‘अमर सिंह चमकीला’ इतनी साधारण फिल्म निकली कि उस पर कुछ लिखने का मन नहीं हो रहा था। वैसे चर्चित निर्देशक इम्यिताज अली समाज के चर्चित विषय को उठाते हैं। बहुत बार वे क्रिएटिव तौर पर सफल होते हैं और बहुत बार किसी अर्थवत्ता के लिहाज से फिल्में खोखली रह जाती हैं। विवेचित यह फिल्म घिसे-पिटे तरीके से वैसे गायक को उचित ठहराती है, जिसने समाज के भीतर चलने वाले लोकाचार को उठाया और उसे बाजार में बेचकर पैसे कमाए।
यह चलन पंजाब में ही नहीं, उत्तर प्रदेश, हरियाणा सहित पूरे उत्तर भारत की आंचलिक बोलियों में मौजूद है। फिल्म में लड़कियों को उसके गानों पर नाचते-गाते तो दिखाया है, पर रोजमर्रा में आटो-बसों में इस तरह के गीत कैसे अप्रत्यक्ष रूप से छेड़खानी को बढ़ावा देते हैं, इस पर कुछ नहीं दिखाया गया है। ऐसे तो भोजपुरी में अश्लील गानों को भी उचित ठहराया जाना चाहिए, क्योंकि यूट्यूब पर इनके लाखों दर्शक हैं। लेकिन इसे उचित ठहराने का मतलब जो लीक से हटकर काम कर रहा है, उसे हतोत्साहित करना भी है। कोई अचरज नहीं कि आने वाले दिनों में निरहुआ, पवन सिंह और खेसारी लाल यादव की बायोपिक भी सामने आए।
फिल्म की तारीफ इसलिए भी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इसका नायक अति-साधारण व्यक्ति है। किसी किरदार में ग्रे-शेड होना अलग बात है और नायकत्व का न होना बिल्कुल अलग बात। यदि किरदार के भीतर कोई नायक नहीं है तो लोगों की दिलचस्पी उसके गीतों में हो सकती है, उसके जीवन में नहीं। अगर चमकीला को गोली नहीं लगी होती, तो शायद उसके जीवन में इम्तियाज की भी दिलचस्पी न होती। फिल्म के नायक को सिर्फ इस बात से मतलब है कि गाने के एवज में पैसे आ रहे हैं।
इस तर्क को सिरे से खारिज किया जाना चाहिए कि समाज ऐसा चाहता है, इसलिए हम ऐसा रचते हैं। किसी भी निर्देशक जटिल सामाजिक विषय को सतही तरीके से प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। मैंने एक लंबी डॉक्यूमेंट्री देखी थी, जो मुंबई में बसी इंडस्ट्री से रू-ब-रू कराती है, जहां भोजपुरी के अश्लील गीतों के कैसेट-सीडी बनते थे। बी और सी ग्रेड फिल्में हमेशा से लोकप्रिय संस्कृति के अध्येताओं के लिए दिलचस्पी का विषय रही हैं, पर इम्तियाज के पास शायद इतनी पड़ताल का या गहराई में जाने का वक्त नहीं था।
फिल्म का नायक किसी बात पर कायम नहीं रहता है। जब जान पर बनती है तो धार्मिक गीत गाता है और लोग मांग करते हैं तो अश्लील बोल वाले गीत गाने लगता है। इसी ऊहापोह में वह मारा जाता है। फिल्म में पंजाब की सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों की झलक नहीं मिलती है। अलगाववादियों को चलताऊ तरीके से दिखाया गया है, जबकि कहानी में इन प्रसंगों की भी बड़ी भूमिका थी।
चमकीला की मौत की वजहों पर भी फिल्म खामोश रहती है। हत्या की गुत्थी भले न सुलझी हो, मगर इसमें एक कोण ‘आनर किलिंग’ का भी है। शक था कि हत्या के पीछे अमरजीत कौर के परिवार वालों का हाथ हो सकता है, क्योंकि चमकीला दलित था और अमरजीत जट सिख थी।
दलित होने की वजह से चमकीला ने कितने संघर्ष किए होंगे, सिर्फ एक दृश्य को छोड़ कर पूरी फिल्म इसकी चर्चा ही नहीं है। इम्तियाज की दिलचस्पी म्यूजिक वीडियो की तरह पंजाबी के बोल स्क्रीन पर दिखाने में ज्यादा थी। फिल्म में एनीमेशन व कॉमिक्स की तरह फ्रेम इस्तेमाल किया गया है।
इम्तियाज शायद अपना बेहतर देने के बाद अपने दौर के बाकी निर्देशकों की तरह दुहराव का शिकार हो चुके हैं। ‘अमर सिंह चमकीला’ सिनेमा और विचार के तौर पर भी एक कमजोर फिल्म है। थोड़े सेंसेशन से भले कुछ समय के लिए चर्चा बटोर ली जाए, ऐसी फिल्में याद नहीं रखी जाती हैं।
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