आपातकाल कांग्रेस के दामन का वह कलंक है, जिसे वह कभी नहीं मिटा पाएगी। आपातकाल में इंदिरा सरकार ने आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम (मीसा) और भारत रक्षा अधिनियम (डीआरआई) को हथियार बनाया। इन कानूनों के तहत सरकार ने मनमाने ढंग से एक लाख से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर जेलों में डाल दिया था। उन्हें जेलों में तरह-तरह की यातनाएं दी गईं। इनमें सीपीआई को छोड़कर सभी विपक्षी दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे। ‘मीसा’ को वैसे तो 1971 में देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बनाया गया था, लेकिन सरकार ने इसका प्रयोग आपातकाल में अपने विरोधियों को दबाने में किया। तब देशभर में किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधि पर पाबंदी थी।
यह ऐसा कानून था, जिसमें सरकार बिना वारंट किसी को भी, कहीं से, कभी भी पकड़ कर जेल में डाल सकती थी। 1975 से 77 तक सरकार ने इसमें बार-बार संशोधन कर इसे और खतरनाक बना दिया। खुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इतनी ताकतवर हो गईं कि उन्होंने कानून प्रवर्तन एजेंसियों का जमकर दुरुपयोग किया। प्रशासन को जैसे खुली छूट दे गई थी। सारे नागरिक अधिकार छीन लिए गए थे। कोई भी उस दुर्दांत कानून को चुनौती नहीं दे सकता था। सरकार किसी भी समय संपत्ति की तलाशी ले सकती थी, उसे जब्त कर सकती थी और किसी को भी अनिश्चितकाल के लिए जेल में ठूंस सकती थी।
संविधान में 39वां संशोधन कर मीसा को 9वीं अनुसूची में रखा गया, जो किसी भी न्यायिक समीक्षा से पूरी तरह मुक्त था, भले ही सरकार मौलिक अधिकारों का उल्लंघन क्यों न करे। जो लोग गिरफ्तार कर लिए गए, कम से कम उनके परिवार सरकार के कोप से बच गए। लेकिन जो भूमिगत हो गए थे, उनके परिवारों को तरह-तरह से प्रताड़ित किया गया। जबरन लोगों की नसबंदी की गई। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो इस विवादित कानून को निरस्त कर दिया गया। इसके बाद 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम के जरिए मीसा को 9वीं अनुसूची से भी हटाया गया।
गिरफ्तारी की चिट्ठी
आपातकाल लगते ही संजय गांधी और इंदिरा गांधी के निजी सचिव आरके धवन ने रातोंरात कांग्रेस विरोधियों के नामों वाली चिट्ठी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भेजी और उन्हें गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। यह सूची संजय गांधी ने बनाई थी, जिसमें सबसे ऊपर जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई का नाम था। इसके अलावा अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, विजयाराजे सिंधिया, चरण सिंह, जॉर्ज फर्नांडिस, चंद्रशेखर, नरेंद्र मोदी सहित एक लाख से अधिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं को मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया। जयपुर की महारानी गायत्री देवी और ग्वालियर की महारानी राजमाता विजयाराजे सिंधिया तो पहले से ही इंदिरा गांधी के निशाने पर थीं। दोनों अपने-अपने क्षेत्र में लोकप्रिय थीं।
गायत्री देवी को तो पहले से ही परेशान किया जा रहा था। जयपुर राजघराने पर आयकर छापे मारे जा रहे थे। आपातकाल लगने के बाद दोनों को राजनीतिक विरोधी नहीं, बल्कि आर्थिक अपराधी के तौर पर गिरफ्तार किया गया था। जिस समय गायत्री देवी को गिरफ्तार किया गया, उस समय वे मुंबई में इलाज करा रही थीं। उनके साथ उनके बेटे कर्नल भवानी सिंह को भी गिरफ्तार किया गया था। दोनों को तिहाड़ जेल में रखा गया। भवानी सिंह को बाथरूम में, जबकि गायत्री देवी को ऐसे कमरे में रखा गया, जिसमें एक ही बिस्तर था। पंखा भी नहीं था। एक नल था, पर उसमें पानी नहीं आता था। उनकी कोठरी के बाहर एक नाला था, जिसमें कैदी टट्टी करते थे। इस कारण कमरे में बदबू भरी होती थी।
