पाश्चात्य व वामपंथी ‘बुद्धि के हिमालयों’ ने एक साजिश के तहत अपनी लेखनी के माध्यम से भारत में यह भ्रम फैलाया कि अकबर महान था। यह पूरी तरह से झूठ है। महाराणा प्रताप अद्वितीय योद्धा, महान त्यागी, सफल कूटनीतिक, कुशल प्रशासक थे, जबकि अकबर इस्लामी आक्रांता के सिवाय कुछ न था
राणा प्रताप के जीवन-वृत्त को लेकर इतिहासविदों ने बहुत कुछ लिखा है। उन्हें अद्वितीय योद्धा,अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी, महान त्यागी, बलिदानी, सफल कूटनीतिज्ञ और कुशल प्रशासक बताते हुए उनकी प्रशंसा की है, लेकिन जब इन्हीं लेखकों ने अकबर के साथ प्रताप की तुलना की है तो प्रताप को ‘संकीर्ण एवं छोटे उद्देश्य के लिए’ संघर्ष करने वाला तथा अकबर के तथाकथित राष्ट्रीय एकता के कार्य में असहयोग करने वाला अदूरदर्शी योद्धा बताते हुए अकबर को महान कहा है। इतिहासविदों का यह विरोधाभास उनके पक्षपातपूर्ण आचरण को रेखांकित करता है, साथ ही इससे यह भी स्पष्ट होता है कि वे केवल फारसी स्रोतों से ही प्रभावित हैं। उन्होंने संस्कृत एवं राजस्थानी स्रोतों के अवलोकन का आंशिक प्रयास तक नहीं किया है।
वस्तुस्थिति यह है कि पाश्चात्य इतिहासविद् विन्सेंट स्मिथ ने केवल फारसी ग्रंथों को आधार बनाकर अपनी ‘अकबर: द ग्रेट मुगल’ शीर्षक पुस्तक में अकबर को महान सिद्ध किया है। लगभग इसी पुस्तक से प्रभावित होकर डॉ़ आशीर्वाद श्रीवास्तव ने भी ‘अकबर द ग्रेट’ शीर्षक पुस्तक के आधार पर अकबर को ही महान बताया है। इन दोनों पुस्तकों की सामग्री को ही अन्तिम सत्य मान कर पाश्चात्य व वामपंथी इतिहासविदों ने भी अकबर को महान बताने में ही अपनी लेखनी का उपयोग किया है। फारसी स्रोतों के अलावा संस्कृत व राजस्थानी में उपलब्ध विपुल सामग्री की ओर इन इतिहासकारों ने दृष्टिपात ही नहीं किया। जब तक उपर्युक्त फारसी एवं विपुल परिमाण में उपलब्ध संस्कृत व राजस्थानी भाषा से सम्बन्धित स्रोतों का तटस्थ एवं तुलनात्मक मूल्यांकन कर निष्कर्ष नहीं निकाला जाएगा, तब तक अकबर या प्रताप किसी को महान बताना न्यायसंगत नहीं होगा।
प्रताप का जीवन सादगीपूर्ण था। अपनी प्रजा के हितों को सर्वोपरि रखना प्रताप की सामान्य प्रवृत्ति थी, फलस्वरूप उनकी ये सब बातें उनके सहयोगियों के लिए आदर्श बन गईं। प्रताप की इन्हीं चारित्रिक विशेषताओं के कारण अकबर की तुलना में उन्हें महान कहना प्राकृतिक न्याय की दृष्टि से स्वाभाविक भी है। प्रताप ने जाति, पंथ, सम्प्रदाय आदि संकीर्ण धारणाओं से ऊपर उठकर सदा राजधर्म का पालन किया।
इस आलेख में इन दोनों स्रोतों का तटस्थ भाव से मूल्यांकन करने पर जो निष्कर्ष निकलता है, उससे स्पष्ट है कि केवल और केवल महाराणा प्रताप ही महान हैं, अकबर नहीं। प्रताप महान क्यों हैं? सार रूप में निष्कर्ष इस प्रकार है – महाराणा उदयसिंह (1537-72) की मृत्यु के बाद 28 फरवरी, 1572 को प्रताप सिंह जब मेवाड़ की गद्दी पर आरूढ़ हुए, उस समय राज्य की स्थिति अच्छी नहीं थी। उन्हें विरासत में जो मेवाड़ मिला, वह केवल 450 वर्ग किमी़ भूभाग की परिधि में ही बसा हुआ पहाड़ी भाग था। मेवाड़ की परंपरागत राजधानी चित्तौड़गढ़ तथा मेवाड़ का मैदानी भूभाग अकबर के कब्जे में चला गया था। अकबर के साथ 1568 में हुए युद्ध में मेवाड़ के अधिकांश वरिष्ठ सामंत और अनुभवी योद्धा खेत रहे थे। व्यवस्थित सैन्य संगठन भी नहीं था। चित्तौड़गढ़ छूट जाने से राजकोष भी खाली था। प्रताप के पास मेवाड़ का पहाड़ी भूभाग होने के कारण प्रशासनिक व्यवस्था भी अनुकूल नहीं थी।
