सेकुलर राजनीति का वोट जिहाद
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सेकुलर राजनीति का वोट जिहाद

इस्लाम में मजहब और राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस बार कांग्रेस ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए वोट जिहाद का दांव चला है। यह जानते हुए कि जिहाद इस्लामिक विस्तारवाद का आक्रामक विचार है, जिसके आधार पर देश का बंटवारा हो चुका है। मतलब साफ है, कांग्रेस अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकती है

by शिवेन्द्र राणा
May 13, 2024, 06:21 pm IST
in भारत, विश्लेषण
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फर्रुखाबाद में कांग्रेस नेता एवं पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद की भतीजी मारिया आलम खां ने ‘एकजुट दीनी समाज’ से खुलेआम ‘वोट जिहाद’ की अपील कर कांग्रेस के चेहरे से सेकुलर नकाब नोच कर उसके असली चेहरे को उजागर कर दिया है। साथ ही, मारिया की यह अपील उस कट्टपंथी सोच को भी जाहिर करती है, जो लामबंद होकर राजनीतिक दल से साठगांठ कर अपने स्वार्थ के लिए सत्ता पर दबाव बनाते हैं। इसलिए एक कट्टरपंथी मुसलमान के ऐसे बयान पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यह तो उनका सामान्य चरित्र है।
‘इमाम सराक्सी’ के अनुसार, ‘‘जिहाद एक अनिवार्य कार्य है और अल्लाह ने इसकी आज्ञा दी है। जो व्यक्ति (मुसलमान) जिहाद से इनकार करता है, वह काफिर है और जो जिहाद की अनिवार्यता पर संदेह करते हैं, वे पथभ्रष्ट हो गए हैं।’’ इतिहासकार एवं समाजशास्त्री इब्न खलदून ने लिखा है, ‘‘मुस्लिम समुदाय में जिहाद एक मजहबी फर्ज है, क्योंकि इसका उद्देश्य इस्लाम को सार्वभौमिक बनाना है और हर व्यक्ति को समझा-बुझाकर या बल प्रयोग से इस्लाम कबूल करवाना है।’’ ईरान के शिया मौलवी अयातुल्लाह खुमैनी (1902-89) के शब्दों में, ‘‘जिहाद का अर्थ सशस्त्र युद्ध है। इसका अर्थ आर्थिक तथा राजनीतिक दबाव के जरिए संघर्ष करना भी है, जिसका संचालन प्रचार के माध्यम से, गैर-मुसलमान का इस्लाम में कन्वर्जन करके और गैर-मुसलमान समाज में घुस करके किया जाता है।’’ 

जेक्यूस एलूल के अनुसार, ‘‘इस्लाम में जिहाद एक मजहबी फर्ज है, इसकी गणना ‘ईमानलाने वालों’ के कर्तव्यों में होती है और उन्हें इसे अवश्य निभाना है। यह इस्लाम के विस्तार का सामान्य रास्ता है।’’ यानी जिहाद इस्लामिक विस्तारवाद का आक्रामक विचार है, जो मुसलमानों की सैन्यवादी चेतना का आधार है। जैसा कि फ्रांसीसी विद्वान अल्फ्रेड मोराबिया कहते हैं, ‘‘आक्रामक व युद्धप्रिय जिहाद ने, जिसे विशेषज्ञों और मजहब के मर्मज्ञों ने संहिताबद्ध किया है, अकेले तथा सामूहिक दोनों प्रकार से मुस्लिम चेतना को जाग्रत करना नहीं छोड़ा है।’’ 

मजहब और राजनीति का घालमेल

इस्लामी कानून में राजत्व की कोई व्यवस्थित अवधारणा नहीं है। मुसलमानों के पैगंबर की वफात (मृत्यु) के बाद खलीफा का पद सृजित हुआ, जिसमें मजहबी एवं राजनीतिक, दोनों सत्ताओं पर एकाधिकार समाहित था। इस्लाम में मजहब और राजनीति का सम्मिश्रण इस कदर अविछिन्न है कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। यही वजह है कि इस्लाम जहां भी विस्तारवादी स्वरूप में दिखता है, उसमें मजहब और राजनीति समानांतर अवस्था में दिखेगी।

यह अवधारणा उमय्या वंश  (661-750 ई.) से लेकर अब्बासी वंश तक यानी 9वीं सदी तक चली। इसके बाद इस्लामिक इतिहास में सुल्तान और सल्तनत के दौर चले, लेकिन तब भी चाहे वह ताहिरी (820-72ई.), समानी (874-999ई.), सफ्फारी (861-900ई.), जियारी वंश (928-1042 ई.) या फातीमी खिलाफत (10वीं सदी) हो, इन सब में मजहब और राजनीति का घालमेल बना ही रहा। यहां तक कि मुआविया (661 ई.) ने तो खलीफा को एक प्रकार से बादशाहत में तब्दील कर दिया। बाद में राजनीतिक सत्ताधारी मुस्लिम शासकों में बुतशिकन (मूर्ति भंजक) एवं गाजी (मजहबी योद्धा) की पदवी धारण करने की होड़ सी लग गई। इस घालमेल ने मजहब में सत्ता संघर्ष का इतना उन्माद पैदा किया कि मुहम्मद की मृत्यु के बाद शुरुआती खलीफाओं में से क्रमश: उस्मान एवं हुसैन की कट्टरपंथियों ने ही हत्या कर दी। आज यही मजहबी उन्माद परिवर्तित रूप में ‘वोट जिहाद’ की अपील का कारण है।

जब जी.एच. जॉनसन अपनी पुस्तक ‘मिलिटेंट इस्लाम’ में लिखते हैं कि इस्लाम में मजहब और राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, तो उसका तात्पर्य यही है, जो मारिया आलम ने कहा। वास्तव में इस्लाम एक ‘पॉलिटिकल कल्ट’ है तथा इस्लाम की सैन्यवादी अवधारणा जिहाद के मजहबी विचार से प्रेरित है। सल्तनत काल से लेकर भारत विभाजन तक यही मजहबी प्रसार की जिहादी विचारधारा ‘मुहम्मदी’ समाज के अंतस में पैठी उसकी प्रेरक रही है। इसीलिए भारत में जिहादी गतिविधियां कभी कमजोर नहीं हुईं। भारत हमेशा से इस्लामी विस्तार का लक्ष्य रहा है। आधुनिक ऐतिहासिक आख्या इसका सबल प्रमाण प्रस्तुत करती है।

