पिछले दिनों मंडी (हिमाचल प्रदेश) से भाजपा प्रत्याशी कंगना रनौत ने एक समाचार चैनल से बात करते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भारत का ‘प्रथम प्रधानमंत्री’ कह दिया। यह इतिहास की एक ऐसी परिकल्पना है जो बहुधा आम भारतीयों को रोमांचित कर देती है, किंतु समस्या यह है कि इतिहास की विवेचना परिकल्पनाओं के आधार पर नहीं हो सकती। ऐसी परिकल्पनाओं को वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ‘इतिहास के अगर-मगर’ कहते हैं। उदाहरणस्वरूप यदि सिकंदर ने व्यास न पार करके भारत की मुख्य भूमि पर नंद साम्राज्य के सामने आने का साहस किया होता तो क्या यूनानियों का मिथ्या युद्धाभिमान बना रहता? आठवीं-नौवीं सदी में पश्चिमोत्तर से भारत पर इस्लामिक आक्रमण शुरू हुए, तब शक्ति के शिखर पर रहे चोल-चालुक्य राजवंशों ने आपसी संघर्ष के बजाय यदि उत्तर क्षेत्र की राजनीति में प्रभावी हस्तक्षेप किया होता तो क्या देश इस्लामिक अत्याचार से बच गया होता?
यदि गजनवियों के विरुद्ध लगभग विजयी हो चुकी शाही राजवंश की सेना के हाथी आग लगने पर पीछे की तरफ नहीं भागते तो क्या महमूद गजनवी कभी उदभांडपुर की सीमा तोड़ भारत पर हमले का साहस करता? यदि जहांगीर तथा औरंगजेब द्वारा क्रमश: गुरु अर्जुनदेव एवं गुरु तेगबहादुर की हत्या नहीं कराई गई होती तो सनातन धर्म की वीर भुजा के रूप में सिख एक योद्धा संप्रदाय में तब्दील होते? यदि गांधी जी ने खिलाफत आंदोलन को अनावश्यक रूप से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर न लादा होता तो क्या इस्लामिक कट्टरपंथ को राजनीतिक स्वीकार्यता मिलती?
अत: यदि परिकल्पनाओं के अनुकूल अतीत और वर्तमान के विश्लेषण पर आधारित भविष्य का एक खाका खींचा जा सके तो क्या यह अनुचित है? जैसा कि प्रो.जे.बी. ब्यूरी का मत है, ‘ऐतिहासिक व्याख्या में अतीत और भविष्य की कल्पना का समन्वय होता है।’ ऐसी ही परिकल्पना पर आधारित एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जो सिर्फ इतिहास-राजनीति में रुचि रखने वाले ही नहीं, बल्कि हर जागरूक भारतीय के विचार पटल पर काबिज है कि यदि 1947 में भारत के नेतृत्वकर्ता सुभाष बाबू होते तो स्वतंत्र भारत का स्वरूप कैसा होता?
कोई भी राष्ट्र अपने मुश्किल क्षणों में अपने ऐतिहासिक नायकों को याद करता है, ताकि अपने समाज को प्रेरित कर सके। उस नायक के चरित्र के अनुकूल अपने लिए समाधान ढूंढ सके। आधुनिक भारत के इतिहास में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ऐसे ही नायक हैं। राष्ट्र के मन में सहज उत्पन्न परिकल्पना है कि यदि सुभाष बाबू ने तब भारत की बागडोर संभाली होती तो एक राष्ट्र के रूप में उसकी पिछले सात दशक की यात्रा कैसी होती है? राष्ट्रीय नेतृत्वकर्ता की भूमिका में उनका दृष्टिकोण क्या होता?
