धरती के स्वर्ग के रूप में लोकप्रिय भारत के बेहद खूबसूरत राज्य कश्मीर में समुद्रतल से 13,600 फुट की ऊँचाई पर अवस्थित अमरनाथ धाम देवाधिदेव शिव का ऐसा दिव्य धाम है जहाँ पावन गुफा में चंद्र कलाओं की गति से निर्मित होने वाला हिमलिंग भारत की सनातन हिन्दू आस्था का एक ऐसा चमत्कारी प्रमाण है जिसे शीश नवाने के लिये प्रतिवर्ष आषाढ़ पूर्णिमा से श्रावणी पूर्णिमा तक पूरे सावन महीने में लाखों हिन्दू धर्मावलम्बी यहां आते हैं। प्राकृतिक हिम से निर्मित होने के कारण इसे ‘स्वयंभू हिमानी शिवलिंग’ भी कहते हैं।
अमरनाथ धाम में रामकथा कहने वाले रामकथा व्यास शंकरदास जी बताते हैं कि इस गुफा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है और इसमें एक स्थान से ऊपर से टपकने वाले बर्फीले जल बिन्दुओं से लगभग दस फुट लंबा शिवलिंग बनता है। चन्द्रमा के आकार घटने-बढ़ने के साथ-साथ इस बर्फीले हिमलिंग का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है। श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावस्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है। बाबा बर्फानी के इस दिव्य धाम की सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि यह शिवलिंग ठोस बर्फ का बना होता है, जबकि गुफा में आमतौर पर कच्ची बर्फ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाती है।
ज्ञात हो कि हिन्दू धर्म ग्रंथों में अमरनाथ धाम को तीर्थों का तीर्थ कहा गया है क्योंकि इसी दिव्य धाम में भगवान शिव ने सर्वप्रथम माँ पार्वती को अमरत्व का रहस्य बताया था जिसे सुनकर गुफा में मौजूद शुक-शिशु शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गये। गुफा में आज भी श्रद्धालुओं को कबूतरों का एक जोड़ा दिखाई दे जाता है, जिन्हें अमर पक्षी बताया जाता है। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार काशी में दर्शन से दस गुना, प्रयाग से सौ गुना और नैमिषारण्य से हजार गुना पुण्य देने वाले श्री बाबा अमरनाथ के दर्शन हैं।
सबसे पहले भृगु ऋषि ने किये थे बाबा अमरनाथ के दर्शन
पौराणिक कथानक है कि आदि युग में एक बार कश्मीर की घाटी जलमग्न हो गयी थी। उसने एक बड़ी झील का रूप ले लिया था। तब धरती के प्राणियों की रक्षा के लिए ऋषि कश्यप ने इस जल को अनेक नदियों और छोटे-छोटे जलस्रोतों के द्वारा बहा दिया। उसी समय भृगु ऋषि पवित्र हिमालय पर्वत की यात्रा के दौरान वहां से गुजरे। तब जल स्तर कम होने पर हिमालय की पर्वत श्रृखंलाओं में सबसे पहले भृगु ऋषि ने अमरनाथ की पवित्र गुफा और बर्फानी शिवलिंग को देखा था। मान्यता है कि उनके बाद से ही यह स्थान शिव आराधना का प्रमुख देवस्थान बन गया। आज भी अनगिनत तीर्थयात्री अनेक कष्ट सह कर शिव के इस अद्भुत स्वरूप के दर्शन के लिए इस दुर्गम तीर्थ की यात्रा पर आते हैं और यहां आकर एक शाश्वत अध्यात्मिक शांति प्राप्त करते हैं।
धर्मग्रंथों बाबा अमरनाथ का उल्लेख
