कौन थे भामाशाह, क्यों कहा जाता है दानवीर, जानिये त्याग-तपस्या और बलिदान की कहानी

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सुरेश कुमार गोयल

अग्रवंश के गौरव, मातृभूमि के लिए जीवन भर की धन-संपदा महाराणा प्रताप के चरणों में अर्पित करने वाले भामाशाह का निष्ठापूर्ण सहयोग महाराणा प्रताप के जीवन में महत्त्वपूर्ण और निर्णायक साबित हुआ था। मातृभूमि की रक्षा के लिए महाराणा प्रताप का सर्वस्व होम हो जाने के बाद भी उनके लक्ष्य को सर्वोपरि मानते हुए भामाशाह ने अपनी सम्पूर्ण धन-संपदा मेवाड़ के उद्धार के लिए अर्पित कर दी थी। कहा जाता है कि यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि इससे वर्षों तक 25,000 सैनिकों का खर्चा पूरा किया जा सकता था। भामाशाह बाल्यकाल से मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप के मित्र, सहयोगी और विश्वासपात्र सलाहकार थे। उन्होंने त्याग को जीवन का मूलमन्त्र मानकर संग्रहण की प्रवृत्ति से दूर रहने की चेतना जगाने में सदैव अग्रणी होकर प्रयास किया। उन्हें मातृभूमि के प्रति अगाध प्रेम था और दानवीरता के लिए भामाशाह नाम इतिहास में अमर है।

दानवीर भामाशाह का जन्म राजस्थान के मेवाड़ राज्य में वर्तमान पाली जिले के सादड़ी गांव में 29 अप्रैल 1547 को हुआ था। कुछ विद्वानों के मुताबिक भामाशाह का जन्म 28 जून 1547 को चित्तौडग़ढ़ में हुआ था। पिता भारमल तथा माता कर्पूरदेवी थीं। भारमल को राणा साँगा ने रणथम्भौर के क़िले का क़िलेदार नियुक्त किया था। माता कर्पूर देवी ने बाल्यकाल से ही भामाशाह का त्याग, तपस्या व बलिदान सांचे में ढालकर राष्ट्रधर्म हेतु समर्पित कर दिया।

मातृभूमि की रक्षा के लिए सर्वस्व किया अर्पण

जब महाराणा प्रताप को अपनी मातृभूमि से दूर होना पड़ा तो उन्हें बस एक ही चिन्ता थी कि किस प्रकार फिर से सेना जुटाएँ, जिससे मेवाड़ को मुगल आक्रांताओं के चंगुल से मुक्त करा सकें। उस समय महाराणा प्रताप के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या धन की थी। उस समय दानवीर भामाशाह उनके सम्मुख उपस्थित हुए और नम्रता से कहा कि मैंने यह सब धन देश से ही कमाया है। यदि यह देश की रक्षा में लग जाए, तो यह मेरा और मेरे परिवार का अहोभाग्य ही होगा। महाराणा प्रताप ने कहा भामाशाह तुम्हारी देशभक्ति, स्वामिभक्ति और त्याग भावना को देखकर मैं अभिभूत हूं परन्तु एक शासक होते हुए मेरे द्वारा वेतन के रूप में दिए गए धन को पुन: में कैसे ले सकता हूं ? मेरा स्वाभिमान मुझे स्वीकृति नहीं देता। भामाशाह ने निवेदन किया कि स्वामी यह धन मैं आपको नहीं दे रहा हूं। आप पर संकट आया हुआ है। मातृभूमि की रक्षार्थ मेवाड़ की प्रजा को दे रहा हूं। मातृभूमि पराधीन हो जाएगी और मुगलों का शासन हो जाएगा तब यह धन किस काम आएगा ? अत: आपसे आग्रह है कि आप इस धन से अस्त्र-शस्त्र एवं सेना का गठन कर मुगलों से संघर्ष जारी रखें। मेवाड़ स्वतंत्र रहेगा तो धन फिर कमा लूँगा। अन्य सहयोगियों ने भामाशाह की बात का समर्थन किया। महाराणा प्रताप ने निवेदन स्वीकार किया और पुन: सैन्य शक्ति संगठित कर मुगलों को पराजित कर फिर से मेवाड़ का राज्य प्राप्त किया।

आत्मसम्मान और त्याग की भावना

भामाशाह बेमिसाल दानवीर एवं त्यागी पुरुष थे। आत्मसम्मान और त्याग की यही भावना उनके स्वदेश, धर्म और संस्कृति की रक्षा करने वाले देश-भक्त के रूप में शिखर पर स्थापित कर देती है। धन अर्पित करने वाले किसी भी दानदाता को दानवीर भामाशाह कहकर उसका स्मरण-वंदन किया जाता है। उनके लिए पंक्तियाँ कही गई हैं-

वह धन्य देश की माटी है, जिसमें भामा सा लाल पला।
उस दानवीर की यश गाथा को, मेट सका क्या काल भला॥

1597 में महाराणा प्रताप की संसारिक यात्रा पूर्ण हुई थी और 3 वर्ष पश्चात भामाशाह का 53 वर्ष की आयु में 16 जनवरी 1600 को देवलोकगमन हुआ। उदयपुर राजस्थान में राजाओं की समाधिस्थल के मध्य भामाशाह की समाधि बनी हुई है। लोकहित और आत्म-सम्मान के लिए अपना सर्वस्व दान कर देने वाली उदारता के गौरव-पुरुष की इस प्रेरणा को चिरस्थायी रखने के लिए छत्तीसगढ़ शासन ने ‘दानवीर भामाशाह सम्मान’ स्थापित किया है। राजस्थान सरकार ने भी महिला सशक्तिकरण के द्वारा सुराज को साकार करने के लिए वर्ष 2008 में “भामाशाह कार्ड” जारी करके उन्हें सम्मान दिया। 31 दिसंबर 2000 को भारत सरकार द्वारा भामाशाह के सम्मान में डाक टिकट जारी किया गया था। आज भी चित्तौड़गढ़ (दुर्ग पर) में भामाशाह की हवेली बनी हुई है। अग्रवाल समाज ने भी अग्रोहा (हरियाणा) में इनके सम्मान में यादगार स्थापित की है।

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