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घर में डर

पिछले चुनाव में राहुल उत्तर प्रदेश छोड़कर दक्षिण गए थे। वहां जाकर उन्होंने उत्तर भारतीयों को कोसा। इन चुनावों में वे फिर उत्तर प्रदेश लौटे तो अमेठी छोड़कर रायबरेली चले गए। उन पर कोई भरोसा करे भी तो कैसे

by आदित्य भारद्वाज
May 14, 2024, 05:54 pm IST
in विश्लेषण, उत्तर प्रदेश
नामांकन पर्चा दाखिल करते राहुल गांधी

नामांकन पर्चा दाखिल करते राहुल गांधी

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2019 के चुनाव में राहुल गांधी का अमेठी से चुनाव हारना, पलायन करके सुदूर दक्षिण केरल में ‘सुरक्षित’ वायनाड सीट तलाशना। फिर 2024 के इन चुनावों में वायनाड में अपनी स्थिति को डावांडोल देख अपनी माता सोनिया गांधी द्वारा खाली की गई रायबरेली सीट से नामांकन भरना असल में कांग्रेस के चरणबद्ध पतन की इतिहास कथा है। इसे इस प्रकार देखें कि उन्होंने अपने माता—पिता की विरासत अमेठी में खो दी और दक्षिण में जाकर उत्तर भारतीयों को कोसा। अब फिर उत्तर भारत लौटने की इच्छा हुई। कांग्रेस के हौसले और मनोबल का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि राहुल गांधी अमेठी जाने का साहस नहीं जुटा सके। अब वह अपनी मां की सीट से चुनाव लड़ रहे हैं, तो सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस की विरासत का अंतिम दुर्ग रायबरेली भी ध्वस्त होने वाला है?

राहुल का राजनीतिक करियर विफलताओं की महागाथा है। वह कांग्रेस के ऐसे वारिस हैं, जिसने जहां हाथ रखा, पार्टी की ताकत, विरासत और अवसरों को भस्म कर दिया। राहुल रायबरेली से चुनाव लड़ने वाले नेहरू—गांधी परिवार के आठवें सदस्य हैं। इस सीट से फिरोज गांधी, इंदिरा गांधी, नेहरू गांधी, शीला कौल, विक्रम कौल, दीपा कौल, सोनिया गांधी के बाद अब राहुल गांधी यहां चुनाव लड़ने के लिए आए हैं। अमेठी सीट, जिसे कांग्रेस को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ते हुए फिर पाने के लिए पुरजोर कोशिश करनी चाहिए थी, राहुल वहां नहीं गए, क्योंकि कांग्रेस भली-भांति जानती है कि वह इस सीट से दोबारा कभी नहीं जीत पाएगी।

अमेठी लोकसभा सीट 1967 में अस्तित्व में आई थी। इसके बाद से ही यह कांग्रेस के गढ़ के रूप में गिनी जाने लगी। 25 वर्ष तक यह सीट गांधी परिवार के पास रही। शुरुआती दो चुनावों में कांग्रेस के विद्याधर बाजपेयी यहां से सांसद चुने गए थे। 1977 में जनता पार्टी के रवींद्र प्रताप सिंह के हाथों संजय गांधी को यहां पराजय मिली थी, लेकिन तीन साल बाद हुए चुनाव में वह यहां से जीतने में सफल रहे थे। संजय गांधी की मृत्यु के बाद राजीव गांधी 1981 के उपचुनाव में यहां से जीते। वह 1991 तक अमेठी का प्रतिनिधित्व करते रहे।

राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी के करीबी सहयोगी सतीश शर्मा यहां से जीते। उन्होंने 1996 में भी यहां से चुनाव जीता, लेकिन 1998 में वह भाजपा के संजय सिंह से हार गए। 1999 में फिर से चुनाव हुए तो सोनिया गांधी ने यहां से जीत दर्ज की। बाद में उन्होंने यह सीट अपने बेटे राहुल के लिए छोड़ दी। 2004, 2009 और 2014 में राहुल लगातार तीन बार अमेठी से सांसद चुने गए। लेकिन 2019 में कांग्रेस और गांधी परिवार के अमेठी के किले को स्मृति ईरानी ने ध्वस्त कर दिया। उन्होंने 55,000 से अधिक मतों के अंतर से राहुल को हराया। इस बार कांग्रेस ने अंतिम समय तक इस सीट पर किसी प्रत्याशी की घोषणा नहीं की। नामांकन के अंतिम दिन केएल शर्मा को यहां से उम्मीदवार बनाया गया।

रायबरेली की जनता स्वीकार करेगी?

