ति वाले होते हैं।
उन्होंने विभिन्न धार्मिक प्रक्रियाएं अपनाई हुई हैं, वे मूर्तिपूजक हैं, प्रकृतिपूजक हैं, सार्वात्मवादी हैं तथा अपने पूर्वजों की पूजा करने वाली उनकी ‘धार्मिक संस्कृति’ उन सभी प्रक्रियाओं का मिश्रण है जो सिर्फ और सिर्फ सनातन हिन्दू परंपरा में ही देखने को मिलती है। जनजातीय समाज हमेशा ही अपने पूर्वजों और कुलदेवता इत्यादि से संबंधित संस्कारों और उनके निषेधों में अद्भुत आस्था रखता है।
विश्लेष्णात्मक रूप से देखें तो भारत के जनजातीय समाज के लोग विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से भगवान शिव की सदियों से पूजा करते आ रहे हैं। वनवासी लोग पशुपतिनाथ के रूप में या टाँगीनाथ जैसे प्राचीन शिवलिंग के पूजन के माध्यम से शैव भक्त ही रहे हैं; जैसे झारखंड में निवास करने वाली प्रमुख संथाल समाज के लोग मरांगबुरु के रूप में पहाड़ की जिस ऊंची चोटी को आकाश, बारिश, बिजली, सूर्य और तेज हवा के देवता के रूप में पूजा करते हैं, वह भगवान शिव का ही प्रतीक है। जनजातीय समाज के दो प्रमुख क्रियाकलाप हैं एक पशुपालन तथा दूसरा वनोत्पाद, जिनसे वे अपनी आजीविका भी चलाते हैं। ऐसे में जनजातीय समाज के लोग यह मानते हैं कि पशुपति के रूप में भगवान शिव ही उनकी रक्षा करते हैं। इनके अपने अलग लोक देवता, ग्राम देवता और कुल देवता हैं जैसे नागवंशी जनजाति और उनकी उप-जनजातियां नाग की पूजा करते हैं। गैर-जनजातीय हिन्दू समाज में भी ग्राम देवता, ग्राम देवी व नगर देवता इत्यादि की परंपरा का मूल भी इसी आदि संस्कृति से जुड़ा हुआ है।
वैदिक काल से ही हिन्दू समाज पितृ पक्ष के दौरान पु्रखों (आत्मा) का आह्वान कर उन्हें प्रार्थना व भोजन आदि अर्पित करता है, क्योंकि हिंदू लोग मानते हैं कि ब्रह्मांड में आत्मा का अस्तित्व है। हिन्दू समाज चंद्रमा की स्थिति यानी तिथि के आधार पर प्रत्येक वर्ष एक माह पूर्वजों के लिए अनुष्ठान करते हैं। सामान्यतः यह अनुष्ठान उस व्यक्ति द्वारा किया जाता है जिसने अंतिम संस्कार किया था।
भारत की कई जनजातियों द्वारा उपरोक्त अवधारणाओं का अक्षरशः पालन किया जाता है, लेकिन उन्होंने भी स्थिति के अनुसार उन सभी प्रक्रियाओं को संशोधित किया है, जैसे नागालैंड में, विशेष रूप से नागा लोग पूर्वजों की आत्मा को आमंत्रित करते हैं और उनसे आशीर्वाद लेते हैं, क्योंकि उन्हें चावल की फसल बोने के लिए बारिश की आवश्यकता होती है। कई स्थानों पर, विशेष रूप से बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और ओडिशा में प्रत्येक वर्ष ये जनजातियां विशेष अनुष्ठानों का पालन करके अपने पूर्वजों को याद करते हैं और कुछ ब्राह्मणों को दोपहर के भोजन के लिए भी आमंत्रित करते हैं। केरल में, जनजातीय समाज प्रत्येक वर्ष मृत व्यक्ति की मूर्ति की पूजा करते हैं। भारत में, लगभग सभी जनजातियां प्रतिवर्ष अलग-अलग अनुष्ठान करके पूर्वजों की आत्मा का आह्वान करते हैं तथा विधिपूर्वक पूजन करते हैं। यह परंपरा उनकी हिन्दू संस्कृति का ही अंग है।
