अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी का एक लोकप्रिय बयान है, ‘‘अमेरिका की सड़कें इसलिए अच्छी नहीं हैं कि अमेरिका अमीर है, बल्कि अमेरिका इसलिए अमीर है, क्योंकि यहां की सड़कें अच्छी हैं।’’ अर्थात् किसी देश की प्रगति इस बात पर निर्भर करती है कि वहां संचार-संपर्क कैसा है। इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का कार्यकाल मील का पत्थर रहा। देश के चारों कोनों को बेहतरीन सड़क नेटवर्क से जोड़ने वाली स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना की तरह मध्य एशिया व भारत के बीच निर्बाध व्यापार मार्ग सुनिश्चित करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण चाबहार बंदरगाह को विकसित करने की दूरगामी पहल भी वाजपेयी के कार्यकाल में ही हुई। इन दोनों परियोजनाओं में एक संयोग की तरह जुड़ते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। स्वर्णिम चतुर्भुज योजना की तरह चाबहार परियोजना को परवान चढ़ाने का रणनीतिक काम भी मोदी सरकार ही कर रही है।
वाजपेयी सरकार 2001 से ही ईरान के साथ रणनीतिक भागीदारी को अहमियत दे रही थी। उसी वर्ष वाजपेयी की ईरान यात्रा के दौरान दोनों देशों में सैद्धांतिक रूप से परस्पर संबंधों को नया स्वरूप देने पर सहमति बनी। इसी पहल का परिणाम था कि 2003 में जब ईरान के राष्ट्रपति भारत की यात्रा पर आए, तो दोनों देशों ने संयुक्त घोषणापत्र में संबंधों को रणनीतिक आयाम देने की इच्छा जताई। मध्य एशिया से रिश्तों को मजबूत करने के मामले में वाजपेयी ईरान को महत्वपूर्ण मानते थे और वह चाहते थे कि ईरान के साथ भारत के ऐतिहासिक संबंधों को बदली हुई परिस्थितियों में फिर से सजाया-संवारा जाए। वाजपेयी ने जिस तरह देश में सड़क नेटवर्क को विकास के लिए जरूरी माना, उसी सिद्धांत के अंतर्गत उन्होंने भारत और ईरान के बीच ऐसे मार्ग की कल्पना की जो मध्य एशिया तक निर्बाध व्यापार सुनिश्चित कर सके। चाबहार पर सहमति इसी सोच का परिणाम था।
चाबहार में दो अलग-अलग बंदरगाह हैं- शहीद कलंतरी बंदरगाह और शहीद बेहेश्ती बंदरगाह। शहीद कलंतरी का विकास 1980 में शुरू हुआ। भारत के साथ ईरान का मई 2024 में जो समझौता हुआ, वह शहीद बेहेस्ती बंदरगाह को लेकर है। इसमें अफगानिस्तान भी शामिल है। इस बंदरगाह को विकसित करने और 10 साल तक इसके संचालन को लेकर ईरान के मैरीटाइम आर्गनाईजेशन आफ ईरान और इंडिया पोर्ट्स ग्लोबल लिमिटेड (आईपीजीएल) के बीच समझौता हुआ। इसमें आईपीजीएल 12 करोड़ अमेरिकी डॉलर का निवेश करेगी। साथ ही, बंदरगाह के बुनियादी ढांचे से जुड़ी परस्पर सहमति वाली परियोजना के लिए भारत 25 करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण भी देगा।
लंबी बातचीत
चाबहार बंदरगाह के संचालन से जुड़ा आरंभिक समझौता 2016 में हुआ था। तब इसकी अवधि एक साल थी, जिसे बार-बार बढ़ाया जाता रहा। दोनों देशों ने यह व्यवस्था इसलिए की थी कि जब तक दीर्घकालिक समझौते की बाकी शर्तों पर सहमति नहीं बनती है, काम अटके नहीं। अंतिम समझौते पर लंबे समय तक तोल-मोल चलता रहा। जिन मुद्दों पर बात नहीं बन पा रही थी, उनमें एक था विवाद की स्थिति में उसका निपटारा कैसे होगा। समझौते के अनुच्छेद-11 के अनुसार, किसी विवाद में दोनों पक्षों के बीच आपसी बातचीत से नौ माह में हल नहीं निकलने पर मामला समन्वय परिषद के पास भेजा जाएगा, जिसमें भारत, ईरान व अफगानिस्तान के उपमंत्री या संबंधित मंत्रालय के सचिव या उनके कानूनी प्रतिनिधि होंगे। यदि परिषद विवाद सुलझाने में नाकाम रही तो एक साल बाद मामले का समाधान न्यायाधिकरण के माध्यम से किया जाएगा। मध्य एशिया और भारत के बीच निर्बाध व्यापार के नजरिये से शहीद बेहेश्ती बंदरगाह का संचालन 10 साल के लिए भारत के हाथ में आना रणनीतिक नजरिये से बहुत महत्वपूर्ण है और इसके कई आयाम हैं।