1921 में अमदाबाद की खिलाफत कांफ्रेंस के दौरान हकीम अजमल खान ने मुस्लिम समाज की राजनीतिक आकांक्षाओं को स्पष्ट करते हुए कहा था, ‘‘एक ओर भारत और दूसरी ओर एशिया माइनर भावी इस्लामी संघ रूपी जंजीर के दो छोर की कड़ियां हैं, जो धीरे-धीरे किंतु निश्चय ही बीच के सभी देशों को देशों को एक विशाल संघ में जोड़ने जा रही हैं।’’ ‘एक्सीडेंटल हिंदू’ और ‘राष्ट्रीय चचा’ जवाहर लाल नेहरू के विश्वसनीय सलाहकार व तथाकथित पंथनिरपेक्ष अबुल कलाम आजाद ने पूरे भारत के इस्लामीकरण का आह्वान करते हुए कहा था, ‘‘भारत जैसे देश को, जो एक बार मुसलमानों के शासन में रह चुका है, कभी भी त्यागा नहीं जा सकता और प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है कि उस खोई हुई मुस्लिम सत्ता को फिर से प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करें।’’ ध्यातव्य है कि संविधान सभा में इन्हीं तथाकथित राष्ट्रवादी कांग्रेस नेता ने अल्पसंख्यक के नाम पर मुसलमानों के लिए आरक्षण मांगा था। आज यदि कांग्रेस मुस्लिमों को आरक्षण देने को आतुर है, तो वह अपनी इसी जिहाद पोषक मानसिकता का प्रदर्शन कर रही है।  प्रसंगवश बता दें कि विकृत मानसिकता का यह व्यक्ति देश का पहला शिक्षा मंत्री रहा है। सहज समझिए कि भारतीय इतिहास की ऐसी दुर्गति क्यों है?

इस्लामी राष्ट्र की चरणबद्ध योजना

जमात-ए-इस्लाम पाकिस्तान के संस्थापक एवं पाकिस्तान का इस्लामीकरण करने के लिए जिया-उल-हक को प्रेरित करने वाले मौलाना मौदूदी ने इस योजना का स्पष्ट विवरण दिया, ‘‘मुस्लिम भी भारत की स्वतंत्रता के उतने ही इच्छुक थे, जितने कि दूसरे लोग। किंतु वह इसे एक साधन, एक पड़ाव मानते थे, मंजिल नहीं। उनका ध्येय एक ऐसे राज्य की स्थापना करना था, जिसमें मुसलमानों को विदेशी या अपने ही देश के गैर-मुसलमानों की प्रजा बनकर न रहना पड़े। जितना संभव हो, शासन दारुल-इस्लाम की संकल्पना के निकट हो। मुस्लिम भारत सरकार में भारतीय होने के नाते नहीं, हैसियत से भागीदार हो।’’ इस षड्यंत्र की पुष्टि करते हुए मुस्लिम सत्यशोधक मंडल के संस्थापक हामिद दलवई ने आशंका जताई थी कि आज भी भारत और पाकिस्तान में मुसलमानों के प्रभावशाली गुट हैं, जिनकी अंतिम मांग है-पूरे भारत का इस्लाम में कर्न्वजन।

ऐसा नहीं है कि इस्लामिक समाज मजहबी प्रसार के लिए केवल हिंसा समर्थित बुद्धिहीन जमात है, बल्कि यहां काफिर-मुशरिक राष्ट्रीयताओं पर इस्लाम के व्याप्तिकरण के लिए योजनाबद्ध प्रक्रिया अपनाई जाती है। कैसे? वैश्विक स्तर पर इस्लाम के अनुकूल ‘अल्लाह का साम्राज्य’ स्थापित करने के लिए चार इस्लामिक गतिविधियां हैं-सहअस्तित्ववादी जिहाद, शांतिपूर्ण जिहाद, आक्रामक जिहाद और शरियाही जिहाद।

पहला चरण- जिन देशों में मुस्लिम आबादी 5 प्रतिशत या उससे कम होती है, वहां वे ‘शांति, भाईचारा, पे्रम, आपसी सहयोग और सौहार्द’ द्वारा सहअस्तित्ववादी जिहाद अपनाते हैं ताकि अपने मजहबी आचरण से प्रभावित कर अधिकाधिक काफिर-मुशरिकों को कन्वर्ट किया जा सके। भारत में मध्यकाल में सूफी आंदोलन एवं केरल में सातवीं सदी में चेरामन पेरुमल के शासनकाल में इस्लामिक जिहाद इसी अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है।

दूसरा चरण- जहां मुस्लिमों की आबादी 15-20 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, वहां जिहाद ‘शांतिपूर्ण’ होता है। यहां वे मौका देखकर ‘इस्लाम खतरे में है’, ‘मुसलमान उपेक्षित हैं’ जैसे नारों से लामबंद होकर किसी राजनीतिक गुट के सहयोग से सत्ता पर दबाव बनाते हैं और अधिकाधिक मजहबी, आर्थिक एवं राजनीतिक लाभ पाने के लिए प्रयासरत रहते हैं। संख्या में कम होते हुए भी वोट बैंक के रूप में ये राजनीतिक स्तर पर बहुत प्रभावी होते हैं। साथ ही, कन्वर्जन के प्रयास में थोड़ी तेजी लाते हैं। इसमें लव जिहाद, बहु-विवाह आदि के जरिए आबादी बढ़ाने का प्रयास करते हैं। यह उनकी अलगाववादी मजहबी अवधारणा का हिस्सा है, क्योंकि इस्लामी सिद्धांत राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता जैसे आधुनिक विचारों की अनुमति नहीं देता है। समय के साथ ये लोग उसे देश या समाज की मूल धारा से अलग इस्लामी राष्ट्र की योजना पर काम करते रहते हैं। वर्तमान भारत इसी दूसरी अवस्था से गुजर रहा है।

