गीता में भगवान् श्रीकृष्ण संसार के शस्त्रधारियों में राम को अपनी सर्वश्रेष्ठ विभूति बताते हैं- राम: शस्त्रभृतामहम्। विष्णु का अवतार होने के कारण राम अलौकिक शक्तियों से सम्पन्न थे, किंतु दशरथनंदन राम लोकोत्तर विभूति होने के साथ ही लोकनायक भी हैं। वे परमपुरुष होने के साथ पुरुषोत्तम भी हैं। अत: उनके चरित्र को मानवीय गुणों के आधार पर भी देखा-परखा जाना आवश्यक है। यदि हम लौकिक दृष्टि से देखें तो श्रीराम अपने समय के सर्वश्रेष्ठ योद्धा हैं। उनसे बड़ा धनुर्धर कोई नहीं हुआ। ऐसा होने के छह प्रमुख कारण हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि श्रीराम क्यों सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर और सर्वश्रेष्ठ योद्धा हैं। इसे जानने के लिए उन सभी महत्वपूर्ण कारकों को गहराई से देखने की आवश्यकता है, जो इस सत्य का मर्मोद्घाटन करते हैं।
आजानुभुज शरचापधर
प्रथम, श्रीराम एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जिनके पास संसार के सबसे शक्तिशाली धनुष को धारण करने की शारीरिक क्षमता है। महर्षि वाल्मीकि ने उन्हें ‘आजानुबाहु:’ कहा है। अर्थात् वह मनुष्य जिसकी भुजाएं उसके घुटनों के भी नीचे तक पहुंचती हों। तुलसीदास का ‘आजानुभुज शरचापधर…’ तो प्रसिद्ध ही है। श्रीराम के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का रहस्य भी उनके आजानुभुज होने में छिपा है, जो वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है।
वस्तुत: किसी धनुर्धर की श्रेष्ठता की कसौटी यह है कि वह कितने वेग से, कितनी दूरी तक और कितनी फुर्ती से ‘एक के बाद एक धारा प्रवाह’ बाण छोड़ सकता है। हम जानते हैं कि धनुष का आकार जितना बड़ा होगा, उसकी प्रत्यंचा भी उतनी ही लंबी होगी। इसी तरह, धनुष का चाप जितना विशाल होगा, उस पर तनी हुई डोरी का तनाव भी उतना ही अधिक होगा। चाप पर तनी हुई प्रत्यंचा कमानी की तरह कार्य करती है।
भौतिक विज्ञान के बल, वेग और गति के नियमों के आलोक में देखें तो इस खिंची हुई प्रत्यंचा का तनाव ही तीर के वेग और उसकी दूरी को निर्धारित करता है। निष्कर्ष यह है कि बाण की प्रहार क्षमता धनुष के आकार पर निर्भर है। धनुष जितना विशाल होगा उसकी मारक क्षमता भी उतनी ही अधिक, उतनी ही दूरी तक होगी। किंतु विशाल धनुष के संचालन के लिए शरीर की आकृति भी तदनुरूप विशाल होनी चाहिए। भुजाएं जितनी अधिक लंबी होंगी, उतने ही बड़े और विराट मारक क्षमता वाले धनुष का संचालन किया जा सकता है। अस्तु, अपने समय का सर्वाधिक दीर्घ भुजाओं वाला व्यक्ति ‘आजानुबाहु’ होने के कारण, (जो श्रीराम के अतिरिक्त कोई और नहीं) राम सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हैं।
