विरोधाभासों की एक शृंखला उधर भी है, इधर भी। आधा छिपाने-आधा बताने की फितरत उधर भी है, इधर भी। संविधान के नाम पर संविधान की धज्जियां उड़ाने की कलाबाजी उधर भी है और इधर भी। संदर्भ है जम्मू-कश्मीर। अधिक्रांत कश्मीर के प्रति पाकिस्तान का रुख हो या भारत के पास रह गए आधे-अधूरे जम्मू-कश्मीर के प्रति कांग्रेस की दृष्टि, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू दिखते हैं।
‘उधर’ और ‘इधर’, दोनों तरफ की एक-एक हालिया घटना को लें। कुछ दिन पहले मुजफ्फराबाद में रहने वाले कश्मीरी कवि और पत्रकार अहमद फरहाद शाह जब ‘लापता’ हो गए, जैसा पाकिस्तान में खास तौर पर सेना के खिलाफ आवाज उठाने वालों के साथ अक्सर हो जाता है, तो इस्लामाबाद उच्च न्यायालय ने उनकी पत्नी की याचिका पर प्रशासन से फरहाद को खोजकर अदालत में पेश करने को कहा। अदालत की सख्ती के बाद शासन ने बताया कि चूंकि फरहाद शाह ‘विदेशी जमीन’ पर हैं, इसलिए उन्हें इस्लामाबाद उच्च न्यायालय में पेश नहीं किया जा सकता। इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि पाकिस्तान सरकार ने उच्च न्यायालय में दावा किया कि फरहाद मुजफ्फराबाद पुलिस की हिरासत में थे।
दूसरी घटना है रियासी की। 9 जून की शाम को शाम लगभग 6:15 बजे शिव खोड़ी से कटरा जा रही बस पर आतंकियों ने गोलियां चलाईं, जिससे चालक नियंत्रण खो बैठा और बस खाई में गिरी, जिसमें 9 श्रद्धालुओं की मौत हो गई। यह हमला उस समय हुआ, जब दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में नरेंद्र मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने का कार्यक्रम चल रहा था। हमले की ‘टाइमिंग’ बहुत कुछ कहती है। हमले के चंद घंटे के भीतर ही इसकी जिम्मेदारी लश्कर-ए-तैयबा के मुखौटा संगठन टीआरएफ (दि रेजिडेंट्स फ्रंट) ने ली। सुरक्षा एजेंसियों की आरंभिक जांच से पता चला है कि इस हमले को लश्कर के तीन आतंकियों ने अंजाम दिया। हमले पर देश के राष्ट्रपति ने क्रोध जताया तो प्रधानमंत्री ने दुख। कुल मिलाकर विभिन्न दलों के नेताओं ने इसकी कड़ी निंदा की। लेकिन कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक्स (ट्विटर) पर लिखा- ‘‘यह शर्मनाक घटना जम्मू-कश्मीर के चिंताजनक सुरक्षा हालात की असली तस्वीर है।’’ यहां ध्यान देने वाले शब्द हैं ‘असली तस्वीर’।
पीओजेके पर पाकिस्तान का दोहरा रुख
इस्लामाबाद उच्च न्यायालय में पहले तो पाकिस्तान सरकार ने यह कहकर पीछा छुड़ाने की कोशिश की कि वह फरहाद शाह का पता लगा रही है और जैसे ही कोई जानकारी मिलती है, वह अदालत को बताएगी। लेकिन जब अदालत ने बड़े-बड़ों को अदालत में तलब कर लिया तो उसने ‘तत्काल’ पता लगा लिया कि फरहाद कहां हैं। पाकिस्तान के पत्रकार हामिद मीर ने एक्स पर लिखा, ‘‘उन्होंने कवि को इस्लामाबाद से अगवा किया। उनमें यह मानने की नैतिक हिम्मत नहीं थी और इसीलिए उन्होंने दिखाया कि फरहाद को मुजफ्फराबाद से पकड़ा गया और साथ ही कह दिया कि चूंकि एजेके (जैसा पाकिस्तान उसे कहता है) विदेशी धरती है, जहां इस्लामाबाद उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र नहीं है। इसका मतलब आपने वहां जबरन कब्जा कर रखा है।’’
