श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर
25 जून 1975 को ही इन्दिरा गांधी ने आपातकाल लागू कर दिया था। अगले 19 महीने अत्याचार, अनाचार और दहशत के दिन थे। आम आदमी भी सहमा हुआ रहता था। लगभग पूरा विपक्ष हवालात में था। प्रेस की आजादी समाप्त हो चुकी थी। न्यायपालिका से लेकर स्थानीय निकायों तक हर कोई हमेशा आशंकित रहता था। सत्ता के सूत्र प्रधानमन्त्री और दिल्ली में बैठी एक छोटी से चौकड़ी के हाथ में केंद्रित हो गए थे, जो दिल्ली में बैठ कर 60 करोड़ लोगों का भाग्य तय कर रहे थे।
आज जब इस घटना को 49 वर्ष हो गए हैं, तब यह प्रासंगिक होगा कि उस समय के घटनाक्रम को याद किया जाए। यह घटनाक्रम है एक अतिमहत्वाकांक्षी राजनेता की सत्ता लोलुपता का, एक साहसी न्यायाधीश की निर्भीक कर्तव्य निष्ठा का, एक बुद्धिमान वकील की अचूक तर्कशीलता का, एक इच्छाशक्ति विहीन कमजोर राष्ट्रपति का, और एक ऐसी संस्कृति की स्थापना का जिसमे सत्ताधीश, सत्ता के दुरुपयोग को अपना अधिकार मानने लगा था।
इस घटनाक्रम का प्रारम्भ होता है 1971 के लोकसभा के आम चुनाव से। इस चुनाव में श्रीमती इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के उनके धड़े यानी कांग्रेस (आई) की प्रचण्ड विजय हुई। उन्होंने चुनाव के दौरान गरीबी हटाओ का नारा बुलन्द कर गरीबों को उम्मीदें जगाई थी और हिन्दुस्तान की गरीब जनता ने उन्हें अपना वादा निभाने के लिए 352 सीटों का भारी भरकम बहुमत सौंप दिया था। वे स्वयं उत्तरप्रदेश के रायबरेली से विपक्षी प्रत्याशी राजनारायण को पराजित कर सांसद और प्रधानमंत्री बनी।
इन्ही राजनरायण ने श्रीमती गांधी पर चुनाव में धांधली के आरोप लगाते हुए न्यायालय में रायबरेली के चुनाव निरस्त करने की याचिका दायर कर दी। अपने वकील के रूप में उन्होंने उस समय के युवा और तेजतर्रार शान्ति भूषण को चुना। इन्दिरा जी पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने अपने चुनाव प्रचार में सरकारी तन्त्र का दुरुपयोग किया था। मामला इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा की अदालत में दाखिल था और शान्ति भूषण ने कुछ तकनीकी त्रुटियां पकड़ कर उस पर अपनी दलीलों का मीनार खड़ा किया। इस मामले के सन्दर्भ में इन्दिरा जी की न्यायालय में पेशी हुई और उन्हें न्यायालय में प्रस्तुत हो कर प्रश्नों के उत्तर देना पड़े। इन्दिरा जी पर मुख्यतः दो आरोप थे –
यशपाल कपूर, इन्दिरा जी के कार्यालय में एक राजपत्रित अधिकारी के रूप में कार्यरत थे। इन्दिरा जी ने उन्हे रायबरेली में अपना चुनाव प्रभारी नियुक्त कर दिया। यह राजनीतिक पद था और इसके लिए यशपाल ने अपने राजपत्रित अधिकारी के पद से त्यागपत्र दे दिया। परन्तु शान्ति भूषण ने यह सिद्ध कर दिया कि उनका त्यागपत्र स्वीकार होने की अधिसूचना जारी होने के पूर्व ही उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया जबकि तब तक तकनीकी रूप से वे सरकारी अधिकारी ही थे। अदालत ने यह माना कि इन्दिरा जी के स्तर पर यह अधिकारों का दुरुपयोग था।
प्रधानमंत्री की देश के विभिन्न भागों में होने वाली सभाओं आदि के दौरान मंच, लाउड स्पीकर्स और सुरक्षा सहित सभी व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी स्थानीय जिला प्रशासन की रहती है। इस संदर्भ में एक नियमावली बनी हुई थी। इस नियमवाली को ब्लू बुक के नाम से जाना जाता था। नेहरू जी के युग में इस नियमावली में दर्ज था कि प्रधानमन्त्री की ‘चुनावी सभाओं’ में मंच और सुरक्षा आदि के इंतजाम पूर्णतः ‘गैर सरकारी’ हो कर किसी भी प्रकार के सरकारी तन्त्र का इस हेतु उपयोग करना भ्रष्ट आचरण होगा। इस नियमावली में संशोधन कर चुनावी सभाओं की व्यवस्था भी स्थानीय प्रशासन पर डाल दी गई थी। शांति भूषण यह स्थापित करने में सफल हुए कि यह संशोधन श्रीमती गांधी द्वारा अनुमोदित था और इसलिए वे भी इस भ्रष्ट व्यवस्था के लिए उत्तरदाई थी।
इस सन्दर्भ में यह भी महत्वपूर्ण था कि इंदिराजी ने यह कब घोषित किया कि वे रायबरेली से चुनाव लड़ेंगी? चुनाव की उम्मीदवारी घोषित होने के बाद ही उन पर आचार संहिता लागू होना थी, जिसके अन्तर्गत सरकारी तन्त्र का उपयोग भ्रष्ट आचरण कहलाता। इस संदर्भ में श्रीमती गांधी ने अदालत में शपथ पर यह वक्तव्य दिया कि उन्होंने उनकी उम्मीदवारी की घोषणा 1,फरवरी 1971 को ही की थी जिस दिन उन्होंने रायबरेली से उनका नामांकन दाखिल किया था। शान्ति भूषण एक बार पुनः यह सिद्ध करने में सफल हुए कि वे इस दिनांक से काफी पहले ही अपनी उम्मीदवारी की घोषणा कर चुकी थी और यह भी की देश की प्रधानमन्त्री शपथ पर झूठ बोल रही थीं!