वायनाड में मतदान होने के बाद अमेठी की जनता द्वारा ठुकराए गए राहुल अब रायबरेली पहुंचे हैं। एक प्रतिष्ठित कंपनी में कार्यरत रायबरेली के अनुज बताते हैं, ‘‘राहुल गांधी को अमेठी को अपनी प्रतिष्ठा बनाते हुए वहां से चुनाव लड़ने की हिम्मत जुटानी चाहिए थी। यदि वह ऐसा करते तो वहां की जनता के बीच उनकी छवि बनी रहती कि हमारा नेता हमें छोड़कर यहां से भागा नहीं। जीतना या हारना तो बाद की बात थी। उन्होंने लोगों का विश्वास तोड़ा। अब वह रायबरेली से लड़ने आए हैं तो उन्हें शक की निगाह से देखना स्वाभाविक है। यदि वह यहां से भी हार गए, तो रायबरेली भी छोड़कर तो नहीं चले जाएंगे?’’ रायबरेली की ही अनिता श्रीवास्तव पेशे से अधिवक्ता हैं और रायबरेली अदालत में वकालत करती हैं।

उनका कहना है कि राहुल गांधी को लग रहा होगा कि रायबरेली उनके लिए सुरक्षित सीट है, क्योंकि यहां से नेहरू—गांधी परिवार का कोई न कोई सदस्य हमेशा जीतता रहा है, लेकिन यहां से इंदिरा गांधी भी एक बार हार भी चुकी हैं। भले ही कांग्रेस राहुल के रायबरेली से चुनाव लड़ने को सियासी गणित बता रही है, पर वास्तव में यह कांग्रेस का भय है। वह समझ चुकी है कि अमेठी में उसके लिए कोई संभावना नहीं बची है। यदि राहुल इस बार भी अमेठी से हार जाते तो उत्तर प्रदेश में और पार्टी में कैसे मुंह दिखाते? रही बात रायबरेली की जनता की, तो जनता जानती है और सब समझती भी है। यहां राहुल के लिए चुनावी राह आसान नहीं होगी।’’

अनुराग शुक्ला का रायबरेली शहर के बेलीगंज चौराहे पर शोरूम है। उनका कहना है, ‘‘2019 का चुनाव जीतने के बाद सोनिया गांधी निर्वाचन अधिकारी द्वारा दिया जाने वाला प्रमाण-पत्र तक लेने नहीं आईं। खुद राजस्थान से राज्यसभा चली गईं और अब राहुल आए हैं, तो किस मुंह से यहां वोट मांगेगे? यहां के लोगों को लगता है कि जैसे वह अमेठी छोड़कर वायनाड भाग गए और फिर वहां से अंतिम क्षणों में रायबरेली से पर्चा भरा। सवाल है कि यदि वह चुनाव जीते तो रायबरेली छोड़ेंगे या वायनाड? जनता समझ चुकी है कि उनका एकमात्र उद्देश्य चुनाव जीतना है। भावनात्मक रूप से उनका जुड़ाव न अमेठी से था, न ही रायबरेली से है।’’

रायबरेली के सिविल लाइन, गणेश नगर में रहने वाले जितेंद्र सिंह के अनुसार, ‘‘रायबरेली के ग्रामीण क्षेत्र में गांधी परिवार को लेकर भावनात्मक जुड़ाव तो रहा है, लेकिन नई पीढ़ी का उन्हें देखने का नजरिया अलग है। लोगों के बीच चर्चा है कि राहुल गांधी यदि यहां से चुनाव जीत भी गए, तो वह रायबरेली छोड़कर वायनाड चले जाएंगे। सोनिया गांधी यहां से लगातार चार चुनाव जीतीं, पर पिछले पांच साल में एक बार भी यहां नहीं आईं। चलिए मान लेते हैं कि वह अस्वस्थ थीं, तो परिवार से तो कोई न कोई तो एक बार यहां आ सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दूसरे, लोगों को यह भी लगता है कि राहुल यहां सपा से गठबंधन के चलते दबाव में आकर चुनाव लड़ रहे हैं। रायबरेली लोकसभा सीट के अंतर्गत पांच विधानसभा सीटें आती हैं। इनमें से चार सीटों पर सपा के विधायक जीते हैं। एक सीट भाजपा के पास है। राहुल यहां से चुनाव लड़ना ही नहीं चाहते थे, वह अनमने मन से चुनाव लड़ रहे हैं। इसलिए जनता को उन पर विश्वास नहीं हो रहा है। वैसे भी 2014 के बाद से यहां लगातार कांग्रेस का ग्राफ गिर रहा है और भाजपा का बढ़ रहा है। 2014 में भाजपा को इस सीट पर 22 प्रतिशत वोट मिले थे, जो 2019 में 16 प्रतिशत बढ़कर 38 प्रतिशत हो गए। यदि इस बार 5-6 प्रतिशत भी वोट बढ़े, तो प्रदेश में कांग्रेस का नामलेवा भी नहीं बचेगा। इसके चलते ही दबाव बनाकर राहुल को यहां से चुनाव में उतारा गया है, लेकिन जनता सब जानती है।’’