दूसरा, इसी से संबद्ध कारण यह है कि विश्व का सर्वश्रेष्ठ आयुध ‘शार्ङ्ग धनुष’ उनके पास है। भूमंडल पर विश्वकर्मा के बनाए हुए दो ही धनुष दिव्य और श्रेष्ठतम थे, जो संसार में सर्वाधिक संहारक क्षमता के थे। उनमें से एक ‘पिनाक’ भगवान् शंकर के पास था और दूसरा ‘शार्ङ्ग’ भगवान् विष्णु के पास। शिव के पास वाला धनुष ही राजा जनक के यहां रखा हुआ था, जिसे श्रीराम ने भंग किया था। दूसरा उससे भी अधिक प्रचंड ‘वैष्णव धनुष’ (शार्ङ्ग) था, जो परशुराम के पास तब तक के लिए सुरक्षित रखा हुआ था, जब तक कि इसका वास्तविक उत्तराधिकारी अवतरित न हो जाए। ज्योंही परशुराम को यह विश्वास हुआ कि राम ही विष्णु के अवतारी पुरुष हैं और इस दिव्य धनुष के एकमात्र सुपात्र हैं, उन्होंने उसे श्रीराम को सौंप दिया। इस प्रकार श्रीराम को विश्व का सर्वश्रेष्ठ आयुध ‘शार्ङ्ग धनुष’ प्राप्त हुआ।
सम्पूर्ण धनुर्विद्या में पारंगत
तीसरा, जो श्रीराम को युद्धकला में निष्णात बनाता है, वह है उनका युद्ध विद्या के सैद्धांतिक और व्यावहारिक, दोनों पक्षों का उच्चकोटि का ज्ञान। वे धनुर्विद्या की दुर्लभ और गूढ़ प्रणालियों, तकनीकों के ज्ञाता हैं। महर्षि वशिष्ठ सैद्धांतिक ज्ञान के श्रेष्ठ आचार्य थे तथा विश्वामित्र व्यावहारिक प्रशिक्षण में पारंगत। श्रीराम ने पहले वशिष्ठ से विद्या अर्जित की। तत्पश्चात् विश्वामित्र की देखरेख में प्रायोगिक प्रशिक्षण प्राप्त किया। उस युग में वशिष्ठ और विश्वामित्र, ये दो ही सर्वप्रमुख आचार्य थे। श्रीराम ने दोनों से ज्ञानार्जन कर युद्धकला की सभी प्रणालियों और प्रविधियों का अभ्यास किया था। इनके अतिरिक्त महर्षि अगस्त्य ने भी उन्हें कभी निष्फल न होने वाले अत्यन्त दुर्लभ अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए थे।
चौथा महत्वपूर्ण कारण था, राम बाल्यकाल से ही धनुर्विद्या के प्रगाढ़ अभ्यास में लगे रहे। युद्ध कौशल अभ्यास पर ही निर्भर है। वाल्मीकि कहते हैं-
गजस्कंधेऽश्वपृष्ठे च रथचयार्सु सम्मत:।
धनुर्वेदे च निरत: पितु शुश्रूषणेरत:।।
बाल्यात्प्रभृति….।। (27, 28/18/बालकांड)
श्रीराम ने हाथी, घोड़े की सवारी तथा रथ संचालन में निपुणता प्राप्त कर ली थी। वे सदा धनुर्विद्या के अभ्यास और पिता की सेवा में लगे रहते थे। युद्ध संबंधी रणनीति की दृष्टि से शस्त्र संचालन ही नहीं, गजसेना, अश्वसेना और रथ संचालन का भी बड़ा महत्व होता है। राम बाल्यकाल से ही इस साधना में लगे हुए थे।
कर्मनिष्ठा और भक्ति भावना
पांचवां, श्रीराम की युद्धनीति का विशेष आयाम है, उनका आध्यात्मिक चेतना सम्पन्न होकर कर्म के साथ भक्ति को मान्यता देना। श्रीराम अपने पराक्रम पर तो अटूट आत्मविश्वास रखते ही हैं, अपने भुजबल और सैन्यबल के साथ दैवबल को भी पर्याप्त महत्व देते हैं। देहबल और आत्मबल का संतुलन उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ है। वे न तो कभी धैर्यच्युत होते हैं, न अपनी शक्ति के अहंकार से ग्रस्त होते हैं। वे साधारण सैनिकों के उद्यम को भी महत्व देते हैं, किंतु आवश्यकता पड़ने पर अपने इष्टदेव के प्रति समर्पित होकर दैवीय उपासना भी करते हैं।
