शेर-ए पंजाब के नाम से प्रसिद्ध महाराजा रणजीत सिंह पहले ऐसे राजा थे, जिन्होंने न केवल पंजाब को एकजुट किया, बल्कि अपने जीते-जी अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के पास भी नहीं भटकने दिया। रणजीत सिंह सहस्राब्दी में पहले भारतीय थे जिन्होंने आक्रमण की लहर को भारत के पारंपरिक विजेताओं, पश्तूनों (अफ़गानों) की धरती में वापस मोड़ दिया। उनका राज्य उत्तर-पश्चिम में खैबर दर्रे से लेकर पूर्व में सतलुज नदी तक और भारतीय उपमहाद्वीप की उत्तरी सीमा पर कश्मीर क्षेत्र से लेकर दक्षिण में थार रेगिस्तान तक फैला हुआ था।
महाराजा रणजीत सिंह ने अफगानों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ीं और उन्हें पश्चिमी पंजाब की ओर खदेड़ते हुए पेशावर समेत पश्तून क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। यह पहला अवसर था जब पश्तूनों पर किसी ग़ैर-मुस्लिम ने राज किया। उसके बाद उन्होंने पेशावर, जम्मू कश्मीर और आनंदपुर पर भी अधिकार कर लिया। उन्होंने गुरुओं, सिख नेताओं की श्रद्धेय पंक्ति के नाम पर सिक्के चलवाए। एक साल बाद उन्होंने अमृतसर को अपने अधिकार क्षेत्र में लिया, जो उत्तर भारत का सबसे महत्वपूर्ण वाणिज्यिक केंद्र था। उनकी ताकतवर सेना ने अर्से तक ब्रिटेन को पंजाब हड़पने से रोके रखा।
एक ऐसा मौका भी आया जब पंजाब ही एकमात्र ऐसा सूबा था, जिस पर अंग्रेजों का कब्जा नहीं था। महाराजा रणजीत सिंह ने अपने राज्य में शिक्षा और कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने पंजाब में क़ानून एवं व्यवस्था क़ायम की और कभी भी किसी को मृत्युदण्ड नहीं दिया। उन्होंने जनता से वसूले जाने वाले जज़िया पर भी रोक लगाई। उन्होंने अमृतसर के हरिमन्दिर में संगमरमर और सोना मढ़वा कर पुनरुद्धार कराया। तभी से उसे स्वर्ण मंदिर कहा जाने लगा। मंदिरों को मनों सोना भेंट करने के लिए वे प्रसिद्ध थे। 1835 में महाराजा रणजीत सिंह ने काशी विश्वनाथ मंदिर के ऊपरी भाग पर सोने का स्वर्णपत्र जड़वाया।
महाराजा रणजीत सिंह के खजाने का बहुमूल्य हीरा कोहिनूर रौनक था। लगातार लड़ाइयां लड़ते उदार हृदय महाराजा रणजीतसिंह अस्वस्थ हो रहे थे। 1838 में लकवा से ग्रसित हो गए और बहुत उपचार करने के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। 27 जून 1839 को उनका निधन हो गया। उनकी समाधि लाहौर में बनवाई गई।
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