लालगंज ब्लॉक के आनापुर गांव के शिवम सिंह वैसे तो पेशे से आईटी इंजीनियर हैं, लेकिन शहर में उनका एनफील्ड मोटर साइकिल का शोरूम है। वे कहते हैं, ‘‘दरअसल गांधी परिवार के लोग यहां एक तरह से राजनीतिक पर्यटन करने के लिए ही आते हैं। 45 से अधिक उम्र के लोगों का गांधी परिवार से भावनात्मक लगाव है, इसलिए परिवार के लोग यहां से जीतते रहे। लेकिन युवा जिनकी उम्र 35 वर्ष से कम है, वे गांधी परिवार के किसी सदस्य को वोट नहीं देना चाहते। अभी तक वे गठबंधन के चलते यहां जीतते रहे। इस लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस के पास एक भी विधायक नहीं है। इसलिए यहां से राहुल गांधी के लिए जीतना टेढ़ी खीर होगी।’’

इसी तरह, सदर बजार में इलेक्ट्रॉनिक्स सामान के विक्रेता पंकज मिश्रा का कहना है कि सोनिया गांधी के राजस्थान से राज्यसभा जाने के बाद लोगों को लग रहा था कि प्रियंका वाड्रा यहां से चुनाव लड़ेंगी और राहुल अमेठी से। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दोनों ही लोकसभा क्षेत्र आपस में जुड़े हुए हैं। अमेठी और रायबरेली दोनों लोकसभा सीटों के बीच का फासला 60 किलोमीटर का ही है। इसलिए राहुल को लेकर लोगों में अविश्वास की स्थिति है। लोग इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकास कार्यों पर मुहर लगाएंगे।’’
बसरावा विधानसभा क्षेत्र के महाराजगंज के रहने वाले अधिवक्ता सरोज गौतम के अनुसार, ‘‘गांधी परिवार के नाम पर जो वोट रायबरेली में पड़ते थे, वे लगातार कम हो रहे हैं। कोविड काल में गांधी परिवार के किसी सदस्य ने यहां की सुध नहीं ली। यहां तक कि 2017 में रायबरेली में एनटीपीसी के ऊंचाहार पावर प्लांट में बॉयलर फटने से 25 से अधिक लोग मारे गए, तब भी कोई नहीं आया था। सोनिया गांधी भले ही 2019 में यहां से जीत गईं, लेकिन जीत का अंतर 2014 के मुकाबले 2 लाख घट गया था। इस बार यदि वह यहां से लड़तीं तो हार जातीं। वैसे भी कोई राहुल को तो गंभीरता से नहीं लेता। जब से वह अमेठी छोड़कर यहां आए हैं, तब से और ज्यादा अविश्वास की स्थिति है।’’

रायबरेली के सरेनी विधानसभा क्षेत्र के रसायन विज्ञान के प्राध्यापक तुषार वाजपेयी बताते हैं कि लोगों में अविश्वास है। स्थानीय स्तर पर प्रत्याशी को लेकर लोग गंभीर हैं। इस बार भी लोग मोदी जी के चेहरे पर और योगी जी के सुशासन पर मतदान करेंगे। संभवत: इसलिए सोनिया गांधी ने चुनाव लड़ने की बजाए राज्यसभा जाना ज्यादा उचित समझा। लोग पूछ रहे हैं कि जब राहुल अमेठी छोड़कर दक्षिण जा सकते हैं तो क्या गारंटी है कि वह रायबरेली छोड़कर नहीं जाएंगे।’’

रायबरेली में अंतिम समय में राहुल गांधी का नामांकन करवा कर कांग्रेस भले ही खुद को राजनीति की शतरंज का माहिर खिलाड़ी मानती हो, पर रायबरेली की जनता का मिजाज इस बार बदला हुआ है। राजनीति में विश्वास सबसे बड़ी चीज होती है। जब संकट ही विश्वास का हो, तो चुनावी समर में कांग्रेस के लिए यहां से नैया पार करना मशक्कत का काम होगा।

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