अमेरिका में 11 सितंबर, 2001 को हुआ इस्लामी आतंकी हमला केवल इमारतों पर हमला नहीं था, बल्कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र की जड़ पर हमला था। इस हमले ने कट्टर इस्लाम के विद्रूप चेहरे को उजागर किया, एक विकृत विचारधारा जो भय और विभाजन के बीज बोना चाहती है। कट्टरपंथियों के लिए जिहाद एक उपकरण है, जिसके जरिए वे गैर-मुस्लिमों पर प्रभुत्व जमाकर उन्हें अपने अधीन करना चाहते हैं एवं घुसपैठ और तोड़फोड़ की अपनी सदियों पुरानी रणनीति से अमेरिका की जनसांख्यिकी को बदल देना चाहते हैं।
आज अमेरिका के विश्वविद्यालय जिहादियों की जकड़न में हैं। अमेरिकी विश्वविद्यालयों में जो इस्राएल और यहूदी विरोधी प्रदर्शन हुए, वे केवल गाजा के प्रति कट्टरपंथियों की सहानुभूति नहीं, बल्कि एक प्रकार का शक्ति प्रदर्शन है, जो एक विश्वविद्यालय से शुरू हुआ और देखते-देखते जिसने समूचे अमेरिका के लभगभ 30 विश्वविद्यालय परिसरों को अपनी गिरफ्त में ले लिया। वामपंथी-कट्टरपंथी विश्वविद्यालय परिसरों को बंधक बनाकर अपनी नाजायज मांगें मनवाना चाहते थे।
उनकी मांग थी कि शैक्षणिक संस्थान इस्राएल या गाजा में इस्राएली सेना की कार्रवाइयों से जुड़ी किसी भी संस्था के साथ व्यापारिक सौदे न करें। प्रशासन ने जब उन्हें हटाना चाहा तो वे हिंसक हो गए। उपद्रवियों की गिरफ्तारी के बाद हमास-फिलिस्तीनी समर्थक और हिंसक हो गए। उन्होंने अमेरिकी झंडे फाड़ दिए, ‘अमेरिका की मौत’ व ‘यहूदियों की मौत’ जैसे नारे लगाए। अंतत: पुलिस ने सख्ती की और विश्वविद्यालय परिसरों में 17 अप्रैल से चल रहे विरोध प्रदर्शनों पर काबू किया।
जॉर्ज सोरोस के पैसे पर प्रदर्शन
अमेरिकी विश्वविद्यालयों में इस प्रदर्शन के पीछे अरबपति जॉर्ज सोरोस की भूमिका सामने आई है। इन प्रदर्शनों की अगुआई कर रहे स्टूडेंट्स फॉर जस्टिस इन फिलिस्तीन (एसजेपी) और यूएस कैंपेन फॉर फिलिस्तीनी राइट्स (यूएससीपीआर) को सोरोस ने पैसे दिए थे। न्यूयॉर्क पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, एसजेपी व यूएससीपीआर जैसे अलगाववादी संगठनों को सोरोस तथा दूसरे संगठनों से पैसे मिलते हैं। सोरोस के ओपेन सोसाइटी फाउंडेशन ने 2017 के बाद से अब तक यूएससीपीआर को 3 लाख डॉलर, जबकि रॉकफेलर्स ब्रदर्स फंड ने 2019 के बाद से यूएससीपीआर को 3.55 लाख डॉलर दिए हैं।
24 अप्रैल को टेक्सास विश्वविद्यालय में प्रदर्शनकारियों को एसजेपी की अध्यक्ष रही निदा लाफी ने संबोधित किया था। रिपोर्ट के अनुसार, यूएससीपीआर ने कम से कम तीन कॉलेजों में सीधे-सीधे ‘आजादी की आग’ भड़काई। इन प्रदर्शनों में विश्वविद्यालय के छात्र-कर्मचारी तो शामिल थे ही, बाहर से भी लोग बुलाए गए थे। संगठन में बाहर से आकर जुड़ने वाले प्रदर्शनकारियों को 7,800 डॉलर, जबकि परिसर के अंदर शामिल लोगों को 2,880—3,660 डॉलर दिए गए। इसके बदले इन लोगों ने हर सप्ताह कम से कम 8 घंटे भड़काऊ नारेबाजी की।
बढ़ता जिहादी प्रभाव