तीसरा चरण- इस चरण में जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं, यानी उनकी आबादी 40-50 प्रतिशत हो जाती है, वहां उनका जिहाद आक्रामक हो जाता है। गैर-मुस्लिमों को इस्लाम कबूलने, जजिया देने या देश छोड़ने को कहा जाता है। अन्यथा काफिरों का कत्ल करना, उनकी संपत्ति लूटना, महिलाओं का अपहरण-बलात्कार व जबरन कन्वर्जन किए जाते हैं। यह अवस्था पाकिस्तान एवं बांग्लादेश की है। केरल और कश्मीर जिहाद के तीसरे स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है, पर इसका विशिष्ट उदाहरण पश्चिम बंगाल है, जहां वोट बैंक और ‘अली-कुली’ की घेराबंदी से इस्लामिक कट्टरपंथियों ने राज्य सरकार को अपने समक्ष नतमस्तक कर  रखा है।

चौथा चरण- इसमें वैसे देश आते हैं, जहां मोहम्मदियों की आबादी 90 प्रतिशत या उससे अधिक होती है। फिर भी वहां पूरी तरह शरिया कानून लागू नहीं होते हैं। वहां ये ‘शरियाही जिहाद’ करते हैं। दुनिया के 57 इस्लामी देशों में समान शरिया कानून लागू नहीं हैं, क्योंकि इस्लाम फिरकों में बंटा है और सबके अपने-अपने शरिया कानून हैं। इस वैचारिक भिन्नता के कारण शिया, सुन्नी वहाबी, बरेलवी, अहमदिया जैसे फिरके आपस में संघर्षरत हैं। इस स्थिति को आप सीरिया, लीबिया, इराक आदि में देख सकते हैं। अत: किसी को भ्रम नहीं होना चाहिए कि इस्लाम शांतिप्रिय है और यहां समानता और एकता है। एक सच यह भी है कि यह समुदाय जिहाद और हिंसा के बिना रह ही नहीं सकता। 2002 तक कश्मीर और अफगानिस्तान में विभिन्न फिरकों के बीच लगभग 2,000 आपसी संघर्ष हुए।

इतिहास से सीख नहीं 

मैकडोनाल्ड, लोएस डिकिंसन, विन्टरनित्स, फ्लीट, वी.ए. स्मिथ आदि पश्चिमी विद्वानों के अनुसार, भारतीयों में इतिहास बोध का अभाव है। उन्होंने अब तक इतिहास से न तो सीखा है और न ही सीखना चाहते हैं। यदि हिंदुओं में इतिहास बोध होता तो लगभग 2,000 वर्ष की जिहादियों की नृशंसता, उनकी असहिष्णुता, वैचारिक धूर्तता और अत्याचार झेलते देश विभाजन के 75 वर्ष कमोबेश उसी स्थिति में नहीं पहुंचते, जब खिलाफत आंदोलन के रूप में द्विराष्ट्र का बीजारोपण हुआ था। तब ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि 1920 में भारतीय राजनीति में गांधी युग शुरू हुआ तो इतिहास को तोड़-मरोड़ कर अपने हिसाब से प्रस्तुत करने की एक नई राजनीतिक प्रवृत्ति शुरू हुई। गांधीजी और बाद में उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी जवाहरलाल नेहरू ने इस परंपरा का नेतृत्व किया। यह भ्रामक इतिहास का ही परिणाम था कि हिंदू-मुस्लिम एकता, पांथिक सद्भाव के नाम पर खिलाफत आंदोलन को राजनीतिक स्वीकृति देने का आत्मघाती कदम उठाया गया, जो बाद में राष्ट्र-विभाजन का आधार बना।

आजादी के बाद भी देश में जब मुस्लिम अलगाववाद ने दोबारा सिर उठाया तो उसे कुचलने की बजाए उसे राजनीतिक प्रश्रय दिया गया, जबकि कांग्रेस शुरू से इनके बारे में सब कुछ जानती थी। जब उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत के मुसलमान कांग्रेस छोड़कर मुस्लिम लीग में जा रहे थे, तब नेहरू को लगा कि कुछ सभाएं, भाषणबाजी करने और गले मिलने से मुसलमान उनके आगे बिछ जाएंगे। लेकिन हुआ इसके विपरीत। जब नेहरू पेशावर पहुंचे तो मुसलमानों की उग्र भीड़ ने उन पर ईंट-पत्थर बरसाए और उन्हें जान बचाकर भागना पड़ा। फिर भी वे मुस्लिम तुष्टीकरण में लगे रहे, जिसका परिणाम हिंदुओं ने विभाजन की विभीषिका के रूप में भुगता। पर इससे सबक लेने के बजाए कांग्रेस नेता तुष्टीकरण में लगे रहे। जैसे- सेकुलरिज्म के नाम पर तजम्मुल हुसैन, जो 1947 तक मुस्लिम लीग के कट्टर नेता थे, विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं गए। उन्हें संविधान सभा की सलाहकार समिति में शामिल कर लिया गया। आगे चलकर वामपंथियों-इस्लामिस्टों की अगुआई में जेएनयू और जामिया मिल्लिया जैसे शैक्षणिक संस्थान इसके विचारात्मक प्रवाह के केंद्र बने।