ऐसी स्थिति में प्रताप के समक्ष मेवाड़ को पुन: अपने पैरों पर खड़ा करने की बड़ी चुनौती थी। उधर, अकबर की मेवाड़ को अपने साम्राज्य में मिलाने की तीव्र महत्वाकांक्षा थी। प्रताप की जगह कोई कमजोर शासक होता तो वह अकबर की दासता स्वीकार कर लेता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। प्रताप ने 19 जनवरी, 1597 को जब अंतिम सांस ली, तब तक उन्होंने मेवाड़ को पुन: पुराने वैभव पर पहुंचा दिया था, ऐसा उनके महान व्यक्तित्व के कारण ही संभव हो सका।
दृढ़ नैतिक चरित्र था प्रताप का
प्रताप के इस महान व्यक्तित्व के मूल में उनका दृढ़ नैतिक चरित्र था। इस नैतिक चरित्र की आत्मा प्रताप के उच्च राष्ट्रीय आदर्श, दृढ़ मनोबल, असीम धैर्य और अटल निश्चय से परिपूर्ण थी। उनके इसी चरित्र ने उनके सहयोगियों को निरंतर प्रेरित, उत्साहित और संघर्ष काल में उन्हें सदा आशावादी तथा जुझारू बनाए रखा। प्रताप का जीवन सादगीपूर्ण था। अपनी प्रजा के हितों को सर्वोपरि रखना प्रताप की सामान्य प्रवृत्ति थी, फलस्वरूप उनकी ये सब बातें उनके सहयोगियों के लिए आदर्श बन गईं। प्रताप की इन्हीं चारित्रिक विशेषताओं के कारण अकबर की तुलना में उन्हें महान कहना प्राकृतिक न्याय की दृष्टि से स्वाभाविक है। प्रताप ने जाति, पंथ, सम्प्रदाय आदि संकीर्ण धारणाओं से ऊपर उठकर सदा राजधर्म का पालन किया। अकबर के विरुद्ध उनके संघर्ष में क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, मुसलमान, वनवासी भील आदि सभी जातियों की सक्रिय भागीदारी रही।
राणा प्रताप स्त्रियों को हमेशा सम्मान की दृष्टि से देखते थे। जब कुंवर अमर सिंह अब्दुर्रहीम खानखाना की बेगमों को कैद कर लाए तो प्रताप ने उन्हें डांट कर महिलाओं को ससम्मान लौटाने का आदेश दिया। इसके विपरीत अकबर का मीना बाजार में जाना, उसके दरबारी रत्न पृथ्वीराज राठौड़ की पत्नी करुणावती का अकबर को सबक सिखाना एवं अकबर के हरम में 6,000 बेगमों का होना उसके चरित्र को स्वयं उजागर करता है।
कट्टर था अकबर, सहिष्णु थे प्रताप
धार्मिक मान्यता की दृष्टि से प्रताप शैवमतावलम्बी थे। वैसे मेवाड़ के असली शासक एकलिंग (शिव) हैं। मेवाड़ के महाराणा दीवान के तौर पर उस पर शासन करते थे, लेकिन प्रताप ने धार्मिक सहिष्णुता व समभाव की नीति अपनाई। एक ओर प्रताप ने धार्मिक दृष्टि से उदार व भेदभाव विहीन नीति का अनुसरण किया तो दूसरी ओर अकबर ने दीन-ए-इलाही नामक नवीन मजहब की नींव डाली और उसका पैगम्बर बन बैठा, लेकिन उसे जनसमर्थन नहीं मिला।
अकबर स्वयं कट्टर सुन्नी मुसलमान था। एक समय ऐसा आया जब वह ‘इमामेआदिल’ का पद ग्रहण कर एवं खुतबा पढ़कर राज्य सत्ता के साथ-साथ मजहबी विषयों का बड़ा अधिकारी भी बन बैठा। इससे सभी उलेमा क्षुब्ध हो गए, लेकिन अकबर विचलित नहीं हुआ। अकबर की तथाकथित मजहबी सहिष्णुता की नीति के बावजूद मुगलाधीन प्रदेशों में मजहबी कट्टरता और अत्याचार की घटनाएं होती रहीं। हल्दीघाटी युद्ध की एक घटना बताती है कि अकबर की मजहबी सहिष्णुता कैसी थी? ‘मुन्तखुब-उत-तवारीख’ का कर्त्ता अलबदायूनी अपने ग्रंथ में लिखता है कि हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप के राजपूत सैनिक और मानसिंह के राजपूत सैनिक पहनावे की दृष्टि से एक जैसे लग रहे थे, तब उसने आसिफ खां से पूछा कि प्रताप के सैनिक कौन से हैं और मानसिंह के सैनिक कौन से हैं? मैं किन राजपूत सैनिकों पर कैसे वार करूं? इस पर आसिफ खां ने कहा कि तुम वार किए जाओ, जो भी मरेगा, काफिर ही मरेगा। तो ऐसी थी अकबर की ‘मजहबी सहिष्णुता’।