आपातकाल के खलनायक
रुखसाना सुल्तान आज की मशहूर अभिनेत्री सारा अली खान की नानी और अमृता सिंह की मां थीं। वह संजय गांधी की करीबी थीं। रुखसाना को न तो सामाजिक कार्य का अनुभव था और न ही वह डॉक्टर थीं। फिर भी संजय गांधी ने उन्हें नसबंदी जैसा महत्वपूर्ण काम सौंपा था। नसबंदी ब्रिगेड में रुखसाना का खौफ था। जामा मस्जिद इलाके़ में उन्होंने 6 शिविर लगाए, जिसमें जबरन लोगों की नसबंदी की गई। यहां तक कि 60 वर्ष के बुजुर्ग से लेक 18 वर्ष के नवयुवकों तक को नहीं बख्शा गया।
सिद्धार्थ शंकर रे: संवैधानिक मामलों के जानकार और बंगाल के मुख्यमंत्री रे ने इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की सलाह दी थी। उनके सुझाने के बाद ही आपातकाल लगाया गया और क्रियान्वित किया गया। यही नहीं आपातकाल की अधिसूचना को प्रारूप भी उन्होंने ही तैयार किया था।
संजय गांधी: इंदिरा गांधी के बड़े बेटे के 15 सूत्री कार्यक्रमों में एक नसबंदी कार्यक्रम भी था। इसके तहत परिवार नियोजन के नाम पर जबरन लोगों की नसबंदी कर दी गई। इंदिरा सरकार के समय और आपातकाल के दौरान हर छोटे बड़े फैसले में उनकी भूमिका थी।
विद्याचरण शुक्ल: विद्याचरण शुक्ल पहले रक्षा राज्य मंत्री थे। आपातकाल लगाने के बाद इंदिरा ने उन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्री बना दिया। प्रेस और सिनेमा पर सेंसरशिप उन्हीें के निर्देशानुसार लागू किए गए।
बंसीलाल : आपातकाल में जेल में बंद लोगों के साथ जो ज्यादतियां हुईं, उसमें हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे बंसीलाल की बड़ी भूमिका थी। बीके नेहरू अपनी आत्मकथा, ‘नाइस गाइज फिनिश सेकेंड’ में लिखते हैं कि बंसीलाल ने कहा था कि इंदिरा गांधी को प्रेसिडेंट फॉर लाइफ बना दीजिए। बाकी कुछ करने की जरूरत नहीं है।
नवीन चावला : दिल्ली के उपराज्यपाल किशन चंद के तत्कालीन सचिव नवीन चावला आपातकाल के दिनों में बेहद निर्मम अधिकारी बन गए थे। जब तिहाड़ जेल के अधीक्षक ने कहा कि उनके पास इतने सारे राजनीतिक कैदियों को रखने के लिए कोई जगह नहीं है, तो चावला ने उन्हें एस्बेस्टस की छतों वाली जेल की कोठरियों में रखने का निर्देश दिया।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचल दिया गया था। प्रेस पर पाबंदी लगा दी गई थी। अखबारों के कार्यालयों में सरकारी अधिकारी बैठा दिए गए थे। बिना सेंसर अधिकारी की अनुमति के अखबारों में कोई खबर नहीं छपती थी। राजनीतिक समाचारों पर तो पूरी तरह प्रतिबंध था। यहां तक कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल को हटाकर अपने चहेते विद्याचरण शुक्ल जो रक्षा राज्य मंत्री थे, उनको यह दायित्व दिया था।
हालांकि कुछ अखबारों ने झुकने से मना कर दिया और अपना विरोध जारी रखा। 26 जून, 1975 को आपातकाल लगाने का विरोध करते हुए इंडियन एक्सप्रेस ने संपादकीय खाली छोड़ दिया था। इस पर भी सरकार नाराज हो गई थी। सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने 28 जून को संपादकों की बैठक बुलाई और उन्हें चेतावनी दी कि संपादकीय को खाली छोड़ना भी अपराध माना जाएगा। टाइम्स आफ इंडिया ने सेंसरशिप को नजरअंदाज करते हुए एक मृत्यु लेख चलाया D.E.M O’Cracy beloved husband of T.Ruth,father of L.I.Bertie, brother of Faith, Hope and Justica expired on 26 June (सच्चाई के लोकतंत्र प्रिय पति, स्वतंत्रता के पिता, विश्वास, उम्मीद और न्याय के भाई की 26 जून को मृत्यु हो गई) सरकार ने तरह-तरह से ऐसे मीडिया घरानों को प्रताड़ित किया। उनकी बिजली काट दी गई। आपातकाल के दौरान प्रशासनिक लापरवाही से मोरेश्वर गर्दे की जेल में मृत्यु हो गई।