आज भी कांग्रेस, सपा, तृणमूल, राजद, माकपा आदि को लगता है कि ‘गंगा-जमुनी तहजीब’, ‘भाईचारा’, ‘इस्लाम शांतिप्रिय मजहब’, ‘नबी शांति के दूत’ जैसे लच्छेदार भाषणों से उन्हें तुष्ट कर लेंगे। वास्तव में ये कट्टरपंथियों के शांतिपूर्ण जिहाद में सक्रिय योगदान कर भारत के इस्लामीकरण में सहयोग दे रहे हैं और सनातन धर्म के अंध विरोध में समाज को तोड़ रहे हैं। यदि इन दलों के तथाकथित सेकुलर नेताओं को लगता है कि इनकी विचारहीन, भविष्य के प्रति शुतुरमुर्गी मानसिकता के कारण फैल रहे राजनीतिक जिहाद से ये सुरक्षित हैं और इनकी कुर्सी बची रहेगी, तो यह उनका भ्रम है। जिहाद की आग देर-सबेर इनके घरों तक भी जरूर पहुंचेगी, जैसे-कर्नाटक के कांग्रेस नेता निरंजन हिरेमथ (नेहा हिरेमथ के पिता) का परिवार इसकी लपेट में आया है।

कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद और उनकी भतीजी मारिया आलम

मूल समस्या जस की तस

विभाजन के बाद भी मूल समस्या जस की तस बनी रही। जिन क्षेत्रों का अलगाववादी आंदोलन से कोई वास्ता नहीं था, वे पाकिस्तान का हिस्सा बन गए। उत्तर भारत के मुसलमानों की जमात, जो अलीगढ़ आंदोलन की समर्थक थी और आंदोलन का वैचारिक केंद्र अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय यहीं रह गए। कुछ माह पूर्व छपरा (बिहार) के जयप्रकाश नारायण विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर खुर्शीद आलम ने सार्वजनिक तौर पर पाकिस्तान का समर्थन करते हुए अलग मुस्लिम देश की मांग उठाई। यह प्रमाण है कि इस्लामिक अलगाववाद कैसे संगठित और व्यवस्थित होकर राजनीतिक अधिकार के लिए सत्ता और राज्य में अपनी शरई अधिकारों की मोर्चाबंदी करता है।

इस मनोवृत्ति पर 17 मई, 1965 को आंध्र प्रदेश के संघ शिक्षा वर्ग में पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था, ‘‘मुसलमान के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उसके जीवन में राजनीतिक आकांक्षा का निर्माण होता है, जो उसकी प्रकृति को बदल देता है। अर्थात् वह हिंदुस्थान से अलग हो जाता है।  मुसलमान भारत पर ‘राजनीतिक श्रेष्ठता’ स्थापित करने के विचार को लेकर चलते हैं। अत: यह न मजहबी समस्या है और न सामाजिक, यह तो सीधी राजनीतिक समस्या है। यदि पाकिस्तान केवल राजनीतिक दृष्टि से एक अलग सत्ता होती तो कोई चिंता की बात नहीं थी। लेकिन पाकिस्तान एक अलग राजनीतिक सत्ता ही नहीं, अपितु हमारी राष्ट्रीयता से संबंध काटकर अलग राष्ट्रीयता में विश्वास  करता है।’’

आज हिंदुओं में एक वर्ग ऐसा भी है, जो मानता है कि देश का विभाजन ठीक था, अन्यथा मुसलमान यहां रहते तो वे अधिक शक्तिशाली और हिंसक होते। कुछ सेकुलर हिंदुओं को यह लगता भले हो कि मुसलमानों की अनुचित मांगों से समझौता कर वे शांति से रह सकेंगे। परंतु वास्तव में वे निरंतर इस्लामी जिहाद के आगे झुकते रहेंगे और धीरे-धीरे अपना सब कुछ गवां देंगे। संविधान सभा में मद्रास से सदस्य मोहम्मद इस्माइल ने मई 1949 को संशोधन प्रस्ताव रखा कि संविधान में मुस्लिमों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था पूर्ववत बनी रहे। एक पुराने लीगी नेता ने ऐसी मांग रखने की हिम्मत क्यों की, क्योंकि वे हिंदुओं को अच्छी तरह समझते हैं। हालांकि उस समय सरदार पटेल ने गुस्से में उसे पाकिस्तान जाने की सलाह दी थी।

हिंदुओं की इसी सहिष्णु मानसिकता पर गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा था, ‘‘दुर्बलता पाप को उकसाती है। अत: मुसलमान हमें प्रताड़ित करते हैं और हम हिंदू बिना किसी विरोध के सहन करते हैं। ऐसा हमारी कमजोरी के कारण ही संभव हो सका। हमें अपने लिए और अपने पड़ोसी मुसलमानों के लिए भी अपनी कमजोरी को उखाड़ फेंक देना होगा… संभवत: हिंदू और मुसलमान कुछ समय के लिए एक-दूसरे के प्रति एक बनावटी मित्रता स्थापित कर सकते हैं लेकिन ऐसी मित्रता कभी स्थाई नहीं हो सकती है। जब तक तुम उस मिट्टी को नहीं सुधारते, जो केवल कांटेदार झाड़ियों को ही उगाती व पोषित करती है तो तुम उससे कभी किसी फल की आशा नहीं कर सकते हो।’’ (‘कालांतर’, माघ 1333, बंगाब्ध)  स्पष्ट है उनका लक्ष्य संविधान में अपरिभाषित पंथनिरपेक्षता ने हिंदुओं को आज भी किंकर्तव्यविमूढ़ बनाए रखा है, जबकि ‘वोट जिहाद’ की अपील करने वाले नेताओं और अनपढ़ मुसलमानों का भी लक्ष्य स्पष्ट है, जिसे वे विभाजन काल से पोषित करते आ रहे हैं। उन्हें मालूम है कि उनके पूर्वज ‘लड़ के पाकिस्तान’ ले चुके हैं, इसलिए अब ‘हंस के हिंदुस्तान’ लेने की योजना पर बढ़ रहे हैं। इसके लिए ‘वोट जिहाद’ से अधिक वैधानिक रास्ता और क्या होगा, जबकि अभी वे संख्या बल के आधार पर हिंसक जिहाद छेड़ने की स्थिति में नहीं हैं।