विशेष स्थिति
चाबहार की स्थिति इसे विशेष बनाती है। फारसी में ‘चाबहार’ का अर्थ होता है ‘चार बसंत’। यह ईरान का इकलौता बंदरगाह है, जो सिस्तान बलूचिस्तान प्रांत के गहरे समुद्र में है। काफी पहले से यह क्षेत्र मध्य एशिया जाने वालों के लिए लोकप्रिय मार्ग हुआ करता था। बार-बार भारत पर हमला करने वाले महमूद गजनवी के दरबारी कवि और केरल को ‘मालाबार’ कहने वाले अल बरूनी ने चाबहार को मध्य एशिया का प्रवेश द्वार कहा था। खुले समुद्र में स्थित चाबहार बड़े-बड़े जहाजों के लिए सुविधाजनक बंदरगाह है। यह होर्मुज जलडमरूमध्य के पास और ओमान की खाड़ी में स्थित है। भारत के सबसे बड़े बंदरगाहों में से एक गुजरात के कांडला स्थित दीनदयाल बंदरगाह से चाबहार की दूरी लगभग 550 समुद्री मील है। पिछले वर्ष पारादीप बंदरगाह के बाद ढुलाई के मामले में दीनदयाल बंदरगाह दूसरा सबसे बड़ा बंदरगाह रहा। चाबहार पाकिस्तान के कब्जे वाले बलूचिस्तान में मकरान तट पर सीपीईसी (चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा) के मुहाने पर स्थित ग्वादर बंदरगाह से मात्र 72 किलोमीटर दूर है।
भारत के लिए मायने
भारत के लिए आर्थिक दृष्टि से चाबहार बहुत सुविधाजनक है। इससे ईरान से तेल आयात पर लागत घटेगी और यूरोप व भारत के बीच व्यापार भी सस्ता हो जाएगा। केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय का आकलन है कि चाबहार और इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (आईएनएसटीसी) से व्यापार लागत में 30 प्रतिशत से अधिक की कमी आएगी। आईएनएसटीसी 7,200 किमी लंबा मल्टी-मोड ट्रांसपोर्ट नेटवर्क है। इसके जरिए भारत जहाज, रेल और सड़क मार्ग से ईरान, अजरबैजान, रूस होते हुए यूरोप तक पहुंच सकता है।
इसके लिए दो मार्गों पर 2014 में ही परीक्षण हो चुका है, जब मुंबई से ईरान के शहर बंदर अब्बास होते हुए अजरबैजान की राजधानी बाकू तक और मुंबई से बंदर अब्बास, तेहरान होते हुए रूस के अस्त्राखान शहर कार्गो भेजा गया। इस परीक्षण के दो उद्देश्य थे- पहला, इस मार्ग से ढुलाई सस्ते ढुलाई की पुष्टि करना और दूसरा मार्ग में पेश आने वाली परेशानियों का पता लगाना, ताकि बुनियादी ढांचा आदि विकसित करते समय उन दिक्कतों को दूर किया जा सके। परीक्षण के दौरान इस मार्ग से प्रति 15 टन कार्गो की ढुलाई पर 2.5 हजार डॉलर कम लागत आई। आईएनसीटीसी के पूरी तरह चालू हो जाने के बाद ढुलाई लागत तो कम होगी ही, स्वेज नहर होते हुए ढुलाई में लगने वाला समय भी करीब 40 प्रतिशत घट जाएगा।
हाशिए पर पाकिस्तान
कहते हैं कि जो वक्त के साथ नहीं चलता, उसका साथ वक्त भी छोड़ देता है। पाकिस्तान के साथ यही हुआ। अफगानिस्तान चारों ओर से जमीन से घिरा हुआ है। भारत से यदि कोई सामान अफगानिस्तान भेजना हो तो उसका स्वाभाविक सड़क मार्ग पाकिस्तान होकर जाता है, लेकिन यह रास्ता हमेशा से चुनौतीपूर्ण रहा है। यही कारण है कि आज जब व्यापार मार्ग निकालने की बात हुई तो ईरान, भारत व अफगानिस्तान ने मिलकर आगे बढ़ने का फैसला किया और इसके बड़े ही कूटनीतिक निहितार्थ हैं।