आध्यात्मिक साधना से विराट दैवीय शक्तियों को अपने अनुकूल करते हैं। वे न तो शुद्ध कर्ममार्गियों की तरह स्वयंमेव कर्ता मानकर ‘अहंकार विमूढ़ात्मा कर्ता२हमितिमन्यते’ की भांति अहंकार से ग्रस्त होते हैं और न शुद्ध भक्तों की तरह सब कुछ दैवाधीन समझ कर कर्तव्य विमुख होते हैं। यह वही संदेश है, जिसे कालान्तर में श्रीकृष्ण ने अपने सखा-शिष्य अर्जुन को ‘मामनुस्मर युद्धश्च’ कहते हुए दिया था, ‘‘हे अर्जुन! तू युद्ध भी करता रह और मेरा स्मरण भी।’’
वाल्मीकि रामायण के अनुसार वे रावण विजय के लिए अपने कुल प्रवर्तक भगवान् भास्कर की स्तुति करते हैं। ‘आदित्यहृदय स्तोत्र’ का पाठ कर युद्ध के लिए प्रस्थान करते हैं और निर्णायक विजय प्राप्त करते हैं। बांग्ला रामायण कृत्तिवास और आधुनिक कवि निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ कविता में वे जगज्जननी दुर्गा की उपासना कर विजय का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। हम श्रीराम के व्यक्तित्व में कर्म निष्ठा और भक्ति भावना का संतुलन देखते हैं।
धर्म योद्धा श्रीराम
छठा और अंतिम कारक है- श्रीराम पूर्णत: धर्म योद्धा थे। संग्राम जय के सभी कारकों से सम्पन्न होने पर भी वे जिस कारण से सर्व लोकप्रिय और सर्व लोकरक्षक हैं, वह है उनका सतत जाग्रत धर्मबोध। उनमें वीरता और विवेक का समन्वय होना। वे क्षणभर में सम्पूर्ण संसार को विजित कर लेने की क्षमता रखते हैं, फिर भी वे युद्धातुर नहीं रहते। युद्ध को टालने की कोशिश अंतिम क्षण तक करते हैं। युद्धावसर आने पर भी परिस्थितियों को धर्म और नैतिकता की दृष्टि से अवश्य देखते हैं।
ताड़का के सम्मुख करुणामूर्ति राम पहले धर्म का विचार करते हैं। वे सोच में पड़ जाते हैं कि स्त्री पर शस्त्र कैसे उठाएं? विश्वामित्र के बार-बार कहने पर ही वे उस पर तीर चलाने को उद्यत होते हैं। विश्वामित्र कहते हैं, ‘‘हे राम! तुम स्त्री हत्या का विचार करके इसके प्रति दया मत दिखाओ। एक राजपुत्र को चारों वर्णों के हित के लिए स्त्री हत्या भी करनी पड़े तो उसे मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। प्रजा पालक नरेश को प्रजा-जन की रक्षा के लिए क्रूरतापूर्वक या क्रूरतारहित, पातकयुक्त अथवा सदोष कर्म भी करना पड़े तो कर लेना चाहिए। जिनके ऊपर राज्य के पालन का भार है, उनका तो यह सनातन धर्म है। हे राम! यह ताड़का महापापिनी है। उसमें धर्म का लेशमात्र भी नहीं है। अत: उसे मार डालना चाहिए।’’
यथा-
नहि ते स्त्रीवधकृते घृणा कार्या नरोत्तम:।
चातुर्वर्ण्यहितार्थं ही कर्तव्यं राजसूनूना।।
नृशंसमनृशंसं वा प्रजारक्षणकारणात्।
पातकं वा सदोषं वा कर्तव्यं रक्षता सदा।।