पाकिस्तान के वैचारिक जनक अल्लामा इकबाल ने इसे बहुत स्पष्ट कहा है-
जम्हूरियत इक तर्ज-ए-हुकूमत है कि जिस में बंदों को गिना करते हैं, तौला नहीं करते इसलिए जनसांख्यिक बदलाव के लिए अंधाधुंध बच्चे पैदा कर राष्ट्रीय संसाधनों के ऊपर आबादी का बोझ लाद देना और फिर उन्हें वोट बैंक में तब्दील करने की सोच इसी सुनियोजित राजनीतिक जिहाद का हिस्सा है। जो बहुसंख्यक समाज को संविधान पहले और धर्म बाद में, का ज्ञान देते हैं, उनसे पूछना चाहिए कि राज्यसभा के सभापति रहते हुए हामिद अंसारी का संसदीय कार्यवाही के दौरान रोजाना नमाज पढ़ने जाना कौन सी संवैधानिक सेवा थी,

जिसके लिए बसपा सुप्रीमो मायावती ने उन्हें भरी संसद में लताड़ा था। राष्ट्रीय महत्व के कार्य के ऊपर नमाज पढ़ने को किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए? इसी तरह, सपा सांसद आजम खां का सदन में यह कहना कि, ‘‘बंटवारे के वक्त हमें हक था पाकिस्तान जाने का, आपको (हिंदुओं) नहीं था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने तय किया कि ये वतन हमारा है। हम अपनी मर्जी से रुके थे।’’ जरा सोचिए, आजम ने कितना भद्दा तर्क दिया। जिन्होंने हिंदुओं के खून से मुहर्रम मनाया, हिंदू औरतों की अस्मत की ईदी बांटी, बच्चों की लाशों पर कलमा पढ़ा, वे आज हिंदुस्तान में अपने हक की बात कर रहे हैं। यदि उन्हें भारत ही चाहिए था तो फिर वो कौन थे और कौन हैं, जो द्विराष्ट्र के सिद्धांत के हामी थे? वे कौन हैं, जो आज भी हिंदुस्तान में गाहे-बगाहे ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाते हैं?

डॉ. राममनोहर लोहिया ने एक बार कहा था, ‘‘जिस समस्या को सुलझाने के लिए विभाजन स्वीकार किया गया था, वह समस्या विभाजन के बाद भी ज्यों की त्यों मौजूद है।’’ कांग्रेस की मारिया आलम खां का जिहादी वक्तव्य यह दर्शाता है कि भारतीय राजनीति इस्लामिक सम्प्रदायिकता के विषबोध से कितनी विषाक्त हो चुकी है। इस ‘राजनीतिक जिहाद’ में सब कुछ शामिल है और सब कुछ जायज है। भाजपा पर धार्मिक ध्रुवीकरण का आरोप लगाने वाले छद्म पंथनिरपेक्ष ‘कालनेमी’ गिरोह का कोई नेता, पत्रकार या सामाजिक कार्यकर्ता तक, सलमान खुर्शीद की भतीजी की ‘वोट जिहाद’ की अपील पर चुप्पी साधे बैठे हैं।

कट्टरपंथियों का दर्द

कट्टरपंथी मुस्लिम एक ओर बहुसंख्यक हिंदुओं को तरह-तरह से प्रताड़ित करते हैं और दूसरी ओर यह भी दिखाते हैं कि मुस्लिमों को प्रताड़ित किया जाता है। ऐसा क्यों है? हमीद दलवाई ने इसका उत्तर अपनी पुस्तक ‘मुस्लिम पॉलिटिक्स इन सेकुलर इंडिया’ में दिया है। उन्होंने लिखा है, ‘‘मुसलमान, जो अपने ऊपर अत्याचार होने के नारे लगाते हैं, उनमें से बहुतों से मिला कि आप पर कौन-सा अत्याचार होता है, वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हिंदुओं का बहुसंख्यक होना ही मुसलमान पर, इस्लाम पर सबसे बड़ा अत्याचार है, जिसके कारण देश का इतना बड़ा हिस्सा मुस्लिम राष्ट्र में तब्दील नहीं हो सका। जब तक हिंदू समाज बहुसंख्यक रहेगा, तब तक हम इस देश को मुस्लिम राष्ट्र नहीं बना सकते। यही हम पर, इस्लाम पर सबसे बड़ा अत्याचार है।’’ 

हमें समझना होगा कि जब राष्ट्रीय समाज में आंतरिक विभेद और दुराव पैदा होता है, तभी ‘अल्पसंख्यकों’ के कुंठित वर्ग की षड्यंत्रकारी अलगाववादी प्रवृत्ति पैदा होती है, जिसका ध्येय राजनीतिक सत्ता का अधिष्ठाता बनने की होती है। यह अधिकारवादी मानसिकता ‘अल्पसंख्यक’ प्रवृति को राष्ट्रीय समाज में विखंडन पैदा करने को प्रेरित करती है। इसी विकृत मानसिकता का प्रतीक पाकिस्तान है और इसी वैचारिक कुंठा ने ‘खालिस्तान आंदोलन’ को आवाज दी है, वरना जिस ‘खालसा’ की स्थापना सच्चे पादशाह गुरु गोविंद सिंह ने ‘सकल जगत में खालसा पंथ गाजे, जगे धर्म हिन्दुन तुरक धुन्ध भाजै’ के लक्ष्य के साथ की थी। उन्होंने आक्रांता मुसलमानों के विरुद्ध गो-रक्षा का व्रत लिया था, ‘यही देह आज्ञा तुर्क  खपाऊं, गऊ घात ला दोख जग सों मिटाऊं’। 

टकराव के लिए जिम्मेदार कौन? 