हमास समर्थकों द्वारा अमेरिकी विश्वविद्यालय परिसरों की घेराबंदी से पता चलता है कि जिहादियों का जाल पूरे देश में फैल चुका है। अमेरिका में सक्रिय मजहबी उन्मादियों की भागीदारी के बिना इतने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन संभव नहीं है। अकेले पिछले महीने में अमेरिकी विश्वविद्यालयों में बढ़ते विवादों के कारण 30 परिसरों में 1500 से अधिक प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया गया। जो देश खुद को मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के वैश्विक समर्थक के रूप में प्रचारित करता है, ताजा स्थिति उसकी गंभीर होती स्थिति की ओर संकेत करती है।
2004 में ‘वाशिंगटन पोस्ट’ में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, ‘यूएस मुस्लिम ब्रदरहुड’ समर्थक सैकड़ों मस्जिदें और व्यापारिक उद्यम चलाकर, नागरिक गतिविधियों को बढ़ावा देकर तथा कट्टरपंथी जिहादी इस्लाम की रक्षा व प्रचार के लिए अमेरिकी इस्लामी संगठनों की स्थापना करके ‘अमेरिकी इस्लामी समुदाय की सबसे संगठित ताकत बनाते हैं।’ इस समूह ने कट्टरपंथी विचारधारा के प्रसार के लिए इस्लामिक सोसाइटी आफ नॉर्थ अमेरिका, अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल, मुस्लिम अमेरिकन सोसाइटी और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट की भी स्थापना की है। इस्लामिक सोसाइटी आफ नॉर्थ अमेरिका तो मध्य-पूर्व मामलों में राष्ट्रपति ओबामा की सलाहकार भी थी, जिसने सरकार को ईरान के साथ परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए प्रेरित किया था।
नॉर्थ अमेरिकन इस्लामिक ट्रस्ट के पास क्षेत्र की 90 प्रतिशत मस्जिदों का स्वामित्व है। उसी अमेरिका में मुस्लिम छात्र संघ, जिसकी शाखाएं समूचे अमेरिका में हैं, अमेरिका और यहूदी विरोधी नारे लगाते हैं। इसमें काउंसिल फॉर अमेरिकन इस्लामिक रिलेशंस जैसे संगठन भी शामिल हैं, जिन्हें पहले इस्लामिक एसोसिएशन आफ फिलिस्तीन नाम से जाना जाता था। इस समूह ने यह सुनिश्चित किया कि जो भी इन प्रमुख संगठनों द्वारा यहूदियों के प्रति नफरत और इस्राएल विरोधी विचारों का विरोध करे, उसे ‘इस्लोमोफोबिया’ के रूप में वर्गीकृत किया जाए।
आर्थिक कुचक्र और ‘लाल-हरा’ गठबंधन
अमेरिकी विश्वविद्यालयों में मध्य-पूर्व देशों का भी दखल बढ़ रहा है। बीते 5 वर्ष में मध्य-पूर्व के देशों ने अमेरिकी विश्वविद्यालयों को 5 अरब डॉलर से अधिक दान दिया है। एआईसीई की रिपोर्ट के अनुसार, अरब से दान पाने वाले अमेरिका के शीर्ष पांच विश्वविद्यालय हैं- कॉर्नेल, जॉर्जटाउन, कार्नेगी मेलॉन, टेक्सास ए एंड एम और नॉर्थ वेस्टर्न। इसके अलावा, कॉर्नेल और हार्वर्ड जैसे प्रतिष्ठित आईवी लीग संस्थानों ने पिछले 35 वर्ष में अरब देशों से सामूहिक रूप से 8 अरब डॉलर से अधिक दान प्राप्त किया है। आईवी लीग पूर्वोत्तर अमेरिका के आठ निजी शोध विश्वविद्यालयों का एक अमेरिकी कॉलेजिएट एथलेटिक कॉन्फ्रेंस है। इनमें से कुछ विश्वविद्यालय पूरी तरह से अमेरिकी शिक्षण प्रणाली की बजाए अमेरिकी आड़ में अरबी प्रभावों के साथ मिश्रित प्रणाली लागू कर रहे हैं। यह रूढ़िवादिता इन संस्थानों के भीतर प्रचारित किए जा रहे शैक्षिक दृष्टिकोण व मूल्यों पर सवाल उठाती है। इसके अलावा, विदेशों खासकर कतर जैसे देशों से मिलने वाले दान से विश्वविद्यालयों की नीतियों व ऐसे विरोध प्रदर्शनों से निपटने के संभावित प्रभाव पर सवाल उठते हैं।