वैसे, पाकिस्तान ने इस्लामाबाद उच्च न्यायालय में जो कहा, वह पूरी तरह सच है। ऐसे कई मामले हैं, जब मुजफ्फराबाद स्थित पीओजेके के सर्वोच्च न्यायालय ने भी अधिकार-क्षेत्र की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है कि पाकिस्तान की किसी भी अदालत का कोई भी फैसला पीओजेके में लागू नहीं हो सकता, क्योंकि पाकिस्तान उनके लिए ‘विदेशी इलाका’ है। ऐसा ही एक फैसला 2018 का है। यासिर बशीर बनाम सबा यासिर मामले की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने की थी, जिसमें मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चौधरी मोहम्मद इब्राहिम जिया, जस्टिस राजा सईद अकरम खान और जस्टिस गुलाम मुस्तफा मुगल थे। मुजफ्फराबाद के यासिर बशीर और पेशावर की सबा यासिर की 2006 में शादी हुई। दोनों में नहीं बनी तो सबा ने 2010 में पेशावर के परिवार न्यायालय में शिकायत की। गुजारा भत्ता वगैरह को लेकर 2012 में उसके पक्ष में फैसला आया। उसके बाद सबा की अपील पर पेशावर की अदालत ने फैसले पर अमल के लिए मुजफ्फराबाद की अदालत को सिफारिश की। होते-होते मामला अंतत: सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, जहां अदालत ने साफ किया कि ‘विदेशी अदालतों’ का कोई भी फैसला कश्मीर में लागू नहीं हो सकता।
साफ है, कश्मीर के प्रति पाकिस्तान के रुख में विरोधाभास है। वह आधा बताता है और आधा छिपाता है। वह संयुक्त राष्ट्र के प्रावधानों के आधार पर कश्मीर के लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार की दुहाई तो देता है, लेकिन यह नहीं बताता कि उसकी पहली शर्त ही यह थी कि पाकिस्तान पीओजेके को खाली करेगा जो उसने कभी किया ही नहीं।
कांग्रेसियों का पाकिस्तान प्रेम
कुछ यही हाल ‘सेफ्टी वॉल्व’ पार्टी कांग्रेस के नेताओं का है। समय-समय पर इनका पाकिस्तान प्रेम छलक ही पड़ता है। उन्होंने खुद अपनी करनी से अपने चारों ओर सवालों का घेरा खड़ा कर रखा है। वापस लौटते हैं शिव खोड़ी हमले पर राहुल गांधी की टिप्पणी पर। वह इसे ‘जम्मू-कश्मीर के चिंताजनक सुरक्षा हालात की असली तस्वीर’ बताते हैं। क्या उन्हें नहीं दिखता कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 और 35-ए हटाए जाने के बाद वहां के हालात सुधरे हैं और अब ‘विवाद का केंद्र’ खिसक कर पाकिस्तान अधिक्रांत कश्मीर में चला गया है? क्या उन्हें नहीं दिखता कि जम्मू-कश्मीर के लोगों की जिंदगी बेहतर हुई है? क्या उन्हें हाल के लोकसभा चुनाव के दौरान लंबी लाइन में लगकर अपने मताधिकार का उपयोग करते कश्मीरी नहीं दिखे जो एक समय आतंकवादियों के डर से वोट डालने के लिए निकलना तो दूर, आतंकवादियों के जनाजे में शामिल होने और हमारी सेना पर पत्थरबाजी करने को मजबूर थे?
ऐसा कैसे हो सकता है कि जो सबको दिखता है, वह उन्हें नहीं दिखता हो? शायद उन्हें न दिखे, क्योंकि उन्होंने तो अनुच्छेद-370 हटाने को ‘संविधान का उल्लंघन’ बताया था और ऐलान किया था कि ‘राष्ट्रीय सुरक्षा पर इसके गंभीर परिणाम होंगे।’ पिछले पांच साल के दौरान आतंकवादी हमलों में भारी कमी आई है और आम जन-जीवन में अभूतपूर्व सुधार हुआ है। सबसे जरूरी बात, वहां के लोगों में भविष्य को लेकर उम्मीदें पैदा हुई हैं और वहां विकास गतिविधियां इस गति से हो रही हैं कि उन्हें देखकर अधिक्रांत कश्मीर के लोगों का धैर्य टूट रहा है और वहां भारत समर्थक नारे लग रहे हैं। लोग तिरंगा लहरा रहे हैं और खुलकर इस पर अफसोस जता रहे हैं कि काश, वे भी भारत का हिस्सा होते! क्या इससे पहले कभी अधिक्रांत कश्मीर में भारत समर्थक नारेबाजी देखी गई?