यहूदी दार्शनिक बारूच स्पिनोजा कहते हैं, ‘‘यदि आप चाहते हैं कि वर्तमान अतीत से भिन्न हो, तो अतीत का अध्ययन करें।’ कांग्रेस का तो नहीं पता, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रशिक्षित जनसंघ एवं उसकी उत्तराधिकारी भाजपा ने इतिहास से सीखकर वर्तमान राजनीति में विमर्श के वे मुद्दे स्थापित किए, जिन पर मुंह खोलना भी कांग्रेस राज में घोषित नैतिक पाप था। इन्होंने इस्लामिक कट्टरता, मजहब आधारित आरक्षण, लव जिहाद, मुस्लिम तुष्टीकरण और जनसांख्यिकी परिवर्तन पर सवाल उठाए, जिसे कांग्रेस समर्थित वामपंथियों द्वारा ‘बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता’ कहकर लांछित किया गया, जो वास्तव में हिंदुओं की तुष्टीकरण विरोधी प्रतिक्रियात्मक आवाज थी।

विख्यात पुरातत्वविद् केके मुहम्मद अपनी आत्मकथा ‘मैं हूं भारतीय’ में लिखते हैं, ‘‘गुजरात में मुसलमानों की सामूहिक हत्या एक सच्चाई है, परंतु इससे कई गुना क्रूर घटनाएं मध्यकालीन मुस्लिम शासनकाल में हुई थीं। मैं एक बात यहां कहना चाहता हूं कि ‘हिंदू साम्प्रदायिकता’ मूल रूप से नहीं है। कभी-कभी ऐसा कुछ घटनाओं की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ है। गोधरा में भी ऐसा ही हुआ है। वहां ‘साबरमती एक्सप्रेस’ में यात्रा कर रहे तीर्थयात्रियों को जलाने से दंगा शुरू हुआ।’’

इस्लामिक कट्टरपंथियों के दुष्कृत्यों व वैचारिक कुंठा का लंबा इतिहास रहा है। इसके लिए ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। 16 अगस्त, 1946 को ‘सीधी कार्यवाही’ के जरिए हजारों निर्दोष हिंदुओं के नरसंहार को क्या कहेंगे? जो अपनी साहित्यिक मक्कारी की आड़ में विभाजनकालीन हिंसक उपद्रवों को हिंदुओं और मुसलमानों के लिए संयुक्त रूप से शर्मसार करने वाली घटना कहते हैं, उन्हें बताना चाहिए कि उसके लिए हिंदू समाज क्यों शर्मसार होगा? यह खून-खराबा न तो हिंदुओं ने शुरू किया और न ही वे इसके लिए जिम्मेदार थे। हिंदुओं ने तो एक सीमा तक जिहादी अत्याचार झेला, फिर प्रतिरोध किया। मुस्लिमों के हिमायती अखबार ‘स्टेट्समैन’ ने भी दंगों और हजारों हिंदुओं के नरसंहार के लिए सीधे-सीधे मुस्लिम लीग को जिम्मेदार ठहराया था।

कश्मीर घाटी से हिंदुओं को खदेड़ने और उनकी हत्या के क्रमबद्ध षड्यंत्र को जिहाद समर्थक वामपंथी कैसे न्यायोचित ठहराएंगे? इसे भी छोड़िए। अयोध्या रामजन्मभूमि के स्वामित्व के संबंध में बहुत पहले 1976-77 में प्रो. बीबी लाल के नेतृत्व में उत्खनन के दौरान केके मुहम्मद भी उनकी टीम के एक सदस्य थे। अपनी आत्मकथा में केके मुहम्मद उस पूरे षड्यंत्र की गंभीर विवेचना करते हैं कि कैसे उत्खनन के दौरान मिलने वाले हिंदू मंदिर के प्रतीकों को नकारते हुए तत्कालीन भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष एवं कुख्यात वामपंथी इतिहासकार प्रो. इरफान हबीब के नेतृत्व में वामपंथियों ने हिंदू भावनाओं को आहत और अपमानित कर उन्हें उकसाया गया था। वे यह भी बताते हैं कि मंदिर की सच्चाई को स्वीकार करने के बाद भी बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के तत्कालीन प्रमुख सैयद शहाबुद्दीन कट्टरपंथियों और वामपंथियों के दबाव में अयोध्या बाबरी ढांचे को हिंदुओं को सौंपने के अपने विचार से बाद में मुकर गए थे।

एक बार पुरातात्विक उत्खनन के सिलसिले में केके मुहम्मद ओमान के सलाला गए थे। वहां केरल के प्रवासी मुस्लिम श्रमिकों की एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘एक मुसलमान के लिए मक्का-मदीना जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण है एक हिंदू के लिए अयोध्या। मक्का और मदीना अन्य मतावलंबियों के हाथों में पड़े तो… मुसलमान इसकी कल्पना नहीं कर सकते। बैतूल नष्ट हो जाने से जितना दु:ख मुसलमान को हुआ, उतना ही दु:ख रामजन्मस्थान नष्ट हो जाने से हिंदुओं को होता है। मैं उत्तर भारत की कड़ाके की सर्दी में बिना कपड़े, बिना जूते मीलों पैदल चलकर भगवान श्रीराम के दर्शन के लिए तरसते हजारों साधारण हिंदुओं के बारे में कह रहा हूं। उनकी हृदय-वेदना और धार्मिक भावना को सम्मान देने में क्या गलत है?’’ लेकिन तारीख गवाह है कि कांग्रेस के शासन काल में बहुसंख्यक हिंदुओं की भावनाओं का अनादर ही नहीं हुआ, उसे अपमानित भी किया गया। यदि केके मुहम्मद द्वारा उल्लेखित तथ्यों को मानें, तो हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि राम मंदिर आंदोलन समर्थक रथयात्रा इस्लामिक दुराग्रह के विरुद्ध हिंदू अधिकार के राष्ट्रीय आग्रह का प्रतीक थी। कोई चाहे तो इसे हिंदू प्रतिक्रिया भी कह सकता है। जनसंघ नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी कहते थे, ‘‘किसी भी अन्याय का प्रथम में प्रतिवाद करें, प्रतिकार करें, रुख कर खड़े हों, उससे भी काम न चले तो प्रतिरोध करें, उससे भी काम न चले तब प्रतिशोध लें।’’

गोरक्षकों पर हिंसा का आरोप लगाने वालों को पहले इस पर विचार करना चाहिए कि मुसलमानों को जान-बूझकर हिंदुओं की पवित्र भावना का निरादर करते हुए, कानून का उल्लंघन कर गोकशी कर उन्हें उकसाने की जरूरत ही क्यों है? पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हिंदू दुकानदारों के विरुद्ध मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार की अपील और सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त करते हुए सड़कों को घेर कर नमाज अदा करने जिद को उकसावे की कार्यवाही क्यों न माना जाए? गुजरात दंगों पर छाती पीटने वाले गोधरा हत्याकांड के दुष्कर्म को क्यों नहीं याद करते? इस विमर्श से सहज निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि देश में धार्मिक-मजहबी टकराव का संवाहक एवं कारक वास्तव में कौन है। एक तरफ ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ के पैरोकारों का कहना है कि इस्लाम भी हमारा है और मुसलमान भी। तब सहज प्रश्न उठता है कि द्विराष्ट्र सिद्धांत मानने वाले, भारत के विभाजन की मंशा रखने वाले वे कौन हैं, जो हमारे नहीं हैं?