अमेरिका जब अफगानिस्तान से निकला, तो अचानक पाकिस्तान को लगा जैसे उसने आसमान के तारे तोड़ लिए हों, क्योंकि अफगानिस्तान की डोर पाकिस्तान समर्थक तालिबान के हाथ में थी। अफगानिस्तान को पाकिस्तानअपना अघोषित इलाका समझने लगा। इस कारण अफगानिस्तान में बुनियादी ढांचे और मानवीय मदद से जुड़े जो काम भारत दशकों से करता आया था, उनके बेकार हो जाने का खतरा मंडराने लगा। लेकिन जल्द ही अफगानिस्तान का भ्रम टूट गया। आज पाकिस्तान के साथ उसके रिश्ते इतने खराब हो चुके हैं कि दोनों देशों की सेनाएं कई बार टकरा चुकी हैं। अफगानिस्तान के मामले में पाकिस्तान ने जो बोया, वही उसे काटना पड़ रहा है- राजनीतिक उद्देश्यों के लिए आतंकवाद का इस्तेमाल करना। वहीं, अफगानिस्तान ने भारत के लिए अपने दरवाजे खोल रखे हैं और ईरान-भारत के साथ समझौते में शामिल होकर उसने बहुत-कुछ साफ भी कर दिया है।
वैसे, चाबहार समझौते का बड़ा फायदा अफगानिस्तान को होने जा रहा है। वहां भारत से सामान पहुंचाना तो आसान होगा ही, अंतरराष्ट्रीय व्यापार मार्ग में पड़ने के कारण उसे चुंगी वगैरह के जरिए भी फायदा होगा और धीरे-धीरे कूटनीतिक दृष्टि से भी उसे अपने लिए दुनिया में स्वीकार्यता बनाने में आसानी होगी। बेहेश्ती बंदरगाह को चार चरणों में विकसित किया जाना है और पूरी तरह विकसित हो जाने के बाद इसकी क्षमता प्रति वर्ष 8.2 करोड़ टन माल ढोने की हो जाएगी।
मोतियों की माला और हीरों की हार
भारत के चारों ओर चीन कई ठिकानों को विकसित कर रहा है। इनमें से कुछ तो घोषित तौर पर सैन्य अड्डे हैं, जबकि ज्यादातर व्यापारिक उद्देश्य के लिए हैं। लेकिन ‘ऋण देकर फांसने’ की चीन की रणनीति के तहत इन परियोजनाओं का भविष्य क्या हो सकता है और कैसे इनका सैन्य इस्तेमाल भी संभव है, इसका उदाहरण है श्रीलंका का हंबनटोटा बंदरगाह। श्रीलंका इसके ऋण की किस्त नहीं चुका सका और ‘बीच का रास्ता’ निकालने के लिए कई बैठकों के बाद आखिरकार इस बंदरगाह और इसके आसपास के औद्योगिक क्षेत्र को चीन ने 2017 में 99 साल की लीज पर ले लिया।
अगस्त 2022 में जब चीनी जासूसी जहाज ‘युआन वांग-5’ ने हंबनटोटा बंदरगाह पर लंगर डाला था, तब भारत ने श्रीलंका के समक्ष इस पर आपत्ति भी जताई थी। इसके बाद नवंबर में जब भारत लंबी दूरी की मिसाइल का परीक्षण करने वाला था, तो चीन ने अपना टोही जहाज ‘युआन वांग-6’ भेज दिया। इसके बाद भारत ने मिसाइल परीक्षण तो टाल दिया था, लेकिन दिसंबर में जब मिसाइल का परीक्षण किया गया, तो उस समय चीन का यह टोही जहाज फिर से हिन्द महासागर क्षेत्र में मंडराने लगा था।
चीन ने अपनी ‘मोतियों की माला’ (स्ट्रिंग आफ पर्ल्स) के एक-एक मोती को भारत के चारों ओर इस तरह से स्थापित कर रखा है कि जरूरत पड़ने पर इनका सैन्य इस्तेमाल किया जा सके। इसी कड़ी में एक और मोती है मकरान तट पर सीपीईसी (चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा) के अरब सागरीय मुहाने पर स्थित ग्वादर बंदरगाह। एक तो बलूचिस्तान में आजादी समर्थक गुरिल्ला लड़ाई के कारण ग्वादर सहित सीपीईसी से जुड़ी परियोजनाओं में काम कर रहे चीनी नागरिकों और पाकिस्तानी सुरक्षा बलों पर लगातार हो रहे हमले और दूसरे पाकिस्तान की खस्ता आर्थिक हालात बताते हैं कि हंबनटोटा की तरह यह पूरा इलाका भी एक दिन चीन के कब्जे में जा सकता है। तो ग्वादर के ‘मोती’ की काट होगी चाबहार के ‘हीरे’ से।
क्या प्रतिबंध लगाएगा अमेरिका?
