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Exit Poll: कितनी हकीकत, कितना फसाना? दिलचस्प रहा है एग्जिट पोल का इतिहास

Published by
योगेश कुमार गोयल

देश में कोई भी आम चुनाव खत्म होने के तुरंत बाद लगभग सभी टीवी चैनल एग्जिट पोल का प्रसारण करते हैं, जिनमें अनुमान लगाया जाता है कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिलने की संभावना है और किसकी सरकार बनने जा रही है। विभिन्न सर्वे एजेंसियों द्वारा किए गए एग्जिट पोल्स के माध्यम से तमाम चैनलों द्वारा बढ़-चढ़कर दावे किए जाते हैं और डंके की चोट पर बताया जाता है कि इस बार विजय रथ पर कौन सवार होगा। एक्जिट पोल के जरिये पूरे जोश के साथ दावा किया जाता है कि कौनसा दल कहां से बाजी जीत रहा है और कौन कहां पीछे रहेगा, किस दल को कितनी सीटें मिलेंगी लेकिन कई बार इनमें से कई तमाम एग्जिट पोल जमीनी हकीकत से कोसों दूर नजर आते रहे हैं। पिछले कई चुनावों के दौरान एग्जिट पोल कई बार चुनावी नतीजों के बिल्कुल विपरीत रहे हैं। हालांकि कुछ चुनावों में कुछेक एग्जिट पोल के अनुमान काफी हद तक चुनाव परिणामों के करीब रहे थे लेकिन कम से कम भारत में तो एग्जिट पोल का इतिहास ज्यादा सटीक नहीं रहा है। अतीत में कई बार साबित हो चुका है कि एग्जिट पोल्स द्वारा लगाए गए अनुमान पूरी तरह गलत साबित हुए।

एग्जिट पोल का वैज्ञानिक आधार

अब सवाल यह है कि एग्जिट पोल बढ़-चढ़कर किए गए अपने दावों में कई बार क्यों इसी प्रकार पूरी तरह फेल साबित होते हैं? दरअसल एग्जिट पोल वास्तव में कुछ और नहीं बल्कि वोटर का केवल रूझान ही होता है, जिसके जरिये अनुमान लगाया जाता है कि नतीजों का झुकाव किस ओर हो सकता है। एग्जिट पोल के दावों का ज्यादा वैज्ञानिक आधार इसलिए भी नहीं माना जाता क्योंकि ये कुछ सौ या कुछ हजार हजार लोगों से बातचीत करके उसी के आधार पर ही तैयार किए जाते हैं और प्रायः इसीलिए इन्हें हकीकत से दूर माना जाता रहा है। एग्जिट पोल में प्रायः मीडिया से आ रही खबरों, चुनाव का इतिहास और हवा के रुख का घालमेल भी शामिल रहता है। जब कोई मतदाता अपना मत देकर मतदान केन्द्र से बाहर निकलता है तो एग्जिट पोल कराने वाली एजेंसियां उससे उसका रूझान पूछ लेती हैं। अधिकतर एग्जिट पोल परिणामों को प्रायः यह समझ लिया जाता है कि ये पूरी तरह सही ही होंगे किन्तु ऐसा समझकर लोग प्रायः यह भूल जाते हैं कि ये केवल अनुमानित आंकड़े ही होते हैं और कोई जरूरी नहीं कि मतदाता ने सर्वे करने वालों को सच्चाई ही बताई हो। दरअसल सर्वे के दौरान मतदाता बहुत बार इस बात का सही जवाब नहीं देते कि उन्होंने अपना वोट किस पार्टी या प्रत्याशी को दिया है। देश में चुनाव प्रायः विकास के नाम पर या फिर जाति-धर्म के आधार पर ही लड़े जाते रहे हैं और यदि बात विधानसभा चुनावों की हो तो चुनाव में बहुत से स्थानीय मुद्दे भी हावी रहते हैं, ऐसे में यह पता लगा पाना इतना आसान नहीं होता कि मतदाता ने अपना वोट किसे दिया है। दुनियाभर में अधिकांश लोग एग्जिट पोल को अब विश्वसनीय नहीं मानते और यही कारण है कि कई देशों में इन पर रोक लगाने की मांग होती रही है।

एग्जिट पोल से सटीक होते हैं पोस्ट पोल

मतदाताओं की राय जानने के लिए ‘ओपिनियन पोल’ और ‘पोस्ट पोल’ भी किए जाते हैं। एग्जिट पोल हालांकि ओपिनियन पोल का ही हिस्सा होते हैं किन्तु ये मूल रूप से ओपिनियन पोल से अलग होते हैं। ओपिनियन पोल में मतदान करने और न करने वाले सभी प्रकार के लोग शामिल हो सकते हैं। ओपिनियन पोल मतदान के पहले किया जाता है जबकि एग्जिट पोल चुनाव वाले दिन ही मतदान के तुरंत बाद किया जाता है। ओपिनियन पोल के परिणामों के लिए चुनावी दृष्टि से क्षेत्र के प्रमुख मुद्दों पर जनता की नब्ज टटोलने का प्रयास किया जाता है और क्षेत्रवार यह जानने की कोशिश की जाती है कि जनता किस बात से नाराज और किस बात से संतुष्ट है। इसी आधार पर ओपिनियन पोल में अनुमान लगाया जाता है कि जनता किस पार्टी या किस प्रत्याशी का चुनाव करने जा रही है। ओपिनियन पोल को ही ‘प्री-पोल’ भी कहा जाता है। पोस्ट पोल प्रायः मतदान की पूरी प्रक्रिया के समापन होने के अगले दिन या फिर एक-दो दिन बाद ही होते हैं, जिनके जरिये मतदाताओं की राय जानने के प्रयास किए जाते हैं और अक्सर माना जाता रहा है कि पोस्ट पोल के परिणाम एग्जिट पोल के परिणामों से ज्यादा सटीक होते हैं।

कब और कैसे शुरू हुआ चुनावी सर्वे का सिलसिला?

जहां तक चुनावी सर्वेक्षणों के इतिहास की बात है तो सबसे पहले अमेरिका में चुनावी सर्वे कराया गया था, जब अमेरिकी सरकार के कामकाज पर लोगों की राय जानने के लिए जॉर्ज गैलप और क्लॉड रोबिंसन ने इस विधा को अपनाया था, जिन्हें ओपिनियन पोल सर्वे का जनक माना जाता है। चुनाव उपरांत उन्होंने पाया कि उनके द्वारा एकत्रित किए गए सैंपल तथा चुनाव परिणामों में ज्यादा अंतर नहीं था। उनका यह तरीका काफी विख्यात हुआ। इससे प्रभावित होकर ब्रिटेन तथा फ्रांस ने भी इसे अपनाया और बहुत बड़े स्तर पर ब्रिटेन में 1937 जबकि फ्रांस में 1938 में ओपिनियन पोल सर्वे कराए गए। इन देशों में भी ओपिनियन पोल के नतीजे बिल्कुल सटीक साबित हुए थे। जर्मनी, डेनमार्क, बेल्जियम तथा आयरलैंड में जहां चुनाव पूर्व सर्वे करने की पूरी छूट दी गई है, वहीं चीन, दक्षिण कोरिया, मैक्सिको इत्यादि कुछ देशों में इसकी छूट तो है किन्तु कुछ शर्तों के साथ।

एग्जिट पोल को लेकर माना जाता है कि इनकी शुरुआत नीदरलैंड के समाजशास्त्री तथा पूर्व राजनेता मार्सेल वॉन डैम द्वारा की गई थी, जिन्होंने पहली बार 15 फरवरी 1967 को इसका इस्तेमाल किया था और उस समय नीदरलैंड में हुए चुनाव में उनका आकलन बिल्कुल सटीक रहा था। जहां तक भारत की बात है तो हमारे यहां 1960 में ही एग्जिट पोल अर्थात् चुनाव पूर्व सर्वे का खाका खींच दिया गया था। तब ‘सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) द्वारा इसे तैयार किया गया था। भारत में एग्जिट पोल की शुरुआत का श्रेय इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक ओपिनियन के प्रमुख एरिक डी कोस्टा को दिया जाता है, जिन्हें चुनाव के दौरान इस विधा द्वारा जनता के मिजाज को परखने वाला पहला व्यक्ति माना जाता है। चुनाव के दौरान इस प्रकार के सर्वे के माध्यम से जनता के रुख को जानने का काम सबसे पहले एरिक डी कोस्टा ने ही किया था। शुरुआत में देश में सबसे पहले इन्हें पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाशित किया गया जबकि बड़े परदे पर चुनावी सर्वेक्षणों ने 1996 में उस समय दस्तक दी, जब दूरदर्शन ने सीएसडीएस को देशभर में एग्जिट पोल कराने के लिए अनुमति प्रदान की।

1998 में चुनाव पूर्व सर्वे अधिकांश टीवी चैनलों पर प्रसारित किए गए और तब ये बहुत लोकप्रिय हुए थे लेकिन कुछ राजनीतिक दलों द्वारा इन पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग पर 1999 में चुनाव आयोग द्वारा ओपिनियन पोल तथा एग्जिट पोल पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, जिसके बाद एक अखबार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के फैसले को निरस्त कर दिया। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले एक बार फिर एग्जिट पोल पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग उठी और इस मांग के जोर पकड़ने पर तब चुनाव आयोग ने प्रतिबंध के संदर्भ में कानून में संशोधन के लिए तुरंत एक अध्यादेश लाए जाने के लिए कानून मंत्रालय को पत्र लिखा। उसके बाद जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में संशोधन करते हुए सुनिश्चित किया गया कि चुनावी प्रक्रिया के दौरान जब तक अंतिम वोट नहीं पड़ जाता, तब तक किसी भी रूप में एग्जिट पोल का प्रकाशन या प्रसारण नहीं किया जा सकता।

मतदान के बाद ही क्यों दिखाए जाते हैं एग्जिट पोल?

एग्जिट पोल सदैव मतदान प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही दिखाए जाते हैं। मतदान खत्म होने के कम से कम आधे घंटे बाद तक एग्जिट पोल का प्रसारण नहीं किया जा सकता। इनका प्रसारण तभी हो सकता है, जब चुनावों की अंतिम दौर की वोटिंग खत्म हो चुकी हो। ऐसे में यह जान लेना जरूरी है कि आखिर एग्जिट पोल के प्रसारण-प्रकाशन की अनुमति मतदान प्रक्रिया के समापन के पश्चात् ही क्यों दी जाती है? जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 126ए के तहत मतदान के दौरान ऐसा कोई कार्य नहीं होना चाहिए, जो मतदाताओं के मनोविज्ञान पर किसी भी प्रकार का प्रभाव डाले अथवा मत देने के उनके फैसले को प्रभावित करे। यही कारण है कि मतदान से पहले या मतदान प्रक्रिया के दौरान एग्जिट पोल सार्वजनिक नहीं किए जा सकते बल्कि मतदान प्रक्रिया पूरी होने के आधे घंटे बाद ही इनका प्रकाशन या प्रसारण किया जा सकता है। यह नियम तोड़ने पर दो वर्ष की सजा या जुर्माना अथवा दोनों हो सकते हैं।

यदि कोई चुनाव कई चरणों में भी सम्पन्न होता है तो एग्जिट पोल का प्रसारण अंतिम चरण के मतदान के बाद ही किया जा सकता है लेकिन उससे पहले प्रत्येक चरण के मतदान के दिन डेटा एकत्रित किया जाता है। एग्जिट पोल से पहले चुनावी सर्वे किए जाते हैं और सर्वे में बहुत से मतदान क्षेत्रों में मतदान करके निकले मतदाताओं से बातचीत कर विभिन्न राजनीतिक दलों तथा प्रत्याशियों की हार-जीत का आकलन किया जाता है। अधिकांश मीडिया संस्थान कुछ प्रोफैशनल एजेंसियों के साथ मिलकर एग्जिट पोल करते हैं। ये एजेंसियां मतदान के तुरंत बाद मतदाताओं से यह जानने का प्रयास करती हैं कि उन्होंने अपने मत का प्रयोग किसके लिए किया है और इन्हीं आंकड़ों के गुणा-भाग के आधार पर यह जानने का प्रयास किया जाता है कि कहां से कौन हार रहा है और कौन जीत रहा है। इस आधार पर किए गए सर्वेक्षण से जो व्यापक नतीजे निकाले जाते हैं, उसे ही ‘एग्जिट पोल’ कहा जाता है। चूंकि इस प्रकार के सर्वे मतदाताओं की एक निश्चित संख्या तक ही सीमित रहते हैं, इसलिए एग्जिट पोल के अनुमान हमेशा सही साबित नहीं होते।

 

 

 

 

 

 

 

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