यह तर्क इसलिए नहीं है कि देश में राजनीतिक या पांथिक गोलबंदी का प्रयास हो सके अथवा किसी को उकसाने का प्रयास हो, बल्कि यह विमर्श इसलिए है ताकि देश की बहुसंख्यक जनता एवं उन्हें पांथिक सद्भाव के नाम पर भ्रमित करने वाले कथित वामपंथी बुद्धिजीवी तथा नेता समझ सकें कि झूठ की भीत्ति पर छद्म सामासिक संस्कृति के वैभवशाली महल नहीं खड़े किए जा सकते।

यह तो कांग्रेस की परंपरा

सलमान खुर्शीद  की भतीजी मारिया ने वोट जिहाद की अपील करके कांग्रेस की असली सोच को ही आगे बढ़ाया है। लेकिन इसमें संदेह नहीं है कि कांग्रेस के छोटे नेता ही नहीं, इसके बड़े नेता भी देश विरोध की हद तक जाकर मुसलमानों को संतुष्ट करते रहे हैं। तीन तलाक के बाद गुजारा भत्ता मांग को लेकर शाहबानो की याचिका पर जब 1985 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया तो कट्टरपंथियों को यह रास नहीं आया। वे सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले को इस्लामी मामले में हस्तक्षेप बता कर विरोध प्रदर्शन करने लगे। उन्होंने राजीव गांधी सरकार पर अदालत का निर्णय पलटने का दबाव बनाया तो उन्होंने कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक दिए। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला पलटते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) कानून-1986 पारित कर दिया। इससे नाराज केरल के वर्तमान राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने, जो उस समय केंद्रीय गृह राज्य मंत्री थे, मंत्रिमंडल के साथ कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से भी त्यागपत्र दे दिया था।

‘वोट के लिए मरे हुए मुसलमानों को भी बुलाओ’

गत दिनों पुणे में ‘एलान-ए-लोकसभा चुनाव’ कार्यक्रम आयोजित हुआ। इसमें जमीयत-उलेमा-ए-हिंद ने मुसलमानों से अपील की कि वे दिल्ली में सेकुलर सरकार बनाने के लिए उन उम्मीदवारों को वोट दें, जो भाजपा को हरा सकें। जमात-ए-तंजीम के सदस्य उस्मान हिरोल ने तो खुलेआम मंच से कहा कि मुसलमान बारामती में राकांपा की उम्मीदवार सुप्रिया सुले, शिरूर में अमोल कोहले, पुणे में रविंद्र धांगेकर और मावल में संजोग वाघिरे को वोट दें। उन्होंने यह भी कहा कि सेकुलर सरकार लाने के लिए हर मुसलमान को वोट करना अपना कर्तव्य मान लेना चाहिए। इस कार्यक्रम में लगभग 10,000 मुसलमान शामिल हुए थे। महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इस तरह के बयानों का विरोध करते हुए कहा है कि जिस तरह मुसलमानों का धु्रवीकरण किया जा रहा है, वह घातक है। इससे पहले फरवरी, 2023 में उस्मान हिरोल ने विधानसभा उपचुनाव के दौरान कहा था, ‘मुसलमान जहां भी हों, चाहे सऊदी में हों, दुबई में हों, कुवैत में हों, उन्हें बुलाओ और वोट दिलवाओ। मरे हुए मुसलमानों को भी बुलाओ, तभी पीएम मोदी और आरएसएस को हराना संभव है।’

पंथनिरपेक्षता बचाने की दुहाई 

आज बौद्धिक भेड़ियों की फौज यानी वामपंथी बिग्रेड की ‘देश में फैल रहे फासिज्म व साम्प्रदायिकता’ वाली चीख-पुकार की वास्तविक वजह यही है। 1920 के गांधी युग से वर्तमान तक ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ के मतिभ्रम का शिकार हिंदू अब जाग चुका है। कभी इस छद्म तहजीब को बचाए रखने की कीमत उसने अपने राष्ट्र के विभाजन से चुकाई थी। अब हिंदू इस जिहादी मानसिकता का कठोर प्रत्युत्तर देने को उद्यत हैं। वे अपने धर्म-संस्कृति के रक्षार्थ किसी भी तरह के संघर्ष को तैयार हैं। उनमें अपने वास्तविक इतिहास को जानने की उत्कंठा है, उससे सीखने की आकांक्षा है। इस दौर को भारत में ‘नवहिंदू जागरण का कालखंड’ कह सकते हैं।

महर्षि अरविंद ने कहा था, ‘‘भूतकाल का गौरव, वर्तमान की पीड़ा और भविष्य के सपने जिस देश के नौजवानों में रहते हैं, वह देश प्रगति करता है।’’ आज हिंदू युवा अपने इतिहास और अपने वर्तमान की पीड़ा को समझकर राष्ट्रीय लक्ष्य की ओर अग्रसर हैं। वे देश को पिछले सात दशकों से अधिक समय से सहिष्णुता की कायरता एवं ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ के भ्रम से आजाद कराने को व्यग्र हैं। वामपंथियों और छद्म गांधीवादियों द्वारा निर्मित सामासिक संस्कृति एवं विकृत पंथनिरपेक्षता पर आधारित ‘यूटोपिया’ ध्वस्त हो रहा है। और यही इन तथाकथित ‘वामी-कामी’ जमात के रुदन का मूल कारण है।

