भारत के दुश्मन लगातार देश को अस्थिर करने के प्रयासों में लगे हुए हैं। इसके लिए वे हर संभव प्रयास कर रहे हैं- झूठ बोलना, प्रपंच रचना, भावनाएं भड़काना, तकनीक के सहारे झूठे नैरेटिव गढ़ना। इस बार भी लोकसभा चुनाव में यह सब हुआ। भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करने की भरसक कोशिश की गई। इसके लिए डीफ फेक के माध्यम से झूठे वीडियो बनाकर प्रसारित किए गए, लोगों में भ्रम फैलाया गया। वामपंथी विचारधारा से प्रभावित विदेशी मीडिया संस्थानों ने जितना हो सका, उतना झूठा नैरेटिव फैलाने का प्रयास किया। लेख लिखे गए, लेकिन वे अपने मंसूबों में सफल नहीं हुए। जनता ने फिर भाजपा पर भरोसा जताया और भाजपा के नेतृत्व में तीसरी बार राजग की सरकार बनी।
पश्चिमी मीडिया में मोदी सरकार के विरुद्ध जो लेख लिखे गए, उसका अनुमान उनके शीर्षकों से लगाया जा सकता है। द गार्जियन ने लिखा, ‘भारत का चुनाव : असहमति को अवैध ठहरा कर जीत तय करना लोकतंत्र के लिए घातक है।’ ब्लूमबर्ग ने दावा किया कि प्रोग्रेसिव साउथ मोदी को खारिज कर रहा है। फाइनेंशियल टाइम्स ने लिखा, ‘लोकतंत्र की जननी की हालत अच्छी नहीं है।’ न्यूयॉर्क टाइम्स ने तो ‘मोदी का झूठ का मंदिर’ बताया, जबकि फ्रांस के प्रमुख अखबार ले मॉन्द ने लिखा, ‘भारत में केवल नाम का लोकतंत्र है।’
2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से वामपंथी लॉबी के कथित बुद्धिजीवी, पत्रकार एवं आंदोलनजीवी लगातार सक्रिय हैं। जेएनयू के प्रोफेसर आनंद रंगनाथन कहते हैं कि इस बार चुनाव को प्रभावित करने के जो प्रयास हुए, वह तो होने ही थे। इसमें आश्चर्य जैसा कुछ भी नहीं है, क्योंकि वामपंथी एक दशक से यही सब कर रहे हैं। एआई और तकनीक का इस्तेमाल किए बिना भी वे ऐसा करते आए हैं।
2014 में भाजपा की सरकार बनने के बाद पहला नैरेटिव गढ़ा गया कि ‘‘भारत में ईसाई खतरे में हैं। चर्च पर हमले किए जा रहे हैं।’‘ लगातार तीन महीने तक ऐसे झूठ फैलाकर भारत की छवि को धूमिल करने के प्रयास किए गए। जांच के बाद पता चला कि ऐसा कुछ नहीं है। प्रो. रंगनाथन कहते हैं, ‘‘इसके बाद मुस्लिम खतरे में हैं, फिर दलित खतरे में हैं। ऐसा नैरेटिव गढ़ने की पुरजोर कोशिश की गई। इन चुनावों में अमेरिकी अरबपति जॉर्ज सोरोस से फंड लेने की बात सामने आई है। यदि फंडिंग नहीं भी होती, तब भी इनकी विचारधारा तो ऐसी ही है। ये ऐसा करते रहते हैं। जब इन्हें बाहर से फंडिंग होती है, तो और तेजी से काम करते हैं।’’
बढ़ते भारत को मान रहे प्रतिस्पर्धी
प्रो. रंगनाथन कहते हैं, ‘‘न्यूज क्लिक मामले में देख ही सकते हैं कि भारत में भ्रामक खबरें फैलाने के लिए चीन कैसे काम कर रहा है। दरअसल विदेशी ताकतें पूरा जोर इसलिए लगा रही हैं, क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है। भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। जाहिर है, वे भारत को मजबूत होते नहीं देखना चाहते। इथोपिया या अन्य छोटे देशों के साथ कोई ऐसा नहीं करता, क्योंकि वैश्विक स्तर पर बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों को उनसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे भारत को अपने लिए संभावित खतरे के तौर पर देखते हैं। इसलिए वे हर स्तर पर भारत को अस्थिर करने का प्रयास करते हैं। पुरानी कहावत है कि यदि आपके दुश्मन हैं, तो इसका मतलब है आप शक्तिशाली हैं, क्योंकि कमजोर को दुश्मन कौन होगा। जो आपके सामने प्रतिस्पर्धी के तौर पर खड़ा हो सकता है आप उसकी ही चिंता करेंगे न।’’