इसी तरह पुनर्जन्म में आस्था भी सनातन हिन्दू परम्परा का अंग है। विभिन्न जनजातियों में भी पुनर्जन्म के प्रति आस्था की परंपरा है। यदि हम गोंड जनजाति का उदहारण लें तो वे पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। गोंड परंपरा में किसी व्यक्ति का पुनर्जन्म उसके पिछले जन्म के कार्यों और गुणों के अनुसार होगा। वे यह भी मानते हैं कि यदि पिछले जन्म में व्यक्ति ने अच्छे कार्य किए हैं तो उसे पदोन्नति भी मिलेगी | इसी तरह कई अन्य जनजातीय परम्पराओं में मान्यता है कि व्यक्ति का पुनर्जन्म उसी के परिवार में अगली पीढ़ी के रूप में होगा।
आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना और ओडिशा के भारतीय राज्यों में पाई जाने वाली जनजातियां पुनर्जन्म के बारे में मानती हैं कि ‘व्यक्ति का पुनर्जन्म उसके कर्मों पर निर्भर करता है, यदि उसके कर्म ख़राब रहे हैं तो ईश्वर उसे दंड देकर पुनः भेजेगा और यदि कर्म अच्छे रहे हैं तो ईश्वर उन्हें अपने पास संरक्षित कर लेगा।’ गोंड की तरह ही आंध्र प्रदेश की कई जनजातियों में मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति अपने परिवार में ही पुनर्जन्म लेता है।
तंत्र-तांत्रिक में भी जनजातीय समाज विश्वास करता है। हम जानते हैं कि सनातन हिन्दू परम्परा में भी तंत्र विद्या का एक वर्ग है। भारत में कई जगहें तंत्र विद्या की भूमि मानी जाती हैं, जिनमें से “कामरूप कामाख्या” सर्वाधिक लोकप्रिय है। भारत में लगभग सभी जनजातियाँ खुद को टोनों-टोटकों के प्रभावों से बचाने के लिए कई तरह के अनुष्ठान करती हैं।
इसी प्रकार ‘शुभंकर’ सनातन हिन्दू परंपरा का एक मानक बिंदु है। समान रूप से ही जनजातीय समाज में शुभंकर की मान्यता है, जिसका प्रत्येक जनजातीय परिवार से विशेष संबंध होता है। यह एक विश्वास है कि शुभंकर ही उस परिवार का मूल है इसलिए शुभंकर की पूजा जानी चाहिए और परिवार के प्रत्येक सदस्य को उसका सम्मान करना चाहिए क्योंकि पूरा परिवार मानता है कि वे उसी के वंशज हैं या उसी शुभंकर से वे सुरक्षित हैं । जनजातीय ‘शुभंकर’ अधिकतर पशु के रूप में होते हैं जैसे शेर, बाघ, चीता, गाय, बकरी, गोरिल्ला, जिराफ़, गैंडा, भेड़िया, बंदर, कुत्ता, भैंसा, बैल, ऊँट, खरगोश, बिल्ली, शेर, चूहा, घोड़ा इत्यादि।
कई जनजातियों ने अपने शुभंकर हेतु प्रकृति के विभिन्न अंगों को चुना है जैसे नदी, पेड़, झरना, बादल। इसी तरह कुछ जनजातियों ने सौर व्यवस्था से सूर्य, चन्द्रमा, नवग्रह में से कोई गृह इत्यादि को अपना शुभंकर माना है; उदाहरण के लिए, मोंडा जनजातियां नियमित रूप से सूर्यदेव की पूजा करती हैं; इसी प्रकार असम की गारो जनजाति भगवान सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों को ही पूजती है। जनजातीय समाज में अपने शुभंकर को लेकर कई निषेध भी होते हैं जिनका वे पालन करते हैं यथा वे उस जानवर को मार नहीं सकते और खा नहीं सकते; वे किसी भी स्थिति में अपने शुभंकरों का अपमान नहीं कर सकते। इसके अलावा वे सामान शुभंकर वाले परिवार के सदस्य से शादी नहीं कर सकते।