मुस्लिम समुदाय की समस्या

इस सारी विवेचना को यदि इस्लामिक समाज की दृष्टि से देखें तो उनकी सबसे बड़ी समस्या है, उनका आत्मावलोकन के गुण से हीन होना। मुसलमान अपने कुंठित मजहबी सिद्धांत पर आधारित वैचारिक नर्क के बंदी हैं, जिसके कारण वे 21वीं के अत्याधुनिक युग में भी बर्बर मध्ययुगीन जीवन जीने को अभिशप्त हैं। मुस्लिम युवा पीढ़ी को इसे समझने की आवश्यकता है। आज मुसलमान दुनिया भर में फसाद एवं हिंसा का पर्याय बनकर जिस तरह वैश्विक समुदाय में अस्वीकृत एवं अपमानित हैं, उससे सम्पूर्ण इस्लामिक समाज अनभिज्ञ नहीं है। वह इस नकारात्मकता के अवबोध के साथ जी रहा है।

मुस्लिम युवाओं को समझना एवं अपने इस्लामिक समाज को यह समझाना होगा कि ‘दीन की दावत’ एवं ‘रसूल के पैगाम’ को दुनियाभर से स्वीकार करवाने की जिद, पूरी कायनात में इस्लाम का परचम लहराने की सनक तथा मुशरिक-काफिरों के ऊपर अल्लाह का ‘ईमान’ थोपने की मानसिक कुंठा वैश्विक समुदाय को एक वृहत् टकराव की ओर धकेल रही है, जहां गैर-इस्लामिक समाज इन पाशविक विकृतियों का कटु विरोध करने की ओर तत्पर है। यदि इस्लामिक समाज ने अपने इन ‘मनोरोगी’ गाजियों और जिहादियों पर समय रहते नकेल नहीं लगाई तो निकट भविष्य में उन्हें गैर-मुसलमानों, चाहे वे यहूदी, हिंदू या ईसाई हों, के हिंसक प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है।

यह आम सत्य है कि व्यक्ति या समुदाय, चाहे कितना भी शांति का हामी या सहिष्णु हो, अपने धर्म-संस्कृति पर एक दायरे से अधिक आक्षेप बर्दाश्त नहीं करेगा। जिस सीमा पर इस अहिंसावाद की इतिश्री होगी, उसके अगले चरण में हिंसा के कठोर रूप का प्रस्फोट हो सकता है। यदि इस्लामिक जिहादी दुनिया को उस टकराव की अवस्था तक खींच ले जाना चाहते हैं तो क्या वे उसके बाद के विद्रूप अवस्था की भी कल्पना कर रहे हैं, जो इसके प्रतिकार स्वरूप उन्हें मिलेगी? क्योंकि इसे झेलने की क्षमता उनमें नहीं है, जैसा कि इस्राएल के हमास विरोधी अभियानों में दिख रहा है। हमास के विरुद्ध इस्राएल के प्रतिकार करते ही फिलिस्तीनियों का सारा जिहाद ‘शांति के रुदन’ में बदल गया। अत: मुस्लिम युवा पीढ़ी की ही यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने समुदाय को आधुनिक दिशा-निर्देशन एवं जीवन मूल्यों से परिचित करवाए।

जहां तक भारत का संदर्भ है, तो दुनिया के सबसे सहिष्णु धर्मावलंबियों के साहचर्य में शामिल भारतीय मुसलमानों को हिंदुओं के इस क्षमाशील आत्मीयता का ईमानदारीपूर्वक सम्मान करना चाहिए। ये सनातन मान्यताएं ही हैं, जिन्होंने बंटवारे के दंश से पीड़ित ‘अल्पसंख्यकों’ को इज्जत के साथ स्वीकार किया। जैसा कि के.के मुहम्मद लिखते हैं, ‘‘सोचिए, अगर भारत एक मुस्लिम बहुसंख्यक राष्ट्र होता तो क्या पंथनिरपेक्ष राष्ट्र होता? कभी नहीं। अगर भारत एक मुस्लिम बहुसंख्यक देश होता तो अल्पसंख्यक हिंदुओं को अलग हिंदू राष्ट्र देने के बाद भारत को एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित नहीं करता। यही है हिंदू संस्कृति में अंतर्निहित विशाल भावना, हिंदू संस्कृति की सहिष्णुता। इस मानसिक स्थिति को हमें मानना पड़ेगा, उसका आदर करना पड़ेगा। अगर भारत में हिंदुओं को छोड़कर और किसी अन्य रिलीजन वाले बहुसंख्यक होते तो अल्पसंख्यक मुसलमान की क्या दशा होती? ऐतिहासिक सच्चाइयों को मानते हुए समझौते के लिए हर क्षेत्र के लोगों को तैयार हो जाना है।’’

अब प्रश्न यह है कि वर्तमान में कट्टरवाद से उपजी इस विकृत जिहादी अवधारणा के समक्ष सनातन समाज का रुख क्या हो? इसे रूसी लेखक लियो टॉल्सटॉय के विचार से समझना चाहिए, जिससे ब्रिटिश-अमेरिकी कवि टी.एस. इलियट भी सहमत हैं, ‘‘समाज में सदैव दो प्रवृत्तियां, परिघटनाएं कार्यरत रहती हैं- सकारात्मक और नकारात्मक। दोनों के बीच संघर्ष चलता रहता है। भविष्य में कौन प्रबल होगा, यह कोई नहीं जानता। विवेकशील मनुष्यों का कर्तव्य होता है कि वे जिसे उचित समझते हैं, वह कार्य करते रहें।’’ हालांकि पं. दीनदयाल उपाध्याय इसका स्पष्ट उपाय बताते हैं, ‘मुसलमानों की राजनीतिक पराजय’, क्योंकि तभी इस अलगाववादी राष्ट्रीयता से निपटना संभव होगा। यह कार्य कब, किसके द्वारा होगा, इस पर उनका जवाब है कि ‘जिनमें राष्ट्रीयता का भाव शाश्वत रहेगा, वही यह कार्य कर सकेंगे।’

 

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