चाबहार समझौते का महत्वपूर्ण सिरा अमेरिका से जुड़ता है। ईरान से अमेरिका के तल्ख रिश्तों का दौर 1979 में ईरान की क्रांति के समय से शुरू होता है। तब अपदस्थ शाह मोहम्मद रजा पहलवी द्वारा अमेरिका को समर्थन देने के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा था और उन्होंने तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर धावा बोलकर राजनयिकों समेत लोगों को बंधक बना लिया था। 50 से अधिक लोग एक साल तक बंधक रहे। आखिरकार जनवरी 1981 में दोनों देशों के बीच सुलह हुई। इधर ईरान ने बंधकों को छोड़ा, उधर अमेरिका ने ईरान से तेल की खरीद बढ़ा दी। लेकिन यह सुलह ज्यादा समय तक नहीं चल सकी।
1987 में अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के कार्यकाल के दौरान ईरान प्रतिबंध लगा दिया गया। प्रतिबंधों का सिलसिला मोटे तौर पर लगातार जारी रहा और इसकी वजह बनी ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षा और समय-समय पर अमेरिका विरोधी गतिविधियों को हवा देना। यह सिलसिला 2024 में इस मुकाम तक पहुंच चुका है कि अभी कुछ दिन पहले अमेरिका ने ईरान के रक्षा मंत्रालय, आर्म्ड फोर्सेज और इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स के लिए काम करने वाली लगभग 50 कंपनियों और व्यक्तियों को प्रतिबंधित कर दिया है, जिन्होंने वर्ष 2020 से अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली से अरबों डॉलर का इंतजाम करने में सफलता पाई थी। स्थिति यह है कि जब भारत ने ईरान के साथ चाबहार सौदा किया, तो अमेरिका ने धमकी दी कि भारत को इसके लिए प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है। सवाल उठता है कि क्या वाकई अमेरिका आगे भारत पर प्रतिबंध लगाएगा?
इसका जवाब है- संभवत: ना। इसकी कम से कम दो बड़ी वजहें हैं। एक, भारत के खिलाफ प्रतिबंधों का असर ‘किस पर’ होता है, इसका अंदाजा अमेरिका को परणामु परीक्षण के बाद ही हो गया था। दूसरा, पूरी दुनिया में अमेरिका के लिए चीन सबसे बड़ा खतरा है और चीन पर लगाम लगाने की किसी भी योजना की सफलता के लिए भारत का सहयोग जरूरी है। हाल-फिलहाल की कई कूटनीतिक घटनाएं भी इस ओर इशारा करती हैं कि अमेरिका अपनी चीन विरोधी लामबंदी में भारत की कहीं अधिक सक्रिय भूमिका की अपेक्षा रखता है। अंतरराष्ट्रीय कूटनीति मुख्य रूप से फायदेमंद विकल्प को चुनने की होती है और अमेरिका कतई नहीं चाहेगा कि भारत-ईरान के बीच चाबहार समझौता उसकी चीन-सापेक्ष रणनीति पर ही भारी पड़ जाए।
वाजपेयी की दूरदृष्टि
ईरान से संबंधों को हम 3 तरह से देख सकते हैं- सांस्कृतिक, व्यापारिक और रणनीतिक। ईरान के साथ भारत के सांस्कृतिक संबंध सदियों पुराने हैं, इस्लाम के वहां पैर जमाने से भी पुराने। रही बात व्यापारिक संबंध की, तो भारत-ईरान के साथ अफगानिस्तान व मध्य एशिया के अन्य देशों के बीच खरीद-बिक्री की अच्छी संभावनाएं हैं। भारत की दृष्टि से देखें तो अकेले भारत के उत्पादन क्षेत्र का आकार 600 अरब अमेरिकी डॉलर से भी बड़ा है। माल की आवाजाही सुगम होने पर इसमें अच्छी-खासी वृद्धि हो सकती है। इसका एक रणनीतिक आयाम भी है। वाजपेयी जब 2001 में ईरान के साथ संबंधों को नया आयाम देने की कल्पना कर रहे थे, तो उन्हें पता था कि आने वाले समय में यह एक बड़ा फैसला साबित होगा।