कश्मीर को लेकर पाकिस्तान और कांग्रेस, दोनों जिस तरह वास्तविकता को मानने से इनकार कर रहे हैं, उसके अपने-अपने कारण हैं। पाकिस्तान को जमीन खो देने का भय है और बांग्लादेश का घाव उसे टीसता रहता है। शायद वह अच्छी तरह जानता है कि उसके लिए जमीन खोने का खतरा केवल पीओजेके में नहीं है। बलूचिस्तान इस दौड़ में पहले से शामिल है और सिंध व खैबर पख्तूनख्वा भी बीच-बीच में बता देते हैं, कि वे भी कमर कस रहे हैं। यानी पाकिस्तान के लिए पीओजेके का मामला उसके अस्तित्व से जुड़ा विषय बन जाता है। दूसरी ओर, कांग्रेस कश्मीर की वास्तविकता को स्वीकार करने से हिचकती है, क्योंकि उसे भी अपनी राजनीतिक जमीन के खिसक जाने का भय है।
शायद उसे भी इस बात का खौफ सताता है कि कश्मीर में सियासी जमीन के खोने का ‘खामियाजा’ उसे देश के दूसरे पॉकेट में भी उठाना पड़ेगा। यासीन मलिक के लिए पीएमओ के पलक-पांवड़े बिछाने जैसे फैसलों की ताप से तभी बचा जा सकता है, जब साबित कर दिया जाए कि कश्मीर में शांति का रास्ता अलगाववादियों-आतंकवादियों को विश्वास में लेकर ही निकाला जा सकता है। इसके लिए जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 और 35-ए हटाने के फैसले को गलत बताना होगा, कश्मीर में आई शांति को नकारना होगा।
जिस तरह पाकिस्तान को अधिक्रांत कश्मीर में पनपते आक्रोश को फौजी ताकत से दबा देने का यकीन है, उसी तरह शायद कांग्रेस को भी यकीन है कि संविधान लहराकर वह राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर आधे-अधूरे तथ्यों के आधार पर राजनीतिक उल्लू सीधा कर सकती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस तरह के हथकंडे बेशक कभी-कभार थोड़े-बहुत वांछित परिणाम दे दें, लेकिन याद रखें कि जनता की सामूहिक चेतना लंबे समय तक भ्रम में नहीं रहती। यह बात उधर भी लागू होती है और उधर भी। ल्ल
क्या नेहरू कश्मीर को बचाने के लिए सेना भेजते?
प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की गलत नीतियों ने भारत के समक्ष हमेशा के लिए कुछ समस्याएं खड़ी कर दीं, उनमें से एक है कश्मीर। इससे जुड़े तथ्य समय-समय पर सामने आते रहे हैं कि कैसे शेख अब्दुल्ला के प्रति नेहरू का प्रेम कश्मीर के भाग्य निर्धारण में एक बड़ा कारक बना हुआ था। कैसे शेख अब्दुल्ला को ‘कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन शुरू करने के बाद गिरफ्तार कर मुकदमा चला और जब उन्हें तीन साल की सजा हुई तो नेहरू आपा खो बैठे। कैसे शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के विरुद्ध नेहरू जम्मू-कश्मीर में प्रवेश की कोशिश करते हुए 20 जून, 1946 को राज्य की सीमा पर नजरबंद कर लिए गए और उनके दबाव में 29 सितंबर, 1947 को अब्दुल्ला को रिहा किया गया। कैसे पाकिस्तानी हमलावरों के श्रीनगर की ओर बढ़ने पर महाराजा हरि सिंह हताश हो गए थे और कैसे भारत के साथ विलय-पत्र पर हस्ताक्षर के बाद भी उनकी आशाएं दम तोड़ने ही वाली थीं।
विलय-पत्र पर हरि सिंह के हस्ताक्षर के बाद मिनिस्ट्री आफ स्टेट्स के सचिव और गृहमंत्री सरदार पटेल के विश्वासपात्र वीपी मेनन वह पत्र लेकर दिल्ली आए। इस पर कैबिनेट बैठक में कश्मीर में सेना भेजने पर निर्णय होना था। वरिष्ठ पत्रकार प्रेम शंकर झा ने अपनी पुस्तक ‘कश्मीर 1947: राइवल वर्जन्स आफ हिस्ट्री’ में लिखा है- माउंटबेटन की अध्यक्षता में हुई उस बैठक में नेहरू, सरदार पटेल, सरदार बलदेव सिंह आदि के अलावा मानेक शॉ भी थे, जो तब सैन्य संचालन निदेशालय में तैनात थे। बाद में वह फील्ड मार्शल बने। मानेक शॉ से प्रेम शंकर झा की बातचीत 18 दिसंबर, 1994 को हुई थी, जिसमें उन्होंने बताया, ‘‘बैठक में माउंटबेटन को महाराजा हरि सिंह के हस्ताक्षर वाला विलय-पत्र सौंपा गया। उसके बाद उन्होंने पूछा- मानेक जी, वहां की सैन्य स्थिति कैसी है? मैंने उन्हें सारी स्थिति बताई और कहा कि यदि हम तत्काल अपनी सेना को हवाई मार्ग से नहीं भेजेंगे तो कश्मीर हमेशा के लिए हाथ से निकल जाएगा, क्योंकि सड़क मार्ग से वहां पहुंचने में कई दिन लग जाएंगे और जब कबायली हवाईअड्डे और श्रीनगर पर कब्जा कर लेंगे तो हम वहां हवाई मार्ग से भी सेना को नहीं भेज सकेंगे।