राज्यभारनियुक्तानामेष धर्म: सनातन:।
अधर्म्यां जहि काकुस्थ्य धर्मो ह्यस्यां न विद्यते।। (17,18,19/25/बालकांड)
श्रीराम इतने दयालु हैं कि इसके उपरांत भी वे यही कहते हैं कि स्त्री होने के कारण मुझे इसका वध करने में कोई उत्साह नहीं है। मेरा विचार है कि मैं इसके बल और इसकी गमन शक्ति को नष्ट कर दूं, इसका वध नहीं करूं।
न ह्येनामुत्सहे हन्तुं स्त्रीस्वभावेन रक्षिताम्।
वीर्यं चास्या गतिंं चैव हन्यामिति हि मे मति:।।
(12/26/बालकांड)
किंतु विश्वामित्र के द्वारा पूर्णत: आश्वस्त कर देने पर कि इस पापाचारिणी का वध ही धर्म है, वह ताड़का वध को उद्यत होते हैं। वस्तुत: श्रीराम युद्धजनक स्थितियों में भी वीरता के साथ विवेक को नहीं छोड़ते। भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न रणनीति अपना कर वे अपनी इस नीतिमत्ता का परिचय देते हैं। परशुराम से सामना होने पर उनका धैर्य और शील देखने लायक है। वे सक्षम होते हुए भी परशुराम के कटु वचन सुन लेते हैं, पर आवेश में नहीं आते। लक्ष्मण उत्तेजित हो जाते हैं, किंतु राम मुस्कुराते रहते हैं। सौम्यता और शालीनता नहीं छोड़ते, क्योंकि वे जानते हैं कि मेरे सामने खड़ा व्यक्ति धर्मोच्छेदक नहीं, धर्म-संस्थापक है। वैष्णवी परंपरा का रक्षक एवं संवाहक है। वे परशुराम को संतुष्ट कर उनसे दिव्य धनुष प्राप्त करते हैं और अपनी जय यात्रा को आगे बढ़ाते हैं।
वह अकेले चौदह सहस्त्र सैनिकों के साथ खर-दूषण का वध कर देते हैं, किंतु बाली वध के प्रसंग में उस पर आक्रमण करने के लिए वे सुग्रीव को ही तैयार करते हैं। वह सुग्रीव, जो बाली का नाम सुनते ही घबरा उठता है, जो बाली से जान बचाने के लिए अपने असंख्य वानरों के साथ किसी सुरक्षित स्थान पर छुपकर रह रहा है, वे उसी भयाक्रांत सुग्रीव को बाली से लड़ने को प्रेरित कर देते हैं। बाली से बुरी तरह मार खाकर वापस लौट आने पर भी, उसको पुन: भिड़ने के लिए भेज देते हैं। यह किसी चमत्कार से कम नहीं लगता।
संपूर्ण सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए उसके शिथिल प्राणों में उत्साह का संचार करने की इससे बढ़कर रणनीति और क्या हो सकती है? ऐसा रणनीतिक कौशल सचमुच दुर्लभ है। खर एवं दूषण की सेना को श्रीराम ने अकेले ही नष्ट कर दिया था, किंतु लंका विजय के लिए वानर-भालुओं की सेना को साथ लेना परम आवश्यक था। उनका यह युद्ध प्रबंधन कौशल ही उन्हें सर्वश्रेष्ठ योद्धा बनाता है। एक सूत्र में कहें तो श्रीराम, देहसम्पत् और आत्मसम्पत् से परिपूर्ण, लौकिक शक्तियों और पारलौकिक शक्तियों से सम्पन्न, सैद्धांतिक ज्ञान और व्यावहारिक कौशल में निष्णात, साधन और साधना की पराकाष्ठा को पहुंचे हुए ऐसे अप्रतिम धर्म योद्धा हैं, जिनके लिए एक ही विशेषण समीचीन प्रतीत होता है-‘न भूतो न भविष्यति।’
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