लगभग 3,800 अखबार जब्त किए गए, 290 संपादक नजरबंद और 7 विदेशी संवाददाताओं को भारत से बाहर भेज दिया गया। वहीं, खुशवंत सिंह जैसे 47 वरिष्ठ पत्रकारों ने आपातकाल को वैध ठहराया। इंदिरा सरकार ने अपने जिन विरोधियों को गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे पहुंचा, उन्होंने ही एकजुट होकर 1977 में इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया। इस तरह, 1977 में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। इसी दौरान इंदिरा गांधी ने संविधान में फेरबदल करते हुए अनुच्छेद-38, 39 और 40 के माध्यम से अदालतों का अधिकार छीन लिया था, जिसे बाद में जनता पार्टी की सरकार में फिर से बहाल किया गया।
आपातकाल में अगर किसी एक संगठन का सबसे अधिक दमन हुआ तो वह था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। आपातकाल में गिरफ्तार और प्रताड़ित होने वाले 90 प्रतिशत लोग किसी न किसी तरह से संघ से जुड़े थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे कई संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। वाराणसी के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ पर तब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का कब्जा था। पंडित मदन मोहन मालवीय ने रा.स्व. संघ. को लॉ कॉलेज के परिसर में दो कमरों का एक भवन कार्यालय के लिए दिया था, जिसे प्रशासन ने एक ही रात में बुलडोजर से ध्वस्त कर दिया।
आपातकाल के विरुद्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जन आंदोलन को सफल बनाने के लिए बहुत बड़ी भूमिका निभाई। 14 नवंबर, 1975 से 14 जनवरी, 1976 तक पूरे देश में हजारों स्थानों पर सत्याग्रह हुआ, जिसमें 1,54,860 सत्याग्रही शामिल हुए। इनमें 80,000 संघ के स्वयंसेवक थे। सत्याग्रह के दौरान संघ से जुड़े 44,963 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें से 35,310 स्वयंसेवक थे।
उड़ी थीं संविधान की धज्जियां
संघ न होता तो …
आपातकाल में रा.स्व. संघ व सर्वोदय के हजारों कार्यकतार्ओं को जेल में डाला गया। ये सारी घटनाएं 26 जून, 1975 को लागू आपात्काल के दौरान हुई-आज ये घटनाएं काल्पनिक प्रतीत हो सकती हैं, पर ये सत्य हैं।
अ. भा. विद्यार्थी परिषद से विद्यार्थी आन्दोलन की पहल हुई थी। मैं तब अभाविप का संगठन मंत्री था। मैं 11 जुलाई को दिल्ली पहुंचा। वहां से मैं कोहली जी के साथ राजकुमार भाटिया जी के यहां जाने के लिए निकला। पहले कोहली जी अंदर गए, काफी देर तक वह बाहर नहीं आए तो मैं भी अंदर गया। पुलिस ने हम दोनों को पकड़ लिया। तमाचे भी मारे। कोहली जी पहले से ही पुलिस की हिट लिस्ट में थे। हमें पांच दिन हिरासत में रखा। और सोमवार को अदालत ले गए। तब तक कोहली जी का मीसा का वारंट बनकर आ गया था। उन्हें सीधा मीसा बंदी वार्ड में भेज दिया। मुझे डी. आई. आर. के वार्ड में ले गए।
हम पर आरोप था कि हमने श्यामलाल कॉलेज के सामने छात्रों को भड़काकर इन्दिरा गांधी का तख्ता पलटने का आह्वान किया था। 11 जून, 1975 से 12 फरवरी, 1976 तक में जेल में ही रहा। जेल में रोज शाखा लगाना, बाद में उत्सव, बौद्धिक योजना, घोष प्रशिक्षण (बंसी) आदि सब होता था, मानो संघ का प्राथमिक वर्ग हो। इसके बाद सत्याग्रह के काम में तेजी लाने के लिए मैं भी जमानत पर बाहर आ गया। संघ तथा संघ से जुड़े संगठन तथा सबसे सक्रिय बनाए गए विद्यार्थी परिषद् मोर्चे का काम पूरे भारत में एक सूत्र रूप से चल रहा था। युवा शक्तियों को इस लोकतांत्रिक अभियान में जोड़ने में अभाविप सफल रही। इंदिरा गांधी चुनाव हारीं, कांग्रेस हारी, लोकतंत्र आया दूसरी आजादी की लड़ाई जीतने का महान कार्य पूरा हुआ।
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