1919 में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के गांधीवादी युग का आगाज हुआ, जो 1947 तक कमोबेश कायम रहा। अब चूंकि देश को यह विश्वास दिलाया गया कि असहयोग, सविनय अवज्ञा जैसे आंदोलनों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का ह्रदय परिवर्तित कर उसे ‘वैष्णव जन’ में परिवर्तित कर दिया है। ऊपर से गांधीवाद के राजनीतिक उत्तराधिकारी ‘चाचा नेहरू’, जो अपने जलते घर को छोड़ दुनिया भर में शांति के कबूतर उड़ाते फिरते रहे। इसलिए विरासत में मिली अहिंसावाद की घुट्टी से भारत को वैश्विक राम-राज्य के भ्रम में रखा।
यदि शक्ति के बूते अनाचार और अन्याय का प्रसार और प्रभाव स्थापित किया जा सकता है तो शक्ति द्वारा ही उसका प्रतिकार भी किया जा सकता है। ऐसा नहीं था कि कांग्रेसी नेता अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध हिंसात्मक प्रतिरोध का यथार्थ नहीं समझते थे, लेकिन सुविधाजनक अहिंसा के आवरण में क्रूर-आताताई अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी असफलता पर अवसरानुकूल मौन बने रहे। हालांकि सुभाषचंद्र बोस के लोमहर्षक संघर्ष से उपजे राष्ट्रीय उत्साह ने उनके स्वप्निल अहिंसावाद के परे का यथार्थ दिखाया।
आई.एन.ए. के संघर्ष के प्रभाव के विषय में हंसराज रहबर लिखते हैं, ‘‘उन्होंने (नेताजी) जो आजाद हिंद फौज संगठित की और बाद में आजाद हिंद फौजियों पर जो मुकदमा चला, उससे गांधीवाद का तिलिस्म टूटा और समूचा देश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ने को उठ खड़ा हुआ। 1946 में क्रांति की जो जबरदस्त लहर आई, उसका बहुत कुछ श्रेय नेताजी सुभाषचंद्र बोस को जाता है।’’
तब कांग्रेसियों की मन:स्थिति क्या थी, इसे डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा वर्णित पं. नेहरू की इस मनोदशा से समझा जा सकता है- ‘‘1942 के कुछ महीनों में नेहरू की विक्षिप्त प्रतिक्रियाएं, जब उन्होंने सार्वजनिक घोषणा की कि उनकी इच्छा व क्षमता है कि जापानियों के मुकाबले के लिए लाखों गुरिल्ला तैयार किए जाएं, कम से कम कुछ हद तक श्री सुभाषचंद्र बोस के प्रति ईर्ष्या भावना से प्रेरित थीं। श्री बोस धुरी (मुख्यत: जर्मनी, इटली और जपान) राष्ट्रों की ओर चले गए थे। वे कम से कम यह दावा तो कर ही सकते थे कि वे भारत के लिए एक राष्ट्रीय पलटन खड़ी कर रहे थे, जबकि श्री नेहरू की कलाबाजियों का परिणाम होता ब्रितानी ताज की सेवा।’’ यह वक्तव्य स्वतंत्रता आंदोलन में नेताजी के सशस्त्र संघर्ष और कांग्रेस के मिथ्या अहिंसावादी आंदोलन के मध्य का अंतर स्पष्ट करता है।
लेकिन स्वतंत्र भारत के पास इससे संबंधित और भी दिक्कतें रही हैं। जैसा कि डॉ. बी.एल. फड़िया लिखते हैं, ‘‘स्वतंत्रता के पश्चात् देश में विप्लवकारी स्थिति का प्राधान्य रहा। विभाजन, सांप्रदायिक दंगे, जनसंख्या स्थानांतरण, कश्मीर का युद्ध, रियासतों के एकीकरण की समस्या, जिसके फलस्वरूप कानून का शासन खंडित हुआ तथा लोकसेवकों में भ्रष्टाचार के लिए नवीन मार्ग खुले। कल्याणकारी एवं समाजवादी राज्य के आदर्श को अपनाने के कारण राज्य के कार्यों में असाधारण वृद्धि हुई जिससे नियम, नियंत्रण, लाइसेंस, परमिट युग प्रारंभ हुआ और भ्रष्टाचार के नवीन मार्ग खुले।’’