12 जून 1975 को उपरोक्त तथ्यों के आधार पर न्यायमूर्ति श्री जगमोहन लाल सिन्हा ने श्रीमती गांधी का चुनाव रद्द कर दिया और साथ ही उन पर अगले 6 वर्षों तक चुनाव लडने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। न्यायमूर्ति सिन्हा पर प्रचण्ड दबाव था परंतु वे अपने कर्तव्यवपथ से नहीं डिगे और न्याय के पक्ष में निडरता के साथ खड़े रहे। न्यायालय के इस ऐतिहासिक आदेश के पश्चात, श्रीमती गांधी से यह अपेक्षित था कि वे त्यागपत्र दे कर पदमुक्त हो जाएं।
परन्तु श्रीमती इन्दिरा गांधी ने त्यागपत्र नहीं दिया!
यहां से राजनीति का वह शर्मनाक खेल शुरू हुआ जिसे भारतीय प्रजातांत्रिक इतिहास का सबसे काला अध्याय कहा जाता है। सबसे पहले उच्च न्यायालय से आदेश पर स्थगन लिया गया। उसके बाद 25 जून को आपातकाल की घोषणा कर दी गई। राष्ट्रपति फकरुद्दीन अली अहमद ने बिना किसी आपत्ति के आपातकाल लगाने के दस्तावेजों पर अपने हस्ताक्षर अंकित कर दिए। विपक्ष के तमाम नेता रातों रात जेल में ठूंस दिए गए। इनमें जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल जी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडिस, जैसे शीर्ष नेता भी शामिल थे। समाचार पत्रों और सभी प्रकार के लेखन पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिए गए। अब वही छप सकता था जो सरकार चाहेगी।
विपक्ष से रहित संसद में कईं प्रस्ताव पारित किए गए जिनमें संविधान संशोधन भी शामिल थे। उन सारे नियमों को बदल दिया गया जिनके आधार पर न्यायालय ने श्रीमती गांधी का चुनाव रद्द कर उनके चुनाव लडने पर भी रोक लगा दी थी। यह बदलाव भी भूतकाल के दिनांक से किया गया था ताकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को बदला जा सके। जिन श्रीमती इन्दिरा गांधी को अपने पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए था, वे ही देश की सर्वेसर्वा तानाशाह बन गईं। अगले 19 महीनों तक इस देश में सरकारी तन्त्र ने जो कहर बरपाया वह न भूतो न भविष्यति है। बिना कोई कारण बताए, किसी को भी गिरफ्तार किया जा रहा था। उन 19 महीनों में जितने लोग जेलों में ठूंस दिए गए, उतने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अंग्रेजों ने भी गिरफ्तार नहीं किए थे! सरकार के विरोध में एक शब्द भी बोलना मुश्किल हो गया था। बसों, ट्रेनों और सार्वजनिक स्थलों से लेकर घर के दीवानखाने तक में राजनीतिक चर्चा होना ही बन्द हो गई। पूरा समाज सहमा हुआ था। समाचार पत्रों आदि के गले दबा दिए गए थे। वे उतना ही कह सकते थे जितने की अनुमति दी जाए।
देश ने यह देखा कि कैसे सत्ता के लालच में इन्दिरा जी ने न्यायपालिका, संविधान और संसद सभी की गरिमा को खण्ड खण्ड कर दिया। उन्होंने सत्ता में बने रहने को सर्वोच्च प्राथमिकता दे कर नैतिक और राष्ट्रहित की राजनीति को परे धकेल दिया।
आज 25 जून को आपातकाल की घोषणा को 49 वर्ष गुजर चुके हैं। परन्तु आज भी वह घटना स्वतन्त्र भारत के इतिहास की सबसे डरावनी और दागदार राजनीतिक घटना के रूप में याद की जाती है। आज हम स्वतंत्रता के इतने आदि हो चुके है कि उसके महत्व को नजरंदाज कर देते हैं और अक्सर उसका दुरुपयोग भी करते हैं! ऐसे में यह याद करना प्रासंगिक है कि जब यह स्वतंत्रता छीन ली गई थी तब जीवन कितना कष्टप्रद, भयग्रस्त और विषाद ग्रस्त हो गया था।
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