भगवान परशुराम विष्णु जी के छठे अवतार हैं। उनका जन्म वैशाख माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ था और इस साल यह आज यानी 10 मई को है। महान शिवभक्त परशुराम जी की मां का नाम रेणुका और पिता का नाम जमदग्नि था। आठ चिरंजीवियों में उनकी गिनती होती है। इतना ही नहीं उन्होंने संपूर्ण पृथ्वी जीतकर दान कर दी थी।
श्रीरामचरितमानस में जब भगवान राम शिवधनुष भंग करते हैं तो उनका क्रोध देखते बनता है। वह भगवान राम को युद्ध की चुनौती देते हैं और बाद में अपने धनुष पर बाण संधान करने का आग्रह करते हैं। क्या आप जानते हैं कि उस धनुष का निर्माण किसने किया था और वह भगवान परशुराम तक कैसे पहुंचा और उन्होंने संपूर्ण पृथ्वी जीतने के बाद दान किसे कर दी। तो आपको बताते हैं।
भगवान परशुराम के पास जो दिव्य धनुष है उसका निर्माण देवशिल्पी विश्वकर्मा जी ने किया था। महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण में उल्लेख मिलता है कि भगवान शिव और विष्णु के धनुष का निर्माण विश्वकर्मा जी ने किया था। एक बार भगवान विष्णु और भगवान शिव में युद्ध हुआ था। युद्ध समाप्त हुआ तो भगवान शिव ने अपना धनुष मिथिला नरेश जनक के पूर्वज देवरात को दे दिया। भगवान विष्णु ने अपने इस वैष्णव धनुष को भृगुवंशी ऋचीक मुनि को उत्तम धरोहर के रूप में दिया था। इसके बाद महातेजस्वी ऋचीक ने प्रतिकार की भावना से रहित अपने पुत्र जमदग्नि के अधिकार में यह दिव्य धनुष दिया।
इन्हीं जमदग्नि ऋषि के पुत्र हैं परशुराम। तपोबल से संपन्न जमदग्नि ऋषि जब अस्त्र-शस्त्रों का परित्याग करके ध्यानस्थ होकर बैठे थे तभी कृतवीर्यकुमार अर्जुन ने उनकी हत्या कर दी। पिता के भयंकर वध का समाचार सुनकर परशुराम जी अत्यंत क्रोधित हुए। संपूर्ण पृथ्वी पर अधिकार करके उन्होंने यज्ञ किया। यज्ञ समाप्त होने पर परशुराम जी ने धर्मात्मा कश्यप को दक्षिणा के रूप में संपूर्ण पृथ्वी दे दी। पृथ्वी का दान करके वह महेंद्रपर्वत पर रहने लगे।
रामायण में प्रसंग है कि भगवान परशुराम, श्रीराम से कहते हैं कि इस प्रकार यह महान वैष्णव धनुष मेरे पिता पितामह के अधिकार में रहता चला आया है। अब तुम क्षत्रिय धर्म को सामने रखकर यह उत्तम धनुष अपने हाथ में लो और इस श्रेष्ठ धनुष पर एक ऐसा बाण चढ़ाओ जो शत्रुनगरी पर विजय पाने में समर्थ हो। यदि तुम ऐसा कर सके तो मैं तुम्हें द्वन्द्व युद्ध का अवसर दूंगा।
बार बार कहने पर भगवान राम ने उनसे धनुष और बाण अपने हाथ में ले लिया और परशुराम जी की वैष्णवी शक्ति भी वापस ले ली। इसके बाद उन्होंने कहा कि भृगुनंदन राम, आप ब्राह्मण होने के नाते मेरे पूज्य हैं और विश्वामित्र जी से भी आपका संबंध है, इस वजह से इस प्राण संहारक बाण को आपके शरीर पर नहीं छोड़ सकता।
भगवान राम परशुराम जी से कहते हैं कि मेरा विचार है कि आपको जो सर्वत्र शीघ्रतापूर्वक आने-जाने की शक्ति प्राप्त है उसे अथवा आपने अपने अनुपम तपोबल सो जिन पुण्यलोकों को प्राप्त किया है, उन्हीं को नष्ट कर दूं। इस पर परशुराम जी ने कहा कि रघुनंदन, पूर्वकाल में मैंने कश्यप जी को जब यह पृथ्वी दान की थी तब उन्होंने कहा था कि मुझे उनके राज्य में नहीं रहना चाहिए। तभी से अपने गुरु कश्यप जी की आज्ञा का पालन करता हुआ कभी रात में पृथ्वी पर निवास नहीं करता हूं। मैंने रात में पृथ्वी पर न रहने की प्रतिज्ञा कर रखी है। इसलिए आप मेरी गमनशक्ति को नष्ट न करें। मैं मन के वेग से महेंद्र नामक पर्वत पर चला जाऊंगा। आप मेरे अनुपम लोकों को नष्ट कर दीजिए। आपके सामने मेरी जो असमर्थता प्रकट हुई है वह मेरे लिए लज्जाजनक नहीं है क्योंकि आप त्रिलोकीनाथ श्रीहरि ने मुझे पराजित किया है। इसके बाद वह महेंद्रपर्वत पर वापस चले गए।
टिप्पणियाँ