देश की 18वीं लोकसभा के चुनाव प्रचार में कांग्रेस ने ओबीसी के बाद सबसे अधिक जोर दलित, वंचित व वनवासी समाज की चर्चा पर दिया। यह जताने का प्रयास किया कि वह इन वर्गों की सच्ची हितैषी है, जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है। इन वर्गों के हित की बात करने वाली कांग्रेस का पूरा इतिहास इनकी उपेक्षा और अपमान से भरा है। दलित समाज के सम्मान की बात तो दूर, कांग्रेस के मुख्यमंत्री दलित समाज के उपमुख्यमंत्री को नीचे बिठाते हैं और स्वयं स्टूल पर बैठते हैं। कांग्रेस नेता सैम पित्रोदा तो संविधान निर्माण का श्रेय बाबासाहेब आंबेडकर की बजाय नेहरू को देना चाहते हैं।
कांग्रेस दलित-वनवासी समुदाय से आने वालीं राष्ट्रपति तक का सम्मान नहीं करती। इतिहास गवाह है कि कांग्रेस ने बाबासाहेब को लोकसभा चुनाव में हराने के लिए पूरी ताकत लगा दी थी।
चुनाव में उतरा नकाब
इस बार चुनावी घमासान में कुछ राजनीतिक दलों का असली चेहरा सामने आया है। इसमें सबसे आगे है कांग्रेस। कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टीकरण पक्ष को तो सभी जानते थे, लेकिन इस चुनाव प्रचार में यह भी स्पष्ट हुआ कि सत्ता प्राप्त करने के लिए कांग्रेस आज भी अंग्रेजों की कुछ नीतियों पर चल रही है। इनमें एक नीति ‘फूट डालो और राज करो’ और दूसरी नीति दलितों, वंचितों व वनवासी समाज के अपमान और शोषण की है। कई बार बिंदुओं को अलग-अलग देखने से रेखा स्पष्ट नहीं दिखती, किंतु बिंदुओं को एक-दूसरे से मिलाने पर यह स्पष्ट दिखने लगती है।
कांग्रेस के दलितों, वंचितों और वनवासियों के हित चिंतन का सत्य यही है। कांग्रेस की नीतियों और कार्यशैली ने भारतीय समाज को समरस नहीं होने दिया। वह सदैव समाज में विभेद पैदा कर एक को दूसरे के विरुद्ध भड़काती रही है। इसका ताजा उदाहरण है दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की अंतरिम जमानत पर राहुल गांधी का बयान। राहुल ने अदालत पर निशाना साधते हुए कहा कि झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को इसलिए जमानत नहीं मिली, क्योंकि वे ‘आदिवासी’ हैं। उनका यह बयान अदालत की गरिमा को धूमिल करने वाला और विभिन्न वर्गों में वैमनस्य फैलाने वाला है।
स्वतंत्रता से पहले अंग्रेजों ने भी यही तरीका अपनाया था। वे कूटरचित तर्कों से भारतीय समाज में वैमनस्य फैलाते थे और उनका शोषण करते थे। स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस ने दलित, वंचित और वनवासी समूहों को अपना वोट बैंक तो बनाया, पर उनके हितों की चिंता करने की बजाय उनकी प्रतिभा, सम्मान और हितों के विपरीत काम किया। अतीत की कुछ घटनाएं यह स्पष्ट तौर पर बताती हैं कि कांग्रेस नेताओं के वक्तव्य में दलित कल्याण की जो बातें होती हैं, वह उनके आचरण में नहीं हैं। इसकी पुष्टि बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा लड़े गए पहले लोकसभा चुनाव से लेकर दलित समाज के रामनाथ कोविंद और वनवासी समाज की द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति पद के चुनाव एवं मुख्य सूचना आयुक्त पद पर दलित समाज के हीरालाल सांवरिया की नियुक्ति के लिए आयोजित बैठक तक में देखी जा सकती है।
कांग्रेस और उसके गठबंधन सहयोगियों ने, यह जानते हुए कि सदन में वे अल्पमत में हैं और रामनाथ कोविंद व द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति भवन पहुंचने का मार्ग सुगम है, उन्हें रोकने के लिए पूरी शक्ति लगाई और ऐसे उम्मीदवार उतारे जिससे मत-विभाजन की आशंका उत्पन्न हो। इसी मानसिकता की झलक हीरालाल सामरिया की मुख्य सूचना आयुक्त पद पर नियुक्ति के समय भी दिखी। स्वतंत्रता प्राप्ति के 77 वर्ष के बाद यह पहला अवसर था, जब दलित समाज के किसी व्यक्ति को इस पद के लिए चुना गया। इसकी पहल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी। आशा की जा रही थी कि यह निर्णय सर्वसम्मत होगा, क्योंकि उनके अतिरिक्त कोई दूसरा नाम सामने नहीं था। लेकिन कांग्रेस ने बैठक का बहिष्कार किया और मीडिया में बहिष्कार के जो कारण बताए, उससे भी इस सुखद अवसर का आनंद कम हुआ।