चतुर कूटनीतिज्ञ थे प्रताप
अकबर की तुलना में प्रताप चतुर कूटनीतिज्ञ थे। उनकी कूटनीति को अकबर समझ ही नहीं सका। उसने हल्दीघाटी युद्ध से पूर्व प्रताप को अपनी अधीनता स्वीकार कराने की दृष्टि से अलग-अलग समय पर चार शिष्टमण्डल भेजे लेकिन प्रताप बड़ी चतुराई के साथ लगभग तीन वर्ष तक इन शिष्टमण्डलों के साथ सुलहवार्ता चला कर युद्ध को टालते रहे और इस अवधि में राजस्थान की मुगल विरोधी राजपूत व पठान शक्तियों के बीच तालमेल कायम करने तथा उनके द्वारा अलग-अलग स्थानों पर लड़ाई के मोर्चे खोलने में प्रताप सफल रहे। परिणामस्वरूप मेवाड़ को घेरने तथा प्रताप को अकेला करने में अकबर को बहुत परेशानी हुई।
प्रताप जब मेवाड़ की गद्दी पर बैठे, उस समय सैन्य व्यवस्था की दृष्टि से राज्य बहुत कमजोर स्थिति में था। लेकिन प्रताप ने अपनी प्रतिभा व योग्यता के बल पर सैन्य संगठन, सैन्य संचालन और व्यूह रचना कर इस तरह की विशिष्ट उपलब्धि प्राप्त कर ली, जिसके फलस्वरूप वह दीर्घकाल तक शक्तिशाली मुगल सेना का प्रभावी सामना कर सके। भीलों के अलावा अन्य सभी असैनिक जातियों का सेना में उपयोग कर प्रताप ने मेवाड़ की सम्पूर्ण जनता को पारम्परिक सेना के रूप में सकारात्मक सहयोग व समर्पण की दृष्टि से बदल दिया। यह प्रताप की प्रशासनिक व नेतृत्व क्षमता को ही प्रदर्शित करता है।
कतिपय इतिहासकारों ने प्रताप पर यह आरोप लगाया है कि उन्होंने अकबर के साथ संधि नहीं की और अकबर द्वारा स्थापित ‘संघीय साम्राज्य’ में सम्मिलित नहीं हुए। फलस्वरूप राष्ट्रीय एकता तथा भारत को एकसूत्र में बनाये रखने में बाधा पैदा हुई तथा इससे मेवाड़ की बरबादी भी हुई। इतिहासकारों के इस आरोप पर प्रताप को कोसना न्यायोचित नहीं है। क्योंकि इन लोगों ने प्रताप के समकालीन संस्कृत व राजस्थानी साहित्य को नहीं देखा। वे आधुनिक युग के राष्ट्र व संघीय विचारों व मान्यताओं की नजर में मध्यकाल की घटनाओं को देख रहे है, जो सही नहीं है। प्रताप आठवीं शताब्दी से चली आ रही अपनी स्वाधीनता को, वंश-गौरव को तथा अपनी अस्मिता को कैसे छोड़ते? इसकी रक्षा करना उनका जन्मसिद्घ अधिकार था। इस तरह प्रताप अपनी दृष्टि से सही थे, दोषी था तो केवल अकबर, उसकी हठधर्मिता।
राष्ट्रीय एकता की बात करने वाले इतिहासकार इस बात पर मौन धारण कर लेते हैं कि स्वयं अकबर को अपने साम्राज्य की एकता को कायम रखने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। मालवा व जौनपुर में उज्बेगों का विद्रोह, बंगाल का विद्रोह, गुजरात का विद्रोह, तैमूर मिर्जाओं का विद्रोह आदि इसके प्रमाण हैं। यहां तक कि अकबर के पुत्र सलीम ने भी अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था, किन्तु मेवाड़ में ऐसा नहीं हुआ। मेवाड़ के सभी जागीरदार प्रताप के प्रति हमेशा विश्वसनीय बने रहे। यहां तक कि मेवाड़ की जनता अपने सुख-दु:ख की चिन्ता किये बगैर प्रताप के साथ कंधे से कंधा लगाकर जुड़ी रही।
अविश्वसनीय था अकबर