जब लगभग सभी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन भारत की आलोचना कर रहे थे, तो नई दिल्ली स्थित विदेशी संवाददाता भी उसमें शामिल हो गए। आस्ट्रेलियन ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन की दक्षिण एशिया ब्यूरो प्रमुख अवनी डायस ने यह दावा करते हुए भारत छोड़ दिया कि उसे वीजा नहीं मिला और चुनाव कवरेज का मौका नहीं दिया गया। हालांकि ऐसा नहीं था, उसकी वीजा अवधि 18 अप्रैल, 2024 में को समाप्त हो गई थी। वीजा बढ़ाने के लिए उसने न तो फीस भरी थी और न अन्य औपचारिकताएं ही पूरी की थीं। बावजूद इसके अवनी ने भ्रामक बयान दिया। इसके बाद वह वापस लौटी तो द आस्ट्रेलिया टुडे ने एक रिपोर्ट में लिखा कि अवनी ने अपनी नई नौकरी और शादी के लिए भारत छोड़ा था।
जाहिर है अवनी झूठ बोल रही थी। उसका मकसद रिर्पोटिंग करना नहीं, बल्कि सरकार की छवि को बिगाड़ना था। इस घटना के तत्काल बाद 30 वामपंथी विदेशी पत्रकारों ने संयुक्त बयान जारी किया। इसमें उन्होंने कहा, ‘‘भारत में विदेशी पत्रकार, विदेशी नागरिक का दर्जा रखने वाले वीजा और पत्रकारिता परमिट पर बढ़ते प्रतिबंधों से जूझ रहे हैं।’’ दरअसल पश्चिमी मीडिया की ज्यादातर कोशिश यही रहती है कि वह भारत के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप पर फर्जी खबरें तैयार भारत की छवि को धूमिल कर सके।
लोकतंत्रिक व्यवस्था पर उठाए सवाल
भारत में लोकसभा चुनाव की घोषणा से पहले मार्च में राहुल गांधी लंदन गए थे। वहां कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में अपने भाषण में उन्होंने कहा था, ‘‘भारत में बोलने की आजादी नहीं है।’’ साथ ही, उन्होंने भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी सवाल उठाया था। आखिर चुनाव से ठीक पहले दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल उठाना किस तरह की मानसिकता है? भारतीय सेना और खुफिया एजेंसी रॉ में अधिकारी रहे कर्नल आर.एस.एन सिंह कहते हैं, ‘‘पूरी दुनिया चीन के बढ़ते साम्राज्यवादी रवैये से परेशान है। पर राहुल गांधी उसे अमनपंसद देश बताते हैं। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल उठाने से पहले राहुल गांधी को यह बताना चाहिए कि संप्रग के शासन के दौरान कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी आफ चाइना (सीपीसी) के बीच 7 अगस्त, 2008 को एक समझौता हुआ था। यह समझौता सोनिया गांधी के ओलंपिक उद्घाटन समारोह के लिए परिवार के साथ बीजिंग पहुंचने के तुरंत बाद हुआ था।
इस पर राहुल गांधी और सीपीपी में अंतरराष्ट्रीय मामलों के मंत्री वांग जिया रुई ने हस्ताक्षर किए थे, जिसमें तय हुआ था कि दोनों पार्टियां एमओयू के तहत क्षेत्रीय, द्विपक्षीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर एक-दूसरे से बात करेंगीं। यह समझौता क्या था? क्यों किया गया था? भारत के एक राजनीतिक दल को दूसरे देश के राजनीतिक दल से समझौता करने की जरूरत क्यों पड़ी? इस पर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं। इसके बावजूद आज तक उसे सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया?’’