यहां सुभाष बाबू की उपयोगिता स्पष्ट परिलक्षित होती है। ब्रिटिश कालीन भारत में वे एकमात्र ऐसे भारतीय थे, जिन्होंने आईसीएस में चयनित होने के बाद भी इसे त्यागने का निर्णय लिया। अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं, ‘‘मेरे सिद्धांत मुझे एक ऐसी व्यवस्था का हिस्सा बनने की अनुमति नहीं देते जिसकी उपयोगिता समाप्त हुए एक अरसा बीत चुका है और जो इस समय केवल और केवल संकीर्ण सोच, निर्लज्ज व स्वार्थी शासन, ह्रदयहीनता तथा लालफीताशाही के प्रतीक के रूप में मौजूद है।’’ सहज ही कल्पना कर सकते हैं कि 1947 में सरकार के अगुआ के रूप से सुभाष बाबू ने कार्यपालिका के प्रभावी अंग के रूप में निश्चय ही किसी बेहतर विकल्प की तलाश की होती।
छात्र जीवन में ही नेताजी की रुचि सैन्य प्रशिक्षण में थी। ब्रिटिश सरकार ने भारत की अपनी स्वदेशी सेना-इंडिया डिफेंस फोर्स- में एक विश्वविद्यालय यूनिट शुरू की। इसके ‘स्पान्सर’ में एकमात्र भारतीय कलकत्ता के प्रख्यात सर्जन डॉ. सुरेश चंद्र सर्वाधिकारी थे, जो बंगालियों को सैन्य प्रशिक्षण दिलाने के लिए जुनून की हद तक उद्यत थे। सुभाष बाबू भी उसमें भर्ती हुए। उन्होंने इसका विवरण अत्यंत उल्लासपूर्वक किया है।
शिक्षा के क्षेत्र में उपनिवेशवादी मानसिकता के षड्यंत्र की पृष्ठभूमि पुरानी है। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति की समस्या से नेताजी अनभिज्ञ नहीं थे। वे लिखते हैं, ‘‘ब्रिटेन में पब्लिक स्कूल की पढ़ाई और प्रशिक्षण को लेकर बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन जहां तक भारतीय विद्यार्थियों के प्रश्न हैं, उनके लिए मैं इन पब्लिक स्कूलों को सही नहीं मानता। कैब्रिंज में पढ़ने के दौरान मुझे इंग्लिश पब्लिक स्कूल्स के कुछ इंडियन ‘प्रोडक्ट्स’ से रू-ब-रू होने का इत्तेफाक हुआ था और मेरी नजर में वे खासे निराशाजनक थे। मेरा मानना है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा का चरित्र तो पूरी तरह राष्ट्रीय या स्वदेशी ही होना चाहिए। यह शिक्षा ऐसी हो जिसकी जड़ें हमारी अपनी जमीन में मजबूती से गड़ी हों। हमारे बच्चों के विकसित होते मन-मस्तिष्कों को उनकी अपनी संस्कृति की ही खुराक मिलनी चाहिए।’’
लेकिन आजाद भारत में राधाकृष्णन आयोग (1948-49), राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968), नवीन शिक्षा नीति (1986) से लेकर यशपाल समिति (1992) भी शिक्षा को भारतीयता में ढालने में सक्षम नहीं हो पाई, क्योंकि तब नेतृत्व उस वर्ग ने संभाला जो अपनी जेहनियत में अंग्रेज था। अत: अंग्रेजियत प्रतिष्ठित बनी रही। स्वतंत्र भारत नेताजी के नेतृत्व में इस परंपरा को ध्वस्त करता, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। वर्तमान सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2019) तथा ‘अग्निवीर योजना’ नेताजी की इसी परंपरा से प्रेरित प्रतीत होती है जिनका मूल्यांकन भविष्य करेगा।