बताते चलें कि पांचवी शताब्दी में लिखे गये लिंग पुराण के 12वें अध्याय के 151वें श्लोक में भगवान शिव की स्तुति में ‘अमरेश्वर’ का उल्लेख किया गया है, धर्मशास्त्री इस अमरेश्वर को अमरनाथ बताते हैं। इसके अलावा 12 वीं शताब्दी में कल्हण द्वारा की लिखित ‘राजतरंगिनी’ में उल्लेख मिलता है कि कश्मीर के राजा सामदीमत शिव के भक्त थे और वे पहलगाम के वनों में स्थित बर्फ के शिवलिंग की पूजा करने जाते थे। बर्फ का शिवलिंग कश्मीर को छोड़कर विश्व में कहीं भी नहीं मिलता। ‘राजतरंगिणी’ के 267 में श्लोक में भगवान शिव के इस ज्योतिर्लिंग को अमरेश्वर बताया गया है। इन धर्मग्रंथों के अतिरिक्त बृंगेश संहिता और नीलमत पुराण आदि में भी अमरनाथ तीर्थ का उल्लेख मिलता है। बृंगेश संहिता में उल्लेख मिलता है कि तीर्थयात्रियों को अमरनाथ गुफा की ओर जाते समय जिन स्थानों पर धार्मिक अनुष्ठान करने पड़ते थे, उनमें अनंतनया (अनंतनाग), माच भवन (मट्टन), गणेशबल (गणेशपुर), मामलेश्वर (मामल), चंदनवाड़ी (2,811 मीटर), सुशरामनगर (शेषनाग, 3454 मीटर), पंचतरंगिनी (पंचतरणी, 3,845 मीटर) और अमरावती शामिल हैं।
अमरनाथ गुफा को लेकर मुसलमान गड़रिये की कहानी
समाज के कुछ लोगों का मत है कि अमरनाथ के शिवलिंग की खोज सबसे पहले बूटा मालिक नामक एक मुस्लिम गड़रिये ने 16वीं शताब्दी में की थी लेकिन यह मत बिल्कुल भी प्रमाणित नहीं है क्योंकि १६ वीं शताब्दी के दौरान बिना उचित मार्ग से इतनी ज्यादा ऊंचाई पर बिना अक्सीजन के चढ़ना कोई साधारण बात नहीं थी और वह भी कोई गड़रिया अपनी बकरियां चराने के लिए इतनी ऊंचाई पर क्यों ले जाएगा, यह भी सोचने वाली बात है। इस बात का उल्लेख लारेंस नाम के एक अंग्रेज लेखक द्वारा लिखी गयी पुस्तक ‘वैली आफ कश्मीर’ में भी उल्लेख मिलता है। लारेंस ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि है कि प्रारंभ में कश्मीरी ब्राह्मण अमरनाथ की तीर्थ यात्रा करने आये श्रद्धालुओं को अमरनाथ गुफा की यात्रा कराते थे लेकिन बाद में कुछ विशेष परिस्थिति में यह जिम्मेदारी बूटा मालिक नामक एक मुस्लिम गड़रिये ने संभाल ली थी। आज भी उसके वंशज गाइड बनकर यहां आने वाले तीर्थयात्रियों को अमरनाथ गुफा की यात्रा कराते हैं और आज भी अमरनाथ धाम एक चौथाई चढ़ावा इसी गड़रिये के वंशजों को मिलता है।
मध्ययुग में 300 सालों तक बंद रही थी अमरनाथ यात्रा
जम्मू-कश्मीर के राजस्थानी इतिहासकार बताते हैं कि पहले इस दुर्गम तीर्थ की यात्रा पर साधु-संत और सामाजिक दायित्वों से निवृत गृहस्थ लोग ही जाते थे, क्योंकि इस अत्यंत कठिन तीर्थयात्रा से वापस लौटना बेहद सौभाग्य की बात माना जाता था। 14वीं शताब्दी से लेकर लगभग 300 वर्षों तक विदेशी इस्लामी आक्रांता द्वारा लगातार कश्मीर पर आक्रमण करते जा रहे थे जिसके परिणाम स्वरूप इस अवधि में अमरनाथ की यात्रा बाधित रही। 18वीं शताब्दी में यह यात्रा फिर से शुरू हुई। हालांकि वर्ष 1991 से लेकर 1995 के बीच एक बार फिर से कुछ अरसे के लिए अमरनाथ यात्रा को स्थगित कर दिया गया था क्योंकि उस समय अमरनाथ यात्रियों पर आतंकी हमले की आशंका बहुत ज्यादा बढ़ गयी थी।
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