विश्वपटल पर भासित भारत का आभामण्डल और प्रखर हो,यह हर भारतवासी की अभिलाषा है। विश्व के पथ प्रदर्शन की भारत की भावी भूमिका हेतु अनुकूल पृष्ठभूमि निर्माण में सभी राष्ट्रवादी संगठन जुटे हुए हैं। इसी संकल्पपूर्ति हेतु “संस्कार भारती” ने विगत समय एक अभिनव प्रयोगात्मक आयोजन किया ।
वैदिक और उत्तर वैदिक काल में भारत का आध्यात्मिक प्रभाव पूर्व में थाईलैण्ड, इण्डोनेशिया, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो आदि में उपलब्ध मन्दिरशिल्प से आज भी सप्रमाण पुष्ट होता है वही पश्चिम की ओर ईरान इराक ही नहीं अपितु सुदूर यूरोप तक यह प्रभाव रहा है। हमारे इस दृढ़ भाव की ऐतिहासिक प्रामाणिकता सिद्ध करने हेतु ICCS अ भा वनवासी कल्याण आश्रम आदि संगठनों के द्वारा निरन्तर सम्पर्क एवं शोधपरक कार्यक्रम किए जाते रहे हैं। इसी शोध का एक परिणाम यह ज्ञात हुआ कि यूरोपीय क्षेत्र के स्लेविक, केल्टिक, रोमुआ आदि मूल वनवासी समुदाय पूर्व में वैदिक संस्कृति को मानने वाले ही रहे हैं। उनके पूज्य देवी देवता भी हमारी ही भांति इंद्र, सूर्य, अग्नि, लक्ष्मी जी, काली मां, कल्कि, कुबेर आदि हैं। लिथुआनिया का राष्ट्रीय ध्वज पर चिह्न भी अश्वारोही कल्कि का चिह्न है। यहां की भाषा के सैकड़ों शब्द भी संस्कृत से प्रादुर्भूत हैं। स्वस्तिक उनका धार्मिक शुभ चिन्ह है। उनके विवाह भी हिन्दू रीति से समानता लिये अग्नि की साक्षी में सम्पन्न होते हैं।
पोलैंड में होली और देवी पूजा के पर्व भी कुछ भिन्नता लेकर मनाये जाते हैं। लिथुआनिया के प्रसिद्ध लोकवाद्ययंत्र “केंकलस” का सम्बन्ध वे हमारे तीर्थ कनखल से जोड़ते हैं। भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र का लोक संगीत इनके संगीत से बहुत मेल खाता हुआ है। लिथुआनिया वासियों का स्वतंत्रता संग्राम भी भारत की ही भाँति एक लम्बी संघर्ष यात्रा का रहा है। उन्होंने अपने स्वतंत्रता संग्राम में “जौहर” भी किया था। चित्तौड़गढ़ का “जौहर” हर लिथुआनियावासी के लिए प्रेरणादायी है। अतः यह अब स्वयंसिद्ध है कि भारतभूमि की “संस्कृति पताका” अपनी भूमि से लगभग 5000 किलोमीटर से भी अधिक दूरी तक फहराया करती थी। ये सभी समुदाय प्रकृति पूजक और संगीत प्रेमी हैं। जीवन का हर प्रसंग ये संगीत से जोड़कर मनाते हैं।
इनका संगीत भी कहीं न कहीं भारत से प्रभावित रहा है। अतः भारत की भावी वैश्विक भूमिका के लिए अनुकूलन हेतु संगीत विधा को आधार बनाकर “संस्कार भारती” द्वारा इन दोनों संस्कृतियों में निकटता लाने और समानता का भान कराने के उद्देश्य से ICCS व वनवासी कल्याण आश्रम के सहसंयोजन में भारत में सांगीतिक प्रस्तुति शृंखला नियोजित की गई। गतवर्ष लिथुआनिया के “रोमूवा” समुदाय के एक संगीत दल को भारत आमन्त्रित किया गया जिसका नेतृत्व वहाँ की गुरुमाता डॉक्टर इनिया ट्रिंकेंनेने कर रही थी।