अकबर को महान बताने वाले इतिहासकार यह भूल जाते हैं कि वह कभी विश्वसनीय व्यक्ति नहीं रहा। उसने हमेशा अपने मित्रों व सहयोगियों के साथ विश्वासघात किया। बैरमखां, जो अपने पिता के समय से लेकर अकबर को गद्दी पर बैठाने, शासन व्यवस्था को व्यवस्थित करने तथा अकबर के साम्राज्य विस्तार में एक वफादार सहयोगी की भूमिका में रहा, उसे अकबर ने अपने से दूर कर मक्का जाने को विवश किया और अंत में उसकी हत्या करवा दी। उसने कुंवर मानसिंह, जो रिश्ते में अकबर का सम्बन्धी था, उस पर भी कभी विश्वास नहीं किया। माहम अनगा अकबर की धाय थी। किन्तु उसने उसके पुत्र अदहम खां से नाराज होकर महलों से उसे नीचे गिराकर उसकी हत्या करवा दी।
इस्लामिक आक्रांता का चरित्र
अकबर ने ताकत के बल पर अपने साम्राज्य का तो विस्तार किया किन्तु अपने साम्राज्य से जुड़ी जल सीमाओं की वह सुरक्षा नहीं कर पाया। जल सीमाओं की इस अनदेखी के कारण पुर्तगालियों व अंग्रेजों को भारत में प्रवेश का मौका मिला। अकबर की इस अदूरदर्शिता के कारण ही भारत में अंग्रेजों को अपनी जड़ें जमाने का सुनहरा अवसर मिला, इस कारण आगे चल कर भारत को अंग्रेजों का गुलाम बनना पड़ा।
अकबर को महान बताने वाले इतिहासकार यह भूल जाते हैं कि वह कभी विश्वसनीय व्यक्ति नहीं रहा। उसने हमेशा अपने मित्रों व सहयोगियों के साथ विश्वासघात किया। कई घटनाएं हैं जो अकबर के अविश्वसनीय और विश्वासघाती व्यक्तित्व को उजागर करती हैं। इसके विपरीत प्रताप अपने मित्रों, परिजनों के प्रति सदैव विश्वसनीय रहे। एक भी घटना ऐसी नहीं है जो प्रताप को अविश्वसनीय सिद्ध करे।
इन तथ्यों से स्पष्ट होता है कि अकबर एक विदेशी आक्रांता था। उसने अपनी ताकत के बल पर भारत के परम्परागत शासकों की स्वतंत्रता छीन कर छल-बल से अपने अधीन कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया, लेकिन न तो वहां के शासक और न ही वहां की प्रजा अकबर के साथ दिल से जुड़ पाई। कहीं न कहीं लगातार विद्रोह होते रहे। अकबर का चरित्र इस्लामिक आक्रांता का चरित्र है। 1568 में चित्तौड़गढ़ पर कब्जा कर 30,000 वृद्ध नर-नारियों का कत्लेआम इसका उदाहरण है। ऐसे अकबर को महान कैसे कह सकते हैं? इसी तरह 1576 के हल्दीघाटी के युद्ध से लेकर 1586 तक के दस वर्षों में अकबर ने मेवाड़ पर क्रूरतम सैनिक अभियान किए, लेकिन लगातार विफल रहा और अन्त में हार मान कर उसने सैनिक अभियान ही बन्द कर दिए। यह प्रताप की विजय थी।
अकबर के साम्राज्य की तुलना में क्षेत्र, साधन व शक्ति के स्तर पर प्रताप एक छोटे से भूभाग का शासक था। वे अकबर की तरह साधन सम्पन्न भी नहीं थे, लेकिन प्रताप ने उसका जिस शौर्य के साथ मुकाबला किया और मेवाड़ की स्वतंत्रता को अन्ततोगत्वा कायम रखा, इस दृष्टि से वे हमेशा के लिए स्वतंत्रता का प्रकाशस्तम्भ बन गए। स्वतंत्रता के पुजारी प्रताप के इस संघर्ष ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को बड़ी मात्रा में प्रेरणा दी और आज भी प्रेरणा मिल रही है। महान उसे ही माना जाता है जो अपने जीवनकाल में और बाद में आम जनता को प्रेरणा दे, प्रजा के दिलों पर राज करे। प्रताप के इसी शौर्य, उज्ज्वल चरित्र तथा उसके स्वातंत्र्य प्रेम ने उन्हें जननायक बनाया। अकबर चाहे कितना भी शक्तिशाली था किन्तु वह जननायक तब भी न बन सका और आज भी नहीं है।
(लेखक राजस्थान विद्यापीठ के पूर्व शोध निदेशक हैं)
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