सबसे बड़ा रोड़ा कांग्रेस
दलित-वनवासी समुदाय के किसी भी व्यक्ति ने जब भी महत्वपूर्ण पदों पर पहुंचने का प्रयास किया, कांग्रेस ने उसका रास्ता रोका है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण मध्य प्रदेश का है। बात 1969 की है। मध्य प्रदेश में संविद सरकार में गोविंद नारायण सिंह पहले मुख्यमंत्री बने। उनके बाद संयुक्त विधायक दल ने वनवासी समुदाय के राजा नरेशचंद्र सिंह को मुख्यमंत्री बनाया, तो कांग्रेस ने जोड़-तोड़ कर दल-बदल कराया और उनकी सरकार गिरा दी। नरेशचंद्र सिंह मात्र 12 दिन मुख्यमंत्री रहे। इसके बाद श्यामा चरण शुक्ल के नेतृत्व में कांग्रेस सत्ता पर काबिज हो गई।
दूसरी घटना 1980 की है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला। अधिकांश विधायक चाहते थे कि वनवासी समुदाय के शिवभानु सोलंकी को मुख्यमंत्री बनाया जाए, लेकिन पार्टी नेतृत्व ने अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री बनाया। राष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्रता सेनानी बाबू जगजीवन राम के साथ भी ऐसा ही भेदभाव हुआ। लाल बहादुर शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए जगजीवन राम का नाम स्वाभाविक रूप से उभरा, क्योंकि वह ऐसे विरले सेनानी थे, जो स्वाधीनता संघर्ष के दौरान सभी धाराओं के नेताओं के संपर्क में थे।
गांधी जी के अहिंसक आंदोलन से जुड़ने से पहले वह नेताजी सुभाषचंद्र बोस और क्रांतिकारी समूहों के संपर्क में भी रहे। इसलिए कांग्रेस के अधिकांश नेताओं का झुकाव जगजीवन राम के पक्ष में था। लेकिन पार्टी ने इंदिरा गांधी को आगे कर दिया। भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान बाबू जगजीवन राम रक्षा मंत्री थे। इस युद्ध में भारत की सफलता में उनकी रणनीति भी महत्वपूर्ण रही। इसलिए युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इंदिरा गांधी के साथ जगजीवन राम की छवि भी उभरी। लेकिन कांग्रेस के भी कुछ लोग इसे हजम नहीं कर पाए। आपातकाल में उनके साथ जो व्यवहार हुआ, उससे जगजीवन राम इतने आहत हुए कि उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया।
राजनीतिक स्तर पर कांग्रेस ने कभी दलित-वनवासी समाज के किसी व्यक्ति को राष्ट्रपति बनने का अवसर नहीं दिया। जब भाजपा गठबंधन और प्रधानमंत्री मोदी की पहल पर रामनाथ कोविंद और द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया गया तो कांग्रेसियों ने उनके लिए अपमानजनक टिप्पणियां कीं। कांग्रेस नेता अजय कुमार ने कहा था, ‘‘द्रौपदी मुर्मू ‘देश की एक बुरी विचारधारा’ का प्रतिनिधत्व करती हैं, उन्हें आदिवासियों का प्रतीक नहीं बनाना चाहिए।’’ इसी प्रकार, कांग्रेस नेता उदितराज ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद तथा वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के लिए अभद्र भाषा प्रयोग की थी। लेकिन कांग्रेस ने न तो अपने दोनों नेताओं के विरुद्ध कोई कार्रवाई की और न ही उनके बयानों पर खेद व्यक्त किया। इसके विपरीत उदित राज को पुरस्कार स्वरूप दिल्ली से लोकसभा चुनाव में उतार दिया। इससे यह धारणा प्रबल होती है कि नेताओं ने जो बयान दिए, उसमें कांग्रेस की मूक सहमति थी।
राहुल के बयान से सोच उजागर
चुनाव के दौरान एक ओर कांग्रेस दलित और वनवासी समुदाय के हित में बड़े-बड़े दावे कर रही थी, दूसरी ओर तेलंगाना में, जहां पार्टी की सरकार है, पार्टी नेताओं की मानसिकता उजागर करने वाला एक वीडियो वायरल हुआ। दरअसल, 11 मार्च को कांग्रेस के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी अपने मंत्रिमंडल के साथ पूजन के लिए यदाद्री लक्ष्मी-नरसिंह स्वामी मंदिर गए। वहां अनुष्ठान के दौरान अगड़ी जाति के रेवंत रेड्डी, मंत्री के. वेंकट रेड्डी और उत्तम कुमार रेड्डी ऊंचे आसन पर बैठे, जबकि दलित समुदाय के उपमुख्यमंत्री मल्लू भट्टी विक्रमार्क व एक महिला मंत्री कोंडा सुरेखा को नीचे बैठाया गया।