मध्य-पूर्व से आने वाले धन को लेकर चिंताएं स्वाभाविक हैं, क्योंकि विश्वविद्यालयों में इस्राएल विरोधी विचार वाले प्रोफेसरों की नियुक्तियां की जा रही हैं। गाजा और फिलिस्तीन में प्रदर्शनकारियों को विदेशी समर्थन मिला, खासकर जब कांग्रेस सदस्य कट्टर इस्लामवादी महिला इल्हान उमर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय के शिविर का दौरा करके एकजुटता दिखाई। इसके अतिरिक्त, बाइडेन प्रशासन अमेरिका में फिलिस्तीनियों की सहायता के उपायों पर विचार कर रहा है, जो संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों से अपने परिवारों से फिर से मिलना चाहते हैं। आलोचकों का तर्क है कि यह समर्थन अमेरिकी नीति पर अति-वामपंथी प्रभाव को दर्शाता है। वामपंथियों और जिहादियों, दोनों ने समर्थन हासिल करने के लिए वैश्वीकरण-विरोधी/पूंजीवाद-विरोधी और उपनिवेशवाद-विरोधी/साम्राज्यवाद-विरोधी जैसे मास्टर फ्रेम को रणनीतिक रूप से नियोजित किया है। इस रणनीति ने ‘लाल-हरा गठबंधन’ को जन्म दिया है, जो अमेरिकी नीति-निर्माताओं के लिए एक जटिल चुनौती है।
अमेरिकी परिसरों में कट्टरपंथी विचारधाराओं की मौजूदगी कानून निर्माताओं के लिए भी बड़ी चुनौती है। रिपब्लिकन राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प ने छापेमारी के दौरान कानून प्रवर्तन की कार्रवाई की सराहना की। अनियंत्रित प्रवासन तो आप्रवासन संकट को बढ़ाता है ही, कानून-व्यवस्था को भी खतरे में डालता है और संभावित रूप से सामाजिक एकजुटता को अस्थिर करता है। भविष्य में संभावित इस्लामी कब्जे को रोकने के लिए कानून प्रवर्तन एजेंसियों को विश्वविद्यालयों को विदेशी वित्त पोषण की निगरानी करनी चाहिए और कट्टरपंथी जिहादी समूहों पर अंकुश लगाना चाहिए।
सतर्कता बरतें भारतीय छात्र
अंतरराष्ट्रीय संघर्षों, विशेषकर गाजा में इस्राएल की हाल की कार्रवाई से उपजे हालात के बीच अमेरिकी विश्वविद्यालयों में विरोध प्रदर्शन के मामले बढ़े हैं। इन विरोध प्रदर्शनों से न केवल परिसरों में तनाव की स्थिति बनी है, बल्कि वहां पढ़ रहे विदेशी छात्रों के मन में चिंता भी पैदा की है, क्योंकि इस तरह की गतिविधियों में शामिल होने के कारण उन्हें इसके परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। गाजा मुद्दे पर प्रदर्शन का सिलसिला कोलंबिया विश्वविद्यालय से शुरू हुआ, जो अमेरिका के तमाम विश्वविद्यालयों तक पहुंच गया। विरोध प्रदर्शनों के कारण छात्रों और पुलिस के बीच झड़पें भी हुईं। प्रदर्शनों के कारण शैक्षणिक गतिविधियां ठप हुर्इं और परिसरों का माहौल तनावपूर्ण हो गया। इसे देखते हुए अमेरिकी विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत भारतीय छात्रों से सावधानी बरतने की अपील की गई है। हाल ही में भारतीय मूल के छात्र अचिंत्य शिवलिंगन को प्रिंसटन विश्वविद्यालय से न केवल गिरफ्तार किया गया, बल्कि निष्कासित कर परिसर में उसका प्रवेश भी प्रतिबंधित कर दिया गया था क्योंकि वह एक ऐसे प्रदर्शन में शामिल हुआ था, जिसकी अनुमति नहीं थी।