इसी तरह जनजातीय समाज के पर्व प्रत्यक्ष रूप से उनका संबंध सनातन हिन्दू परंपरा से जोड़ते हैं जैसे ‘सोहराया पर्व’। सोहराय पर्व का जनजातीय समाज में बेहद महत्व है। जनजातीय समाज इस पर्व को उत्सव की तरह मनाता है। जनजातियों में सोहराय पर्व की उत्पत्ति की कथा भी काफी रोचक है। इसकी कथा सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़ी हुई है। प्रचलित कथा के अनुसार, जब मंचपुरी अर्थात् मृत्यु लोक में मानवों की उत्पत्ति होने लगी, तो बच्चों के लिए दूध की जरूरत महसूस होने लगी। उस काल खंड में पशुओं का सृजन स्वर्ग लोक में होता था। मानव जाति की इस मांग पर मरांगबुरु अर्थात् जनजातियों के सबसे प्रभावशाली देवता जो कि शिव का ही स्वरूप हैं । जनजातीय कथा के अनुसार, मरांगबुरू स्वर्ग पहुंचे और अयनी, बयनी, सुगी, सावली, करी, कपिल आदि गायें एवं सिरे, वरदा बैल से मृत्यु लोक में चलने का आग्रह करते हैं।
मरांगबुरू के कहने पर भी ये दिव्य पशु मंचपुरी आने से मना कर देते हैं, तब मरांगबुरू उन्हें कहते हैं कि मंचपुरी में मानव युगों-युगों तक तुम्हारी पूजा करेगा, तब वे दिव्य, स्वर्ग वाले जानवर मंचपुरी आने के लिए राजी होकर धरती पर आते हैं और उनके आगमन से ही इस त्योहार का प्रचलन प्रारंभ होता है। ज्ञातव्य है कि उसी गाय-बैल की पूजा के साथ सोहराय पर्व की शुरुआत हुई है। पर्व में गाय-बैल की पूजा समस्त जनजातीय समाज काफी उत्साह से करते हैं। मुख्य रूप से यह पर्व छह दिनों तक मनाया जाता है।
इसी तरह सनातन हिन्दू परंपरा के कई ग्रन्थ वैदिक काल से लेकर भारत के ऐतिहासिक मूल्यों को परिभाषित करने वाले दो सबसे महान ग्रंथ रामायण और महाभारत तक में वनवासी समुदाय के ऐतिहासिक पात्र अपनी भूमिका, प्रभाव और व्यक्तित्व के कारण विशिष्ट रूप में उभरते हैं। रामायण में महर्षि वाल्मीकि वनवासियों की मौजूदगी का उल्लेख करते हैं यथा गुह्य, निषाद राजा थे, जिन्होंने राम, लक्ष्मण और सीता को गंगा पार काराने के लिए नावों और मल्लाहों की व्यवस्था की थी। लेखक ए.के. चतुर्वेदी ने अपनी किताब ‘ट्राइबल्स इन इंडियन इंग्लिश नोवेल’ में लिखा है, “गुह्य यानी निषादराज गंगा के किनारे रहने वाले जनजातीय लोगों के मुखिया थे, प्रभावी व्यक्ति थे और वे राम का स्वागत करने वाले पहले व्यक्ति थे। प्रभु श्रीराम का स्वागत करने के बाद गुह्य उन्हें उत्तम किस्म का भात और कई मिठाइयाँ परोसते हैं, इसके बाद वे राम के आगे दंडवत लेट जाते हैं और राम उन्हें उठाकर गले लगा लेते हैं।”