अपने राजनीतिक-सार्वजनिक जीवन में आने के पूर्व ही सुभाष बाबू ने सांस्कृतिक चेतना के आधार पर राष्ट्रीय जागरण का कार्य शुरू कर दिया था। इस मामले में सुभाष बाबू का दृष्टिकोण अलग था। वे लिखते हैं, ‘‘अब मैंने एक नया प्रयोग शुरू किया-धार्मिक उत्सवों के माध्यम से युवाओं में सामुदायिकता की भावना जगाने का। बहुत पुराने समय से ही हमारे यहां महत्वपूर्ण धार्मिक कार्यक्रमों को ऐसे त्योहारों के रूप में मनाने का चलन रहा है जिनमें कि समाज का हर व्यक्ति, हर तबका भागीदार हो सके।’’ उल्लेखनीय है कि नेताजी बोस लोकमान्य तिलक की परंपरा के संवाहक हैं।
गणेश पूजा और शिवाजी उत्सव के माध्यम से उन्होंने ही राष्ट्र-जागरण का कार्य प्रारंभ किया था। रही सनातन समाज को नष्ट करने की पंथनिरपेक्षता के सुनियोजित षड्यंत्र की तो सुभाष बाबू के नेतृत्व में देश इससे दिग्भ्रमित होने से बच जाता, यह तय है। मांडले जेल में कैदी रहते हुए नेताजी ने हिंदुओं के धार्मिक अधिकारों के लिए अनशन किया, ताकि बंदियों को दुगार्पूजा मनाने के लिए खर्च दिए जाएं। इसके बाद अंग्रेजी सरकार, 30 रु. का न्यूनतम भत्ता ही सही, देने को बाध्य हुई। हरिचरण बागची को जेल से लिखे गए पत्र में उन्होंने जेल में मृत हिंदुओं के अंतिम संस्कार की सम्मानजनक सुविधा न होने पर दु:ख जताया, जबकि मुसलमानों के लिए इसकी सांगठनिक व्यवस्था थी।
उन्होंने समिति से इसकी व्यवस्था करने को कहा। तो कहने का तात्पर्य है कि देश को ऐसा ही नेतृत्व चाहिए था, लेकिन उसे ‘दुर्घटना से पैदा हिंदू’ और दिल- दिमाग से शामी (अब्राह्मिक) पंथों का मुरीद ‘चाचा’ नेता के रूप में मिला जिसका खामियाजा देश आज तक भुगत रहा है। यथार्थ में तिलक एवं अरविंद घोष की परंपरा के वास्तविक उत्तराधिकारी सुभाषचंद्र बोस ही थे। क्रांतिकारी नेता शचींद्रनाथ सान्याल लिखते हैं, ‘‘समग्र इतिहास में यह बात पाई गई है कि सफलता प्राप्त करने के पूर्व प्रत्येक देश के क्रांतिकारियों को बुद्धिमान व्यक्तियों ने अदूरदर्शी, अव्यावहारिक, पथभ्रांत भावुक बताया है। संसार के अधिकांश तथाकथित बुद्धिमान व्यक्तियों ने क्रांतिकारी मार्ग को ग्रहण नहीं किया। इसलिए आजाद हिंद फौज के असफल अभियान ने उसके आलोचकों को अपनी कुंठा व्यक्त करने, अहिंसावाद के नाम अपने स्त्रैण आंदोलन को राष्ट्रीय पटल पर प्रतिष्ठित करने एवं नेताजी को कोसने का अवसर मिल गया।’’
सुभाष बाबू की स्मृति को भुलाने, छोटा दिखाने, यहां तक कि अपमानित करने में सबसे बड़ी सहभागिता कम्युनिस्टों की रही है, जिसे स्वतंत्रता के बाद अगले छह दशक से अधिक समय तक सत्तारूढ़ दल का समर्थन प्राप्त रहा है। ‘नेम कालिंग’ की अपनी परिपाटी के अनुसार विशेषकर विश्वयुद्ध के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ‘पीपुल्स वार’ में सुभाष बाबू के लिए बारंबार अपमानित तरीके से चित्रित किया गया। उन्हें जापानी तानाशाह ‘तोजो का ‘कुत्ता’, गद्दार तथा आजाद हिंद फौज को ‘लुटेरों, हत्यारों की सेना’ तक कहा।
कम्युनिस्टों के सुभाष बाबू से घृणा करने की विशेