भारत के 525 जातीय समुदायों में से 247 जातियां पूर्वोत्तर में पाई जाती हैं। देश की कुल आबादी में से 4.5-5 करोड़ आबादी इस क्षेत्र में बसती है। असम के कुछ छोटे जातीय समुदायों जैसे ताई फाके या ताई खामियाम, जो बौद्ध हैं, की आबादी 5,000 तक है। इनमें अधिकांश समुदाय पारंपरिक व्यापार करते थे, जो विभिन्न रूपों में हिंदू धर्म का विस्तार था। लेकिन बीते 100 वर्ष में खासकर, आजादी के बाद नागालैंड, मिजोरम, मेघालय जैसे राज्य मिशनरी गतिविधियों के कारण ईसाई बहुसंख्यक हो गए हैं।
सबसे बड़ा जनसांख्यिक परिवर्तन बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण हुआ है, जिसे आजादी से पहले अंग्रेजों ने प्रोत्साहित किया था और जिसने आजादी के बाद गति पकड़ी। घुसपैठ का सर्वाधिक प्रभाव असम पर पड़ा है। इसका कारण यह है कि पूर्वोत्तर के अन्य राज्य वनवासी बहुल हैं, जहां संविधान के तहत स्थानीय जनजातियों को भूमि, संसाधन, रोजगार आदि की सुरक्षा प्राप्त है। पर बांग्लादेशी घुसपैठिए आर्थिक प्रवासी हैं। इनमें अधिकांश मुस्लिम हैं और इनमें जमीन की भूख है। इसी के लिए वे उत्तर-पूर्व में आते हैं।असम को छोड़कर सभी उत्तर-पूर्वी राज्यों में यह कानून है कि गैर-स्थानीय लोग भूमि का अधिग्रहण नहीं कर सकते। चूंकि असम में ऐसा कानून नहीं है, इसलिए घुसपैठियों ने बसने के लिए विकल्प के तौर पर इस राज्य को चुना, जिससे उन्हें भूमि व अन्य संबंधित अधिकार जैसे-सरकारी सहायता, रोजगार, चिकित्सा लाभ आदि प्राप्त करने में मदद मिली।
2021 में बांग्लादेश का जनसंख्या घनत्व 1144 था, जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार असम का जनसंख्या घनत्व 382 प्रति वर्ग किलोमीटर था। बांग्लादेशी घुसपैठियों में अधिकांश मुस्लिम हैं। लगातार घुसपैठ ने राज्य की जनसांख्यिकीय संरचना को पूरी तरह से बदल दिया है। 1901 में राज्य का एक भी जिला मुस्लिम बहुल नहीं था। हालांकि 1951 तक मुस्लिम आबादी बढ़ी पर कोई जिला मुस्लिम बहुल नहीं था।
2001 से 2011 के बीच भारी बदलाव आया और राज्य के 9 में से 6 जिले मुस्लिम बहुल हो गए। यह बदलाव 1971 के बाद शुरू हुआ, जो नागरिकता प्रदान करने के लिए कटआफ वर्ष है। 1971 में राज्य में हिंदुओं की आबादी 72.5 प्रतिशत थी, जो 2001 में घटकर 64.9 और 2011 में 61.46 प्रतिशत रह गई। वहीं, 1971 में मुस्लिम आबादी 24.6 प्रतिशत थी, जो 2001 में बढ़कर 30.9 और 2011 में 34.2 प्रतिशत हो गई। यानी 10 वर्ष में मुस्लिम आबादी 40 प्रतिशत बढ़ गई! हालांकि यह समस्या इससे भी कहीं बड़ी है।
घुसपैठियों के बारे में तीन आधिकारिक अनुमान हैं। 1992 में राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया ने इनकी संख्या 32 लाख बताई थी। 2004 में संप्रग सरकार ने संसद में घुसपैठियों की संख्या 50 लाख, जबकि 2016 में राजग सरकार ने घुसपैठियों की आबादी 80 लाख होने का अनुमान लगाया था। इसके अलावा, तीन स्वतंत्र अध्ययन हैं, जिसके अनुसार 2040 से 2051 के बीच असम बांग्लादेशी मूल वाला मुस्लिम बहुल राज्य बन जाएगा। 2021 के जनगणना के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन हाल के रुझानों के अनुसार, असम में 38-40 प्रतिशत मुस्लिम हो सकते हैं। हालांकि हर सरकार और हर राजनीतिक दल घुसपैठ को पूर्वोत्तर के लोगों की पहचान पर खतरा मानता है, फिर भी नाममात्र के कदम उठाए गए, जिनके परिणाम लगभग शून्य हैं।
बढ़ती गई घुसपैठ
इसका कारण है कि असम का 20 वर्ष में मुस्लिम बहुल बनने का अनुमान जन्म दर व मुस्लिम आबादी की वृद्धि पर आधारित है। इसमें घुसपैठ को शामिल नहीं किया गया है। यदि स्थानीय लोगों की रक्षा के लिए कुछ नहीं किया गया तो वे अल्पसंख्यक हो जाएंगे। घुसपैठियों को खदेड़ने व स्थानीय आबादी की रक्षा के लिए 1970 के दशक से परोक्ष जनांदोलन चल रहा है। इसके परिणामस्वरूप 1985 का असम समझौता, 2016 में एनआरसी अद्यतन व केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा गठित समिति की सिफारिशें सिर्फ उनके लिए भूमि आदि आरक्षित करने के लिए हैं, जिनके नाम 1951 के राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में दर्ज हैं। इस समिति को ‘असम समझौते के अंतर्गत खंड 6 समिति रिपोर्ट’ के रूप में जाना जाता है। केंद्र, राज्य व घुसपैठ के विरुद्ध लड़ाई का नेतृत्व करने वाले संगठन के बीच हुए समझौते के परिणामस्वरूप 25 मार्च, 1971 या उससे पहले असम में प्रवेश करने वाले सभी बांग्लादेशियों को नागरिकता दी गई।
यह देश के बाकी हिस्सों के विपरीत है, जहां संविधान के अनुच्छेद-6 के तहत कट-आफ तिथि 19 जुलाई, 1948 थी। असम समझौते के तहत, राज्य ने 23 वर्ष बाद तक घुसपैठियों को नागरिकता देने का भार उठाया, जबकि केंद्र व राज्य सरकारों ने वचन दिया था कि सभी विदेशियों की पहचान कर कट-आफ तिथि के बाद रिपोर्ट की जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि घुसपैठ रोकने के लिए कोई कदम ही नहीं उठाया गया। एवं सरकारी अनुमान के अनुसार, 2016 में 80 लाख घुसपैठिए थे, जो 2011 में राज्य की कुल आबादी 3.3 करोड़ का 25 प्रतिशत हैं। वास्तव में घुसपैठ का मुद्दा उठाकर बड़ी संख्या में नेता तो तैयार हुए, पर राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए उन्होंने इस मुद्दे का इस्तेमाल किया और फिर इसे त्याग दिया, क्योंकि उन्हें वोट बैंक की चिंता थी।
एनआरसी नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर है, जिसे 1951 में असम के सभी निवासियों के लिए लागू किया गया था और 2014 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर रजिस्टर को अद्यतन किया गया था। इसका उद्देश्य 25 मार्च, 1971 के पहले से राज्य में रह रहे उन लोगों या उनके पूर्वजों की पहचान करना है, जो 1951 में नागरिक थे और अपनी या पूर्वजों की मौजूदगी के दस्तावेज प्रस्तुत कर सकते हैं, उन्हें अद्यतन एनआरसी में शामिल किया जाएगा।
ऐसे लोगों की दो श्रेणियां हैं। पहली, जिनके नाम 1951 के रजिस्टर में हैं और दूसरी श्रेणी में उनकी संतानें व बाद की पीढ़ियां शामिल हैं। एनआरसी अद्यतनीकरण सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में किया गया था, फिर भी बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ हुई, खासकर सीमावर्ती जिलों में, जहां बड़ी संख्या में विदेशी भी एनआरसी में अपना नाम शामिल कराने में सफल रहे।
विदेशी न्यायाधिकरणों ने जिन्हें विदेशी घोषित किया था, वे प्रशासनिक प्रक्रिया के माध्यम से एनआरसी में अपना नाम दर्ज कराने में सक्षम थे। जैसे, धुबरी जिले में विदेशी न्यायाधिकरण द्वारा विदेशी घोषित सभी 26,000 लोगों के नाम एनआरसी में शामिल किए गए थे।
ऐसे भी मामले हैं, जिन्हें विदेशी तो घोषित कर दिया गया, पर वे हिरासत में थे और उनके मामले सर्वोच्च न्यायालय में लंबित हैं। इसलिए उन्हें भी एनआरसी में शामिल किया गया। वास्तव में एनआरसी प्रक्रिया के दौरान घुसपैठियों ने सुनियोजित तरीके से तोड़फोड़ की ताकि वे इस प्रक्रिया में शामिल हो सकें! एनआरसी में दस्तावेजों के सत्यापन के लिए निरीक्षण टीमों को आवेदकों के घर जाना था। लेकिन दल ने दस्तावेजों का सत्यापन नहीं किया और आवेदक के दो पड़ोसियों के बयान दर्ज किए जो उन्हें नागरिक प्रमाणित करते थे और तद्नुसार आवेदक जो प्रमाणित करता था कि वह पड़ोसी या नागरिक है। एनआरसी का अधिकांश डेटा डिजिटलीकृत है और सभी दस्तावेज आसानी से उपलब्ध हैं। इनके आधार पर एनआरसी का पुनर्सत्यापन मुश्किल नहीं है।
घुसपैठ का प्राथमिक कारण है अर्थव्यवस्था, बांग्लादेश में भूमि व संसाधनों की कमी, जो मुस्लिम घुसपैठियों को असम में धकेल रही है। इन्हें निकालने का एक उपाय है कि उन्हें हतोत्साहित किया जाए ताकि वे असम में प्रवेश न कर सकें या प्रवेश कर भी गए हैं तो संसाधनों तक आसान पहुंच न हो और वे असम छोड़ने को मजबूर हो जाएं। असम की तरह पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों व देश के बाकी हिस्सों में भी वनवासियों व अन्य नागरिकों के अधिकारों को सुरक्षित करने वाले कानून हों ताकि घुसपैठिए आसानी से संसाधनों तक न पहुंच सकें। ऐसी कानूनी व्यवस्थाओं के कारण पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में बांग्लादेशी घुसपैठियों की उपस्थिति नगण्य है। हालांकि असम में फर्जी पहचान के आधार पर वे नागरिकता व भूमि संबंधी अधिकार, संसाधनों तक पहुंच और अन्य सरकारी लाभ प्राप्त करने में सक्षम हैं। 1951 का एनआरसी डेटा और समान कानून लागू कर इन्हें हतोत्साहित किया जा सकता है।
इस संबंध में पहली बार 2015 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त उपमन्यु हजारिका आयोग ने सिफारिश की थी। आयोग ने बांग्लादेश के साथ सटी सीमा की स्थिति पर अदालत को 4 रिपोर्ट सौंपी थी। इसमें घुसपैठ रोकने का एकमात्र उपाय सुझाया गया था। वह था-असम में कानून बनाकर भूमि, रोजगार, व्यापार आदि सिर्फ उनके लिए आरक्षित किया जाए, जिनके नाम या जिनके पूर्वजों के नाम 1951 के एनआरसी में हैं।
यह असम समझौते की धारा 6 के अनुरूप भी है, जिसके तहत असम के लोगों से वादा किया गया था कि 23 वर्ष से घुसपैठियों का बोझ उठाने और उन्हें नागरिकता देने के एवज में राज्य के लोगों को कानूनी व संवैधानिक सुरक्षा दी जाएगी। कानून बनाकर ऐसे छोटे जातीय समुदायों की पहचान की रक्षा की जा सकती है। इस दिशा में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने गुवाहाटी उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश के नेतृत्व में एक समिति गठित की थी, जिसने 2020 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में सुझाया था कि भूमि, रोजगार, व्यापार के अधिकारों की रक्षा करने वाला कानून केवल उनके लिए हो, जिनके नाम 1951 एनआरसी में हैं।
अभी एनआरसी मसौदा प्रक्रिया में है और इसे अधिसूचित नहीं किया गया है। इसे तभी अधिसूचित किया जा सकता है, जब बड़ी संख्या में मौजूद विदेशियों को बाहर रखा जाए। ऐसा दस्तावेजों के दोबारा सत्यापन के माध्यम से हो सकता है, जो डिजिटल हो गए थे। भले ही राज्य सरकार कहे कि उनके दोबारा सत्यापन के लिए सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की जरूरत है, पर नागरिकता अधिनियम व नियम सरकार को ऐसा करने का अधिकार देते हैं। इसके लिए न्यायालय का निर्देश जरूरी नहीं है, केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। धारा 6 पर समिति की रिपोर्ट पहले से ही केंद्र व राज्य सरकारों के पास है। इसमें उपमन्यु हजारिका आयोग की रिपोर्ट भी शामिल है। यदि ठोस उपाय नहीं किए गए तो 2040 तक असम की स्थानीय आबादी अल्पसंख्यक हो जाएगी। एनआरसी का दोबारा सत्यापन व स्थानीय लोगों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करके ही इस प्रवृत्ति को पलटा जा सकता है।
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