रामायण की लोकप्रिय वनवासी पात्र माँ सबरी हैं, मुनि मतंग की देखभाल करने वाली माँ शबरी अरण्यकांड में सामने आती हैं, इनका वर्णन महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण महाकाव्य के तीसरे खंड में है, 12वीं शताब्दी में महर्षि कंब द्वारा लिखित तमिल रामायण ‘रामावतारम’ में भी माँ सबरी के द्वारा राम-लक्ष्मण के स्वागत का उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण तो वनवासी-खंड के गौरव का महाकाव्य ही है। श्रीराम और वनवासियों का परस्पर प्रेम और आत्मीयता तथा श्रीराम का सहायक बनने का उनका उत्साह इस रामायण में सुंदर ढंग से चित्रित हुआ है। राम ने उन्हीं से अपनी सेना बनाई और सुग्रीव को सेनापति बनाया। भगवान राम ने अपने वनवास की अधिकांश अवधि वनवासी समुदायों के साथ बिताई जहां वे श्रीराम का स्नेह पाते रहे। उत्तर और दक्षिण को जोड़ने में भगवान राम के प्रयास का बड़ा योगदान रहा। हमारे महाकाव्यों में वनवासियों का जो वर्णन आता है, वह उनकी महत्ता व महिमा का द्योतक है।
जनजातीय समाज का बहुत ही गहरा संबंध प्रभु श्री राम से जुड़ता है। इसी लेख में हमने रामायण के जनजातीय समाज से जुड़े कुछेक पत्रों पर बात की थी, इसी तरह वर्तमान समय में भी ऐसे जुड़ाव के कई संकेत मिलते हैं। यथा जनजातीय गोंड समाज में एक ‘रामनामी समुदाय’ काफी चर्चा में रहता है। इस बारे में प्रोफेसर रामदास लैंब ने अपनी किताब ‘रैप्ट इन द नेम : रामनामीज, रामनाम’ में लिखा है, “गोण्डों में अपनी बाँह पर हनुमान जी की तस्वीर गुदवाने की एक परंपरा है, उनका मानना है कि इससे उन्हें अद्वितीय शक्ति का अनुभव होता है|”
रामायण में वर्णित वन्य जातियों के बारे में कई विद्वानों के अनुसार वानर का अर्थ बंदर नहीं है। यह शब्द बंदर का सूचक न होकर वनवासी का प्रतीक है। मुख्यत: दक्षिण भारत में निवास करने वाली यह मानव जाति बुद्धिसंपन्न और मानव भाषा बोलने वाली थी, जिसने माता सीता की खोज और रावण के सामने युद्ध में सर्वाधिक योगदान किया। एक समय था जब विभिन्न जातियों के झंडों पर पशु-पक्षियों आदि के चिन्ह अंकित रहते थे। जिस जाति के झंडे पर बंदर अंकित था, वह वानर जाति कहलाती थी। यह जनजाति वानर की पूजा करती थी। कई जनजातीय लोग गिद्ध और रीछ आदि की पूजा करते थे। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की जनजातियों में उन्हीं नामों के गोत्र आज भी प्रचलित हैं।
महाबली हनुमान जी का भी जनजातीय समाज से संबंध कई अर्थों में आता है। फादर कामिल बुल्के ने परमवीर हनुमान की माता अंजना की कथा के कई रूपों का उल्लेख किया है। एक व्यापक प्रचलित कथा के अनुसार माँ अंजना ने एक गुफा में हनुमान को जन्म दिया। यह गुफा कहाँ थी, इसकी कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। किंवदंतियों और पौराणिक कथाओं में भी अंतर है। झारखंड के जनजातीय बहुल गुमला जिले में एक बहुत पुराना गाँव है जिसका नाम ‘अंजना’ है, यह माना जाता है कि यहाँ हनुमान जी का जन्म हुआ, उनकी माता अंजना का भी जन्म इसी गांव में हुआ था। झारखंड का यह पश्चिमी-दक्षिणी भाग तथा छत्तीसगढ़ का पूर्वी भाग मिलकर रामायण में वर्णित दंडकारण्य क्षेत्र था। राँची डिस्ट्रिक्ट गजेटियर (1970) में भी इस बात का उल्लेख किया गया है कि इस स्थल को हनुमान जी का जन्मस्थल माना गया है।
बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह ‘आंजन गाँव’ आए थे और यहाँ हनुमान यज्ञ में उन्होंने सहभागिता भी की थी। प्राचीन काल से ही इस क्षेत्र में हनुमान जी की विशेष आराधना होती आ रही है।
इसी प्रकार महाभारत में जनजातीय पात्र का एक उदाहरण ‘एकलव्य’ का भी है तथा महाभारत में सबर और साओरा जो मुख्य रूप से ओडिशा के क्षेत्र से सम्बंधित जनजातियाँ हैं, का भी उल्लेख मिलता है।
हमारे कई मठ-मंदिरों की कई कहानियों में जनजातीय समाज के आख्यान हैं जैसे विश्व प्रसिद्ध ओडिशा का जगन्नाथपुरी मंदिर का इतिहास इस बात का साक्षी है कि भगवान जगन्नाथ की मूर्ति जनजातीय समाज के महान राजा विश्वासु भील को ही प्राप्त हुई थी जहां नीलगिरि की पहाड़ियों में भगवान जगन्नाथ की स्थापना की थी।
ऐसी कई उदाहरण प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिंध व्यक्ति को भी दिख सकते हैं लेकिन मतिभ्रष्ट विधर्मी यह मानने को तैयार ही नहीं होते। जनजातीय समाज के कई संभ्रांतजनों का कहना है कि ‘जनजातीय समाज’ में यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि हम हिंदू नहीं हैं। पिछले कुछ समय से ऐसे सुनियोजित अभियान चलाए जा रहे हैं कि कि जनजातियों को जनगणना में ‘हिंदू’ में शामिल न किया जाए। इस अभियान के पीछे ईसाई मिशनरियों का हाथ है। झारखंड के क्रांति नायक बिरसा मुंडा के नेतृत्व में ब्रिटिश शासनकाल में जो जनआंदोलन चला था, उसमें मतान्तरण कराने वाले विदेशी ईसाई मिशनरियों का सक्रिय विरोध भी शामिल था।
मानगढ़ धाम में हाल ही में एक रैली आयोजित की गई जिसमें कुछ मतिभ्रष्ट लोगों ने विधर्मियों के सहयोग से जनजातीय समाज को हिन्दू धर्म से अलग करने का प्रस्ताव दिया। उन्हें यह भी नहीं पता कि ‘मानगढ़ धाम’ की जिस पवित्र भूमि पर वे खड़े होकर यह षड़यंत्र कर रहे थे वह स्वयं में सिद्ध ‘जनजातीय हिन्दू आस्था’ का केंद्र है जिसका संबंध गोविन्द गुरु से है, वे बिना स्नान किए और बिना भगवान की आराधना किए भोजन नहीं करते थे। जिस घर में शराब, मांस और मादक वस्तुओं का प्रयोग होता, उनके घर में वे कभी अन्न-जल ग्रहण नहीं करते थे और वे अपने गले में रुद्राक्ष की माला पहनते थे। इसी कारण से लोग उन्हें भगतजी और भगत गोविन्द गुरु के नाम से सम्बोधित करते थे। गोविंद गुरु ने शैव मत की मान्यता के अनुसार हर जनजातीय बंधु से घर के बाहर एक धूणी (अग्नि कुंड) बनाने और एक ध्वज फहराने की अपील की। उन्होंने जनजातीय समाज के लोगों से बुरी आदतें छोड़ने, अपराधों से दूर रहने और अंधविश्वासों से मुक्ति पाने के लिए सदैव आग्रह किया।