कर्नल सिंह आगे कहते हैं, ‘‘भारतीय चुनाव को निश्चित तौर पर प्रभावित करने की कोशिश की गई। अमेरिकी अरबपति वामपंथी जॉर्ज सोरोस ने पहले ही खुलकर कहा था कि हम भारत में भाजपा को हटाने के लिए 100 अरब डॉलर खर्च करेंगे। इसे क्रियान्वित करने के लिए वामपंथी लॉबी जो भी तरीके इस्तेमाल कर सकती थी, वह सब अपनाए। इसके लिए विदेशों की कुछ एजेंसियों, मीडिया संस्थानों, अर्बन नक्सल, अलजजीरा जैसे चैनल क्षेत्र और परिवार केंद्रित राजनीतिक दलों को बढ़ावा दिया गया। इनके लिए राष्ट्र कोई मायने नहीं रखता है। इनके लिए परिवार ही सब कुछ होता है।’’
वस्तुत: भारत में चुनाव को प्रभावित करने के प्रयास बहुत पहले से चल रहे थे। राष्ट्र विरोधी ताकतें कतई नहीं चाहती थीं कि भाजपा फिर से सत्ता में आए। कर्नल सिंह कहते हैं, ‘‘भारत में अस्थिरता फैलाने के लिए लंबे समय से प्रयास किए जा रहे हैं। किसान आंदोलन इसी का हिस्सा था। खालिस्तानियों का सहारा लिया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना बनाने की भी साजिश की गई। खालिस्तानियों ने लालकिले पर हमला किया। योजनाबद्ध तरीके से भ्रम फैलाकर चुनावों को प्रभावित करने का प्रयास किया गया। इसकी शुरुआत जेएनयू में तभी से हो गई थी कि जब वहां ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारे लगाए गए थे। वह एक तरह से एक ‘ट्रायल बैलून’ था। यानी यह पता लगाने के लिए कि इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी। जो राष्ट्रीयता वाली सोच के लोग थे, वह इसको लेकर गुस्सा थे, लेकिन एक बहुत बड़ा तबका था, जिसने इनको समर्थन दिया। खुद राहुल गांधी भी वहां गए थे, कुछ ऐसे भी थे जो मौन रहकर समर्थन कर रहे थे। यह भी जॉर्ज सोरोस की योजना का ही हिस्सा था।’’ वह कहते हैं, ‘‘राहुल गांधी ने जो कथित भारत जोड़ो यात्रा की उसमें भी बार-बार कहा गया कि जातिगत जनगणना कराई जाएगी। लोगों को बरगलाया गया। चुनाव प्रभावित करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से चार राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल को चुना गया। यहां पर पहले से राष्ट्रविरोधी ताकतें सक्रिय हैं।
चीन द्वारा भारत में सरकार को अस्थिर करने की कोशिश का खुलासा पहले ही हो गया था, जब न्यूजक्लिक के संस्थापक प्रबीर पुरकायस्थ को गिरफ्तार किया गया था। चीन से इस वेबसाइट को संचालित किया जा रहा था। चीन से मिलने वाले पैसे के लेनदेन का खुलासा ईडी की जांच में हुआ था। पैसे की एवज में चीन समर्थित खबरें चलाई जा रही थीं। इससे पहले चीन ने 2014 में यूसी न्यूज शुरू किया था। बड़े पैमाने पर इसमें पत्रकारों की भर्तियां की गईं थी । हालांकि बाद में इसे बंद कर दिया गया।’’
कर्नल सिंह कहते हैं ‘‘पश्चिमी मीडिया और जॉर्ज सोरोस जैसे वामपंथी भारत के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। पश्चिमी मीडिया लगातार भारत के खिलाफ नकारात्मक एजेंडा चलाता रहता है। इनको सहयोग मिलता है, वामपंथी सोच रखने वाले देश विरोधी तत्वों से। दरअसल पश्चिम की यह लॉबी अभी भी भारत की आर्थिक प्रगति को स्वीकार नहीं कर पा रही है। इसलिए हर स्तर पर देश को अस्थिर करने के प्रयास किए जाते हैं। इस बार के चुनावों में भी योजनाबद्ध तरीके से ऐसा ही किया गया, लेकिन देश के लोगों ने भाजपा और राजग पर भरोसा दिखाया और इस साजिश को सफल नहीं होने दिया।’’
टिप्पणियाँ