हवाईअड्डे पर सब कुछ तैयार है। तभी नेहरू संयुक्त राष्ट्र संघ, रूस, अफ्रीका वगैरह की बातें करने लगे और आखिर सरदार पटेल का धैर्य जाता रहा। उन्होंने कहा, ‘जवाहर डू यू वांट कश्मीर और डू यू वांट टू गिव इट अवे (जवाहर, आप कश्मीर चाहते हैं या इसे गंवा देना चाहते हैं)?’ इस पर उन्होंने (नेहरू) ने कहा, ‘आफ कोर्स, आई वांट कश्मीर (बिल्कुल, मैं कश्मीर चाहता हूं)।’’ पटेल ने कहा, ‘‘प्लीज गिव योर आर्डर्स।’’ लेकिन पटेल ने नेहरू के जवाब का इंतजार नहीं किया। वह मेरी ओर मुड़े और कहा, ‘यू हैव गॉट योर आर्डर्स (आपको आर्डर मिल गया)।’’ मानेक शॉ बताते हैं कि उसके तुरंत बाद वह बैठक से निकल गए और दिन में 11-12 बजे भारतीय जवानों को हवाई जहाज से कश्मीर भेजा जाने लगा।
तब नेहरू के मन में क्या चल रहा था? उन्होंने जिस तरह की भूमिका के साथ बात शुरू की थी, वह उसे किस तरह खत्म करने वाले थे? आखिर सरदार पटेल के मन में क्या आशंकाएं थीं कि उन्होंने नेहरू के कुछ बोलने के पहले ही अपने फैसले को बड़ी चतुराई के साथ उनके फैसले के तौर पर प्रस्तुत कर दिया और भारतीय सेना कश्मीर भेजी जा सकी। साफ है, हालात को देखते हुए पहले से ही हवाईअड्डे पर जरूरी तैयारी की जा चुकी थी जिससे हरि सिंह का पत्र मिलते ही सेना भेजी जा सके।
संसद का संकल्प, कश्मीर वापस लेंगे
प्रधानमंत्री नरसिंह राव के कार्यकाल के दौरान भारत की संसद ने पाकिस्तान और चीन के अवैध कब्जे से कश्मीर के बाकी हिस्से को मुक्त कराने का संकल्प लिया था। वैसे, इसमें तब विपक्ष में रही भाजपा और उसकी कमान संभाल रहे अटल बिहारी वाजपेयी की बड़ी भूमिका थी। 1990 के बाद के 2-3 वर्ष के दौरान पाकिस्तान अधिक्रांत कश्मीर को लेकर आक्रामक रणनीति रंग दिखाने लगी थी। यही वह समय था, जब बेनजीर भुट्टो ने मुजफ्फराबाद की एक जनसभा में भारत के खिलाफ आतंकी हमलों का सार्वजनिक तौर पर समर्थन किया था।
दूसरी ओर, नवाज शरीफ ने ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान’ के नारे को हवा दी। तब ये नारे मुजफ्फराबाद समेत पीओजेके के तमाम इलाकों में गूंजने लगे थे। इसका असर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हुआ और अमेरिका गाहे-बगाहे कश्मीर में ‘मानवाधिकारों’ के कथित हनन पर चिंता जताने लगा था। ऐसे में जरूरी था कि आधिकारिक तौर पर भारत ऐसा कदम उठाता, जो पाकिस्तान के नैरेटिव का मुकाबला कर सके।
इसी के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया और तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने समस्या की गंभीरता को समझा और 22 फरवरी, 1994 को लोकसभा में अध्यक्ष शिवराज पाटिल और राज्यसभा में सदन के सभापति उपराष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने इस आशय का प्रस्ताव पटल पर रखा, जिसमें कहा गया था कि अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर का पूरा इलाका भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा जिसे एक दिन वापस लिया जाएगा।
पीओजेके का क्षेत्रफल 13,297 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें हाल ही में पाकिस्तान विरोधी जबर्दस्त प्रदर्शन के लिए चर्चा में रहे मुजफ्फराबाद, मीरपुर और कोटली जैसे इलाके हैं। अधिक्रांत लद्दाख क्षेत्र में बहुमूल्य खनिजों से समृद्ध गिलगित बाल्टिस्तान है, जिसका इलाका लगभग 64,817 किलोमीटर है। इसके अलावा चीन के कब्जे में अधिक्रांत लद्दाख का 42,735 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र है।
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