वैसे तो कांग्रेस पर दलित विरोधी होने के आरोप शुरू से लगते रहे हैं। आरोप लगाने वालों में बाबासाहेब से लेकर मायावती तक, अनेक नेताओं के नाम शामिल हैं। लेकिन बीते दिनों राहुल गांधी के एक बयान में दलित विरोधी सोच और कार्यशैली की स्पष्ट झलक दिखी। लोकसभा चुनाव के छठे चरण के प्रचार के लिए राहुल पंचकुला में थे। वहां राहुल ने कहा, ‘‘मेरा जन्म सिस्टम के अंदर हुआ है, मैं अंदर से सिस्टम को जानता हूं। मैं कह रहा हूं कि यह सिस्टम निचली जातियों के खिलाफ है, हर स्तर पर भंयकर तरीके से खिलाफ है।’’
निस्संदेह राहुल गांधी का जन्म ‘सिस्टम’ के भीतर हुआ। उन्होंने आंख खोलते ही राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था देखी है। उन्होंने दादी इंदिरा गांधी, पिता राजीव गांधी, नरसिंहराव और मनमोहन सिंह के शासन पर अपनी मां सोनिया गांधी का नियंत्रण देखा और 1998 में यह भी देखा कि कैसे सीताराम केसरी को हटाकर उनकी मां कांग्रेस अध्यक्ष बनीं। ये सभी घटनाएं उनके सामने घटीं। इसके अतिरिक्त, उन्होंने घर में वे चर्चाएं भी सुनी होंगी, जो उनके पिता के नाना जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में हुई थीं। इन सब का प्रभाव उनके चेतन-अवचेतन मन पर पड़ा होगा, जिसकी झलक पंचकुला में उनके बयान में दिखी।
बाबासाहेब का सवाल
कांग्रेस की दलित विरोधी नीतियों पर बाबासाहेब की कई टिप्पणियां हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘व्हाट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स’ (कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिए क्या किया) में कांग्रेस की दलित नीति की कड़े शब्दों में आलोचना की है। उन्होंने कांग्रेस पर दलित हितैषी होने का ढोंग करने का भी आरोप लगाया है। बाबासाहेब पर राहुल गांधी के सलाहकार माने जाने वाले सैम पित्रोदा का एक वक्तव्य तो खासा चर्चित हुआ। पित्रोदा ने संविधान निर्माण में बाबा साहेब की भूमिका को नगण्य बताते हुए इसका श्रेय नेहरू को दिया था।
कांग्रेस या उसके नेताओं द्वारा बाबासाहेब के अपमान की यह पहली घटना नहीं है। 1952 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस नेताओं ने बाबासाहेब आंबेडकर पर जो टिप्पणियां की थीं, वे उस समय समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुई थीं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1952 में पहला लोकसभा चुनाव हुआ। इसमें बाबा साहेब बम्बई उत्तर से चुनाव लड़ रहे थे। कांग्रेस ने बाबासाहेब के पूर्व सहायक रहे नारायण काजोलकर को ही उनके विरुद्ध चुनाव में उतार दिया और डॉ. आंबेडकर को हराने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी। नतीजा, बाबासाहेब चुनाव हार गए। 1954 में बाबासाहेब दूसरी बार भंडारा से उपचुनाव लड़े, तब भी कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार उतारा। इस बार भी बाबासाहेब हार गए।
हालांकि स्वतंत्रता के बाद 1947 में गठित पहले सर्वदलीय मंत्रिमंडल में बाबासाहेब को कानून एवं न्याय मंत्री का दायित्व मिला था। लेकिन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की कश्मीर नीति, मुस्लिम पर्सनल लॉ, हिंदू कोड बिल आदि पर मतभेद के बाद 1951 में बाबासाहेब ने त्यागपत्र दे दिया और जन जागरण अभियान प्रारंभ किया। तब उन्होंने खुल कर कांग्रेस पर दलित विरोधी होने के आरोप लगाए थे। भारत की प्रगति के लिए बाबा साहेब समाज से जाति व्यवस्था समाप्त करने के पक्षधर थे। हालांकि वे ‘वर्गगत’ आरक्षण तो चाहते थे, लेकिन ‘जाति आधारित’ आरक्षण के पक्ष में नहीं थे। इसलिए दलितों-वंचितों के मुद्दे पर कांग्रेस चाहे जो कहे, उसका आचरण बिल्कुल विपरीत होता है। यह है कांग्रेस की कथनी और करनी में अंतर का सार।
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