लोकसभा चुनाव-2024 के पहले दो चरणों में हुए कम मतदान ने ‘अनिवार्य मतदान’ संबंधी प्रस्ताव को एकबार फिर बहस का विषय बना दिया। हालांकि, चुनाव आयोग द्वारा थोड़े विलंब से जारी किए गए इन दोनों चरणों के अंतिम आंकड़ों और बाद के चरणों के मतदान प्रतिशत ने इस चिंता को कम कर दिया। वर्तमान चुनाव और लोकसभा चुनाव-2019 और 2014 के मतदान सम्बन्धी आंकड़ों में अब कोई उल्लेखनीय अंतराल नहीं है। दो चरणों के बाद मतदान प्रतिशत बढ़ाने में भारत के चुनाव आयोग द्वारा चलाये गए जागरूकता अभियान, प्रधानमंत्री मोदी द्वारा बार-बार की गयी अपील और राष्ट्रीय सेवा योजना, राष्ट्रीय कैडेट कोर आदि सरकारी-गैरसरकारी संस्थाओं, विविध छात्र संगठनों तथा समाज के प्रबुद्ध और जागरूक वर्ग द्वारा किये गए जनजागरण की उल्लेखनीय भूमिका है।
हालांकि, 65 प्रतिशत के आसपास मतदान कोई उत्साहजनक उपलब्धि भी नहीं है। 90-95 प्रतिशत मतदान लोकतंत्र की स्वीकार्यता, सशक्तता और गतिशीलता की आधारभूत शर्त है। भारतीय लोकतंत्र को इस लक्ष्य को पाने के लिए अभी काफी मेहनत-मशक्कत करने की आवश्यकता है। अधिकतम लोगों की सक्रिय और सुनिश्चित भागीदारी ही लोकतंत्र के लक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति का आधार है। यह भागीदारी ही लोकतंत्र की जड़ों को व्यापकता और गहराई देकर उसे मजबूती और स्थायित्व देती है। हमारे पड़ोसी देशों- चीन, पाकिस्तान,बांग्लादेश,अफगानिस्तान और नेपाल आदि में लोकतंत्र की दुर्दशा से हम अनभिज्ञ नहीं हैं। वहां जारी लोकतंत्र का क्षरण उसकी अपर्याप्तता, सीमितता और उसमें जनता की अनास्था का ही परिणाम है। भारत इस मामले में सौभाग्यशाली है कि यहां लोकतंत्र इन बुराइयों से बचा हुआ है। परंतु उसे और मजबूत बनाने के लिए मतदान प्रतिशत को 65 प्रतिशत से 90-95 प्रतिशत तक बढ़ाने की जरूरत है।
मतदान सबंधी इस लक्ष्य-प्राप्ति के लिए कुछ ‘थिंक टैंक’ पश्चिमी देशों का उदाहरण देते हए मतदान को अनिवार्य बनाने का सुझाव देते हैं। परन्तु उनके द्वारा प्रस्तावित मतदान की अनिवार्यता लोकतंत्र की मूलभावना के विरुद्ध है। यह भारत के संविधान में प्रदत्त स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का अतिक्रमण होगी। इसे नागरिक कर्तव्यों में अवश्य शामिल किया जा सकता है।
मतदान प्रतिशत बढ़ाने संबंधी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मतदान को अनिवार्य बनाने की जगह कम मतदान के कारणों को चिन्हित करने और उनका व्यावहारिक समाधान करना समीचीन है।
रोटी-रोजगार की खोज में अपने गांव-शहर से दूर किसी अन्य गांव -शहर में अस्थायी रूप से रहने वालों की संख्या भारत में बहुत अधिक है। कोरोना काल में पहली बार इस संख्या की अधिकता का अंदाजा लग पाया था। इसीप्रकार पढ़ाई के लिए लाखों छात्र-छात्राएं यूरोप-अमेरिका और लाखों कामकाजी लोग खाड़ी देशों और यूरोप-अमेरिका आदि में प्रवासी हैं। मतदान के लिए उनका अपने गांव-घर आगमन संभव नहीं हो पाता। उनकी अनुपस्थिति मतदान प्रतिशत को प्रभावित करती है।
मतदान को प्रभावित करने वाले कई प्रमुख कारणों में से एक मतदाताओं का देश-विदेश में प्रवासन है। यह प्रवासन देश के विभिन्न भागों में बहुत बड़ी संख्या में होता है। प्रवासन सरकारी-गैरसरकारी नौकरी, शिक्षा और रोजगार आदि के कारण होता है। उदारीकरण के बाद यह प्रक्रिया बहुत अधिक बढ़ी है।