बीते कुछ वर्षों में अमेरिकी विश्वविद्यालयों में दाखिला लेने वाले भारतीय छात्रों की संख्या तेजी से बढ़ी है। इसलिए उनके लिए जरूरी है कि वे राजनीतिक रूप से संवेदनशील गतिविधियों में शामिल होने से बचें। साथ ही, संवेदनशील भू-राजनीतिक मुद्दों पर विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने के कानूनी, शैक्षणिक और कूटनीतिक प्रभावों के प्रति भी जागरूक रहें। उन्हें घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उच्च शिक्षा में बदलते परिदृश्य पर भी ध्यान देना चाहिए। अमेरिकी विश्वविद्यालयों में भारतीय छात्रों की रुचि अब तक के उच्चतम स्तर पर है। वहां लगभग 2,69,000 भारतीय छात्र पढ़ रहे हैं। हालांकि विरोध से परे अन्य कारकों जैसे आर्थिक परिदृश्य और नौकरी की संभावनाओं पर विचार करना भी महत्वपूर्ण हो जाता है। हाल के महीनों में लगभग आधा दर्जन भारतीय और भारतीय मूल के छात्रों ने अमेरिका में दुखद रूप से अपनी जान गंवाई है। यह गंभीर वास्तविकता छात्रों को विदेश में शैक्षिक अवसर चुनते समय अपनी सुरक्षा व कल्याण को प्राथमिकता देने की आवश्यकता को रेखांकित करती है। आर्थिक मंदी और अमेरिकी कंपनियों की बदलती प्राथमिकताओं ने भी भारतीयों सहित अंतरराष्ट्रीय छात्रों के लिए नौकरी की संभावनाओं को प्रभावित किया है।
कई अमेरिकी कंपनियां अंतरराष्ट्रीय छात्रों की तुलना में अमेरिकियों को प्राथमिकता दे रही हैं। इससे रोजगार हासिल करने में प्रतिस्पर्धा और चुनौतियां बढ़ गई हैं। दूसरी ओर, भारतीय विनिर्माण क्षेत्रों, विशेष रूप से अंतरिक्ष, रक्षा, सेमीकंडक्टर और ब्लॉकचेन प्रौद्योगिकी में निवेश पर विचार करने वाली अमेरिकी कंपनियों की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यह प्रवृत्ति भारत में कुशल पेशेवरों के लिए संभावित रोजगार के अवसरों और विकास की संभावनाओं को इंगित करती है। चूंकि दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, एमोरी विश्वविद्यालय, नॉर्थ ईस्टर्न विश्वविद्यालय, सिटी कॉलेज आफ न्यूयॉर्क , जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय, एमर्सन कॉलेज, कोलंबिया विश्विविद्यालय, आॅस्टिन में टेक्सास विश्वविद्यालय और कैल पॉली हम्बोल्ट जैसे विश्वविद्यालयों में विरोध प्रदर्शन के मद्देनजर भारतीय छात्रों को सतर्क रहना चाहिए और अपने शैक्षणिक व व्यक्तिगत राह के बारे में जानकारी रखते हुए निर्णय लेना चाहिए।
भले ही अमेरिकी विश्वविद्यालय मूल्यवान शैक्षिक अनुभव प्रदान करते हैं। लेकिन भारतीय छात्रों को अमेरिका में पढ़ने का निर्णय लेने से पहले सुरक्षा, नौकरी की संभावनाओं व अंतरराष्ट्रीय सहित सभी पहलुओं का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करना चाहिए। निवेश व नौकरी के भारत के एक आकर्षक गंतव्य बनने के साथ-साथ घर के नजदीक विकल्प तलाशना भी एक विकल्प हो सकता है।
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