गोविन्द गुरु के प्रयत्नों से स्थानीय जनजातीय समाज पूरी तरह से संगठित हो गया था। उनमें जागरण की नई लहर आ गई थी। वे दमन, शोषण और अत्याचार का मुकाबला करने के लिए हर तरह से तैयार हो रहे थे। जनजातीय समाज में उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी थी फलस्वरूप राजाओं के प्रति नाराजगी भी। कई स्थानों पर जनजातियों ने स्थानीय राजाओं की सेना से टकराव शुरू कर दिया। लगातार प्रताड़ित किए जाने से क्रुद्ध हजारों जनजातीय लोगों ने बांसवाड़ा और डूंगरपुर की सीमा पर स्थित मानगढ़ पहाड़ी पर गोविंद गुरु के नेतृत्व में डेरा जमा लिया।
स्थिति बिगड़ते देख राजाओं की शिकायत पर अंग्रेज अफसरों ने खेरवाड़ा स्थित छावनी के सैनिक अधिकारियों को यह आदेश दिया कि वे गोविन्द गुरु को फिर से गिरफ्तार करें और एकत्रित एवं संगठित भीलों को तितर-बितर कर दें। अंग्रेजों की सेना और स्थानीय राजाओं की सेना की सहायता के लिए अन्य स्थानों से मशीनगन और फौज मंगाई गई। 17 नवंबर 1913 को अकस्मात इन फौजी पलटनों ने मानगढ़ की पहाड़ी पर पहुंचकर अंधाधुंध गोलियों की बौछार शुरू कर दी, जहां गोविन्द गुरु की गिरफ़्तारी के विरोध में डेढ़ लाख से अधिक लोग एकत्रित हुए थे। छावनी के सैनिको ने मानगढ़ की पहाडी को चारों ओर से घेर लिया और अंधाधुंध गोलियां बरसाने लगे।
वैसे तो किसी भी हत्याकांड की तुलना दूसरे हत्याकांड से नहीं हो सकती किन्तु तथ्य है कि मानगढ़ पहाड़ी पर हुआ जनजातीय समाज का नरसंहार जलियांवाला बाग से कई गुना बड़ा नरसंहार था। यद्यपि राष्ट्रीय स्तर पर इस इतिहास से लोग अभी तक अनभिज्ञ हैं। यदि मानगढ़ का इतिहास हमारी स्मृतियों में न होता हम सभी कैसे जान पाते कि कैसे तत्कालीन हिन्दुओं के सबसे बड़े नेता स्वामी दयानन्द सरस्वती ने, बंजारा समुदाय के गोविन्द गुरु को अपना शिष्य बनाया और कैसे एक बंजारे को जनजातीय समाज ने अपना उन्हें अपना गुरु, अपना भगवान मान लिया।
जनजाति समुदायों के लोग अनादि काल से सनातन हिन्दू मान्यताओं और संस्कृति के आधार पर अपना जीवन व्यतीत करते आए हैं, वेद-पुराणों में अरण्यवासियों के आख्यान भरे पड़े हैं। इसलिए इन्हें सनातन धर्मावलंबी ‘हिन्दू’ कहना ही उचित है।
आज पूरे देश में जब सारा विश्व सनातन से प्रेरणा लेकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना को साथ लेकर आगे बढ़ रहा है ऐसे समय में भी कुछ विपरीतदर्शी लोग नकारात्मकता की अंतर्धारा प्रवाहित करने का लगातार प्रयास कर रहे हैं, जिसमें उन्हें कोई सफलता नहीं मिलने वाली चूँकि ‘धर्मो रक्षति रक्षतः’।
(सार्थक शुक्ला लेखक व समाजधर्मी हैं, कई विचारपरक पुस्तकों में लेखन व संपादन सहयोग किया। छात्र जीवन से ही सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय हैं । पूर्व में प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली से भी संबद्ध रहे। वर्तमान में विभिन्न सामाजिक संगठनों के दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं । मूलतः मैनपुरी( उ.प्र.) निवासी वर्तमान में दिल्ली में रहते हैं ।‘हिन्दी साहित्य’ के विद्यार्थी हैं ।)
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