इन प्रवासी मतदाताओं के लिए सेना की तरह अपने कार्यस्थल से मतदान का विकल्प दिया जाना चाहिए। सैन्य बल और अर्धसैनिक बल के रूप में कार्यरत लाखों भारतीयों को अपने कार्यस्थल (पोस्टिंग की जगह) से ही मतदान करने की सुविधा है। यह सुविधा सभी प्रवासी मतदाताओं को दिए जाने के विकल्प पर विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि वे कई दिन का समय और किराया-भाड़ा लगाकर मतदान के लिए अपने गांव-घर वापस नहीं जा पाते।
काफी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है जोकि मतदान के महत्व से अनभिज्ञ हैं। वे मानते हैं कि उनके मतदान करने न करने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसीप्रकार ऐसे लोगों की संख्या भी काफी अधिक है जो क्रमशः सिनिकल या यथास्थितिवादी हो गए हैं। उन्हें सभी राजनीतिक दल और नेता ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ या ‘एक ही थैली के चट्टे-बट्टे’ नज़र आते हैं। उन्हें सत्ता परिवर्तन से व्यवस्था परिवर्तन की कोई संभावना नज़र नहीं आती। उनके इस मनोभाव ने उनमें मतदान के प्रति अरुचि पैदा की है। यह दृष्टिकोण नकारात्मक है क्योंकि सभी दलों और नेताओं को एकसमान नहीं माना जा सकता है। लेकिन सभी नेताओं और राजनीतिक दलों को इस दृष्टिकोण के मद्देनजर आत्ममंथन अवश्य करना चाहिए।
आज लोकतंत्र अपराधियों, भ्रष्टाचारियों और धन-पशुओं की गिरफ्त में हांफ/कांप रहा है। प्रत्याशियों के चयन हेतु राजनीतिक दल सिर्फ और सिर्फ ‘जिताऊपन’ को पैमाना बनाते हैं। प्रत्याशी की योग्यता, आचार-व्यवहार, सामाजिक-राजनीतिक प्रतिबद्धता का कोई मूल्य-महत्व नहीं है। इसीलिए प्रत्येक राजनीतिक दल में दल-बदलुओं का वर्चस्व है। चुनाव दल-बदल की बाढ़ का मौसम है। ये दल-बदलू चुनाव जीतने के तंत्र और तकनीक को साधने में सिद्धहस्त हैं। इससे संवेदनशील और चिंतनशील मतदाताओं की काफी बड़ी संख्या मतदान को समय की बर्बादी या महत्वहीन मानने लगी है। इस मनःस्थिति से भी मतदान प्रतिशत कम होता है। राजनीतिक विमर्श और चुनाव प्रचार में प्रयुक्त भाषा-भंगिमा में भी क्रमशः गिरावट आ रही है। निजी आरोप-प्रत्यारोप और हवाई घोषणाएं भी मतदाताओं को मतदान विमुख करके चुनाव-प्रक्रिया के प्रति उदासीन बना देती हैं। ये बातें मनोरंजन के लिए तो ठीक हो सकती हैं, लेकिन लोकतांत्रिक व्यवहार / वातावरण के प्रतिकूल हैं।सभी राजनीतिक दलों को एक साथ बैठकर पारस्परिक संवाद करना चाहिए और चुनावी विमर्श के साथ-साथ अपनी भाषा-भंगिमा की भी ‘लक्ष्मण-रेखा’ तय करनी चाहिए। यह मर्यादा लोकतंत्र की परिपक्वता का प्रमाण होगी।
ऐसे लोगों की चिंता को ध्यान में रखते हुए ही ‘नोटा’ का प्रावधान किया गया है। अभी ‘नोटा’ अप्रभावी और अनुपयोगी है। उसे प्रभावी बनाये जाने की आवश्यकता है। यदि ‘नोटा’ को सबसे ज्यादा मत मिलते हैं तो संबंधित निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे सभी प्रत्याशियों को अगले पांच साल तक कोई चुनाव न लड़ने की अनिवार्य ‘कूल-इन’ अवधि होनी चाहिए। साथ ही, संबंधित राजनीतिक दलों को पाँच साल तक उस निर्वाचन क्षेत्र से प्रत्याशी खड़ा करने पर रोक लगनी चाहिए।
मौसम की मार से भी मतदान प्रभावित होता है। मई-जून की चिलचिलाती धूप ने इसबार मतदान प्रतिशत को कम किया है। विविधताओं वाले विशाल देश भारत में एकसाथ कई मौसम रहते हैं। इसलिए सबके लिए उपयुक्त एक मौसम चिह्नित करना बड़ा मुश्किल है। फिर भी दीपावली के एकदम आसपास का समय अधिकांश भारतीयों के लिए अनुकूल होगा। बड़ा त्योहार होने के कारण इस अवसर पर प्रवासी प्रायः अपने गाँव-घर आते ही हैं। कम चरणों में मतदान कराते हुए एक बड़ा चरण दीवावली के ठीक पहले और दूसरा बड़ा चरण दीपावली के ठीक बाद कराने से मतदान प्रतिशत में उछाल आने की पूरी संभावना है।
इसके अलावा सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों/संस्थानों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों-औद्योगिक इकाइयों, कॉरपोरेट्स आदि को मतदान करने वाले जागरूक नागरिकों के लिए विविध लाभ,छूटें और सहूलियतें प्रदान करनी चाहिए। निश्चय ही, ये योजनाएं नागरिकों को मतदान के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करेंगी। सरकारी कर्मचारियों को मतदान के लिए दिए जाने वाला अवकाश ऐसी ही एक प्रशंसनीय पहल है। इसे अन्य गैर-सरकारी प्रतिष्ठानों, संस्थाओं और संगठनों में भी अनिवार्यतः लागू किया जाना चाहिए। इसीप्रकार मॉलों, शॉपिंग सेंटरों, होटलों-रेस्त्राओं, सिनेमाघरों आदि में मतदान करने वाले नागरिकों को मतदान वाले दिन कुछ प्रतिशत छूट का प्रावधान करके भी लोगों को मतदान के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।
व्यापक सामाजिक प्रभाव वाले सेलेब्रिटीज़, सोशल मीडिया इंफ्लूएन्सरों, स्वयंसेवी संगठनों, शिक्षण संस्थानों को भी नागरिकों को मतदान के महत्व के प्रति जागरूक करते हुए उन्हें मतदान के लिए प्रेरित करना चाहिए। इन सबकी सक्रिय भूमिका और भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए चुनाव आयोग को व्यापक योजना बनानी चाहिए। पिछले दिनों केंद्र सरकार ने चुनाव सुधार की दिशा में निर्णायक पहल की है। सरकार ने मतदाता पहचान-पत्र को आधार कार्ड से जोड़ने, पंचायत/निकाय चुनावों और विधानसभा/लोकसभा चुनावों की मतदाता सूचियों को एक करने जैसे महत्वपूर्ण कार्य किये हैं।
मतदाता सूचियों को आधार कार्ड से जोड़ने से फ़र्जी मतदाताओं को चिह्नित करने और उनका नाम काटने का काम आसान हो गया है। भारत में अनेक व्यक्तियों का नाम जाने-अनजाने में एकाधिक जगहों पर मतदाता सूची में शामिल होता हैI एक मतदाता का नाम कई जगह होने से न सिर्फ ‘एक व्यक्ति एक मत’ के संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन होता है; बल्कि वास्तविक जनादेश का भी हरण हो जाता है। एक व्यक्ति का नाम एकाधिक मतदाता सूचियों में होने से मतदान का प्रतिशत भी कम हो जाता है। मतदाता पहचान-पत्र को आधार कार्ड से जोड़कर फर्जी मतदाताओं का उन्मूलन किया जा सकता है।
मतदाताओं के नाम के दुहराव और मतदाता सूचियों के दुहराव को रोकने के लिए किये गए प्रावधानों की तरह चुनाव-प्रक्रिया के दुहराव को रोकने की दिशा में भी काम किया जाना चाहिए। “एक देश, एक चुनाव” इस दुहराव का सही समाधान है। लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव एकसाथ कराकर श्रम, समय और संसाधनों की बड़ी भारी बचत की जा सकती है। बार-बार होने वाले मतदान की जगह पाँच साल में एकबार होने वाले मतदान के लिए लोग अतिरिक्त श्रम,समय और संसाधन लगाकर भी मतदान के लिए आगे आएंगे और उससे मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी होगी।
मतदान प्रतिशत बढ़ाने की दिशा में प्राथमिकता के आधार पर पहल करने की आवश्यकता है। मतदान लोकतांत्रिक प्रक्रिया का आधार है। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया में नागरिकों के दृढ़ विश्वास और गहरी आस्था का परिचायक है। इस भाव के अभाव में लोकतंत्र न तो सुरक्षित रह सकता है और न ही परिपक्व और विकसित हो सकता है। लोकतंत्र की मूल भावना अधिकतम लोगों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है। चुनाव विजेता यही करता है। कम मतदान से लोकतंत्र की यह मूल भावना प्रश्नांकित होती है।
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