भारत के सम्पूर्ण सांस्कृतिक एवं परिवार व्यवस्था से परिचय की दृष्टि से इस दल की आवास एवं भोजन व्यवस्था भी संस्कार भारती के कार्यकर्ताओं के घरों में रखी गई। इस कार्यक्रम शृंखला के आयोजन स्थल दक्षिण से प्रारम्भ कर उत्तर की ओर क्रमशः चेन्नई, बेंगलुरु, इंदौर, वाराणसी, आगरा, मथुरा और दिल्ली रखे गए। इन सभी स्थानों पर आयोजित कार्यक्रमों में इस दल की अपनी लोक सांगीतिक प्रस्तुतियों के साथ-साथ स्थानीय भारतीय संगीत का प्रतिनिधि प्रदर्शन भी किया गया। प्रत्येक कार्यक्रम का समापन लिथुआनियाई कलाकार सुश्री वेत्रा द्वारा “वन्दे मातरम्” के सम्पूर्ण गायन से किया जाना सभी के लिए एक रोमांचक अनुभव था। इसी प्रकार लिथुआनियाई दल द्वारा अपने एक गीत के आंशिक हिंदी अनुवाद गायन और “हर हर शंभो” गायन ने भी श्रोताओं को झूमने पर विवश कर दिया।
इस दल का नेतृत्व कर रही डॉक्टर इनिया ट्रिंकेनेने अपने भावुक सम्बोधन में यही कहा कि “आप सभी के व्यवहार, यहां की संस्कृति और संगीत को देख सुनकर मैं यही कहूंगी कि “India is our second mother land” इस सम्पूर्ण शृंखला के प्रत्येक कार्यक्रम में उपस्थित सभी माननीय अतिथिगण एवं कलाकारों का आत्मीय सम्मान किया गया। प्रत्येक आयोजन में समाज के प्रतिष्ठित जन उपस्थिति ने इन आयोजनों को और सार्थकता प्रदान की।कार्यक्रम में सहभागी सुधी श्रोताओं ने इन आयोजनों की मुक्त कंठ से सराहना की।
इसी क्रम में इस वर्ष अभी कुछ समय पूर्व पोलैंड के स्लेविक समुदाय के एक दल “दुनायोवी” का सांस्कृतिक आदान प्रदान कार्यक्रम रचा गया। यह स्लेविक समुदाय मुख्यतः पोलैंड, चेक रिपब्लिक, स्लोवाकिया, यूक्रेन, क्रोएशिया और दक्षिणी रूस में बसा हुआ है। हमारी ही भांति ब्रह्माण्डीय वृक्ष कल्पना, देवासुर संग्राम, मोक्ष-कामना, होलिका पर्व आदि इस समुदाय में कुछ भिन्नता के साथ प्रतिष्ठित हैं।
इस स्लेविक सांस्कृतिक दल के कार्यक्रम क्रमशः मथुरा,वाराणसी और हरिद्वार में आयोजित किए गए। इन सभी कार्यक्रमों में “दुनायोवी” दल द्वारा अपनी एक घंटे की सांगीतिक प्रस्तुति में प्रकृति,नदी, ऋतु, देवी-देवता एवम पूर्वज आदि विषयक गीतों का गायन किया गया। इसके पश्चात भारतीय संगीत परिचायक स्थानीय उत्कृष्ट प्रस्तुतियां दी गई। “दुनायोवी” दल के सदस्यों को श्रीकृष्ण जन्मभूमि के दर्शन भी कराए गए। वाराणसी में इस दल के नायक श्री मिकोलाय के इन उद्गारों के साथ कि “हमें काशी में मणिकर्णिका घाट पर शवदाह देखकर हमारे यहां प्रचलित लोकगीत की स्मृति हो आई जिसका भाव है कि मेरी मृत्यु के बाद मेरा शरीर का दाह संस्कार कर दिया जाए और फिर मेरी राख को यत्र तत्र बिखेर दिया जाए। मेरी राख से पुन: पौधे और पुष्प प्रकट होंगे जिन्हें देखकर मेरी आने वाली पीढ़ियां मुझे याद करेगी। एक बहुत ही भावपूर्ण गीत प्रस्तुत किया गया।
इस दल को हरिद्वार के हृदय तीर्थ “हर की पेड़ी” के भी दर्शन आयोजक इकाई द्वारा कराए गए। अन्त में इस आयोजन शृंखला में एक अभिनव प्रयोग करते हुए इस दल के सदस्यों का हरिद्वार में वंशावली लेखन कार्य का परिचय विस्तार से कराया गया और उनका वंशावली लेखन कार्य उनके द्वारा स्वरूचिपूर्वक कराया गया। पोलैंड का यह दल भी भारत की मधुर सांस्कृतिक और आतिथेय स्मृतियां लेकर विदा हुआ। निश्चितरूप से “संस्कार भारती” का भारत के विश्वगुरु स्वरूप की पूर्व पीठिका के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक संबंध पुनर्स्थापना का यह अभिनव प्रयास भविष्य में एक “प्रकाश स्तम्भ” सिद्ध होगा।
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