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मालेगांव बम विस्फोट : फूटा कांग्रेसी पाप का घड़ा

मालेगांव बम विस्फोट के आरोपियों पर मुकदमा नियमों को ताक पर रखकर चलाया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने एक आरोपी समीर शरद कुलकर्णी के विरुद्ध चल रही कार्रवाई पर लगाई रोक

by अरुण कुमार सिंह
May 16, 2024, 07:53 am IST
in भारत, महाराष्ट्र
मालेगांव बम विस्फोट का एक दृश्य

मालेगांव बम विस्फोट का एक दृश्य

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आज कांग्रेस चाहे कुछ भी कहे, लेकिन उसने ‘हिंदू आतंकवाद’, ‘भगवा आतंकवाद’ जैसे शब्द गढ़ कर हिंदू समाज को ‘आतंकवादी’ घोषित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। ‘हिंदू आतंकवाद’ को स्थापित करने के लिए कांग्रेस सरकार ने ऐसी जल्दबाजी की कि उसने निर्दोष हिंदुओं को पकड़ा और उन पर मुकदमा चलाने के लिए आवश्यक नियमों का पालन तक नहीं किया। मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, तब लोगों को पता चला कि कई मामलों में आारोपियों को गलत तरीके से जेल मेें डाला गया। यही कारण है कि मालेगांव बम विस्फोट के एक आरोपी समीर शरद कुलकर्णी के विरुद्ध मुंबई के ट्रायल कोर्ट में चल रही कार्रवाई पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी है।

बता दें कि मालेगांव में 29 सितंबर, 2008 को बम विस्फोट हुआ था। इसके बाद 30 सितंबर, 2008 को एफ.आई.आर. दर्ज कर महाराष्ट्र पुलिस ने जांच शुरू कर दी। प्रारंभिक जांच के बाद कहा गया कि यह आतंकवादी घटना है। यही कारण है कि इनके आरोपियों के विरुद्ध गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यू.ए.पी.ए.) के अंतर्गत मामला चलाने का निर्णय लिया।

17 जनवरी, 2009 को महाराष्ट्र सरकार ने यू.ए.पी.ए. की धारा-45 के तहत इसकी गहन जांच की अनुमति भी दे दी। लेकिन राज्य सरकार ने इससे पहले के आवश्यक नियम का पालन नहीं किया। इस कानून का दुरुपयोग न हो, इसके लिए इसमें प्रावधान है कि अगर केंद्र या राज्य सरकार किसी मामले की जांच करती है और अगर जांच के बाद उसको लगता है कि मामला यू.ए.पी.ए. के तहत चलाना चाहिए, तो इसके लिए संबंधित सरकार एक विशेषज्ञ समिति का गठन करेगी।

यह समिति जांच एजेंसियों द्वारा की गई जांच का अध्ययन कर उसकी समीक्षा करती है। इसके बाद यदि लगता है कि जांच में जो तथ्य मिले हैं, वे आरोपियों पर मुकदमा चलाने के लिए पर्याप्त हैं, तो वह समिति सरकार से इसकी अनुशंसा करती है। इसके बाद ही सरकार आगे मामला चलाने की अनुमति दे सकती है। सरकार की अनुमति मिलने के बाद ही न्यायालय भी इस तरह के मामले पर संज्ञान लेता है, लेकिन मालेगांव मामले में ऐसा कुछ नहीं किया गया। न तो सरकार ने यू.ए.पी.ए. के अंतर्गत मुकदमा चलाने की अनुमति दी और न ही न्यायिक प्रक्रिया चलाने वालों ने नियमों पालन किया। इसके बावजूद आरोपियों के विरुद्ध जांच की गई। 20 जनवरी, 2009 को महाराष्ट्र एटीएस ने आरोपपत्र भी दाखिल कर दिया।

यही नहीं, इस मामले की कथित गंभीरता को देखते हुए 1 अप्रैल, 2011 को तत्कालीन सोनिया-मनमोहन सरकार ने इसकी जांच का जिम्मा एन.आई.ए. को दे दिया। केंद्र सरकार ने भी एन.आई.ए. को जांच देने से पहले कोई विशेषज्ञ समिति नहीं बनाई। जांच के बाद एन.आई.ए. ने 13 मई, 2016 को आरोपपत्र भी दाखिल कर दिया। एन.आई.ए. ने भी आरोपपत्र दाखिल करने से पहले केंद्र सरकार से आवश्यक अनुमति नहीं ली। मजेदार बात यह है कि आज तक वह अनुमति नहीं ली गई है। इसके बावजूद सभी आरोपियों के विरुद्ध मामला चलाया जा रहा है। अब तक ट्रायल कोर्ट में 350 लोगों की गवाहियां हो चुकी हैं। प्रश्न उठता है कि जिस मामले में मुकदमा चलाने की अनुमति ही नहीं थी, फिर भी इतने समय से मुकदमा कैसे चल रहा है? इसी सवाल के साथ समीर शरद कुलकर्णी सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे।

उन्होंने अपने वकील विष्णु शंकर जैन के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि नियमों को ताक पर रखकर उनके विरुद्ध यू.ए.पी.ए. के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने कुलकर्णी के विरुद्ध ट्रायल कोर्ट में चल रही कार्रवाई पर रोक लगा दी। विष्णु शंकर जैन कहते हैं, ‘‘मालेगांव बम विस्फोट के आरोपियों के विरुद्ध मुकदमा चलाने के लिए नियमों की अनदेखी की गई। इस कारण वर्षों से ये लोग प्रताड़ित हो रहे हैं। मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से टूट रहे हैं। इन्हें न्याय मिलना चाहिए। इसलिए मैंने इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय के सामने उठाया। सभी आरोपी सर्वोच्च न्यायालय से प्रार्थना करेंगे तो उन पर चल रही कार्रवाई रुक सकती है और यह भी हो सकता है कि यह मामला ही बंद हो जाएगा।’’

उन्होंने यह भी कहा, ‘‘यदि यह मामला बंद हुआ तो न्यायालय से प्रार्थना की जाएगी कि आरोपियों को मुआवजे के रूप में राशि दिलाई जाए, क्योंकि जेल में रहने के कारण इनका सब कुछ खत्म हो गया है। परिवार बिखर गया है, सामाजिक रूप से इन्हें बदनामी भी झेलनी पड़ी है।’’

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