कहना मुश्किल है कि रणनीतिक समझ से ‘पैदल’ और अति-विश्वास की मारी पाकिस्तानी सेना ने 1999 में कारगिल युद्ध छेड़कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी न मारी होती, तो आज उस कंगाल मुल्क की हालत क्या होती। कारगिल के अनुभव के बाद ही वाजपेयी ने पाकिस्तान को दरकिनार करते हुए ईरान के रास्ते अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों तक रास्ता निकालने का विकल्प चुना। अन्यथा रूस और ईरान से पाकिस्तान होते हुए गैस पाइपलाइन बिछ गई होती और सड़क मार्ग से हो रहे व्यापार से इस्लामाबाद का भी भला हो जाता। बहरहाल, वापस लौटते हैं ईरान के साथ हुए चाबहार समझौते पर। नई दिल्ली में 2003 में दोनों देशों ने जिस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए, वह साफ बताता है कि ईरान और भारत केवल द्विपक्षीय संबंधों को नया आयाम देने के लिए नहीं, बल्कि एक ऐसे रणनीतिक गठजोड़ को ध्यान में रखकर आगे बढ़ने के लिए कमर कस रहे थे, जिसका असर मध्य एशिया से लेकर दुनियाभर पर पड़ने वाला था।
2003 के नई दिल्ली घोषणापत्र के कुछ प्रमुख बिंदु –
- एक अधिक स्थिर, सुरक्षित और संपन्न क्षेत्र के साथ-साथ बढ़े क्षेत्रीय और वैश्विक सहयोग को ध्यान में रखकर आगे बढ़ने वाली रणनीतिक भागीदारी।
- दोनों देशों में रणनीतिक दृष्टि के मामले में बढ़ती समझ-बूझ के साथ मजबूत आर्थिक और व्यापारिक रिश्तों के प्रति प्रतिबद्धता।
- शांति के लिए आतंकवाद सबसे बड़ा खतरा। आतंकवाद को सीधे तौर पर मदद करने वाले देशों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई के लिए अंतरराष्ट्रीय सहमति बनाने के प्रयास जरूरी।
- क्षेत्रीय शांति के लिए अफगानिस्तान का स्वतंत्र, एकजुट और संपन्न होना जरूरी।
- इराक की स्थिति को सुधारने के लिए भारत और ईरान मिलकर काम करें।
(स्पष्ट है, वाजपेयी जब ईरान की ओर कदम बढ़ा रहे थे, तो उनके सामने एक बड़ा रणनीतिक लक्ष्य था जो आज पूरा होता दिख रहा है।)
विदेश नीति का नया आधार
भारत की विदेश नीति प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समय शुरू की गई गुट-निरपेक्षता की नीति के मूल भाव से कुछ अलग राह पकड़ती दिख रही है। नेहरू का वह समय विश्व युद्ध के बाद का दौर था। उस समय दुनिया दो खेमों में बंटी हुई थी। उस दौर में भारत ने दोनों गुटों से ‘समान दूरी’ बनाकर चलने वाली रणनीति अपनाई, लेकिन अब यदि कहें कि भारत की विदेश नीति हर गुट से ‘समान नजदीकी’ बनाकर चलने की हो गई है, तो शायद गलत न हो। हां, कुछ देशों से अपने कुछ बेहतर तो कुछ देशों से कुछ बुरे रिश्ते हो सकते हैं। यह स्वाभाविक है।
‘समान दूरी’ से ‘समान नजदीकी’ की नीति अपनाने की ही ताकत है कि भारत अपने समयसिद्ध दोस्त रूस को यह कहने से नहीं चूकता कि अभी युद्ध का समय नहीं है। इस्राएल से घनिष्ठ संबंधों की स्वीकार करते हुए भी एक अलग देश के रूप में फिलिस्तीन के अस्तित्व की बात करता है। साथ ही, ईरान के साथ अपनी प्रतिबद्धता पर आगे बढ़ते हुए अमेरिका को संकेत देता है कि चीन के मामले में दोनों देशों की चिंताएं और रणनीतिक लक्ष्य में समानता और एकरूपता हो सकती है, लेकिन ईरान के साथ भारत के रिश्ते भी महत्वपूर्ण हैं। इसलिए चाबहार में केवल बंदरगाह का विकास नहीं हो रहा, बल्कि वहां रणनीतिक और कूटनीतिक इबारत भी लिखी जा रही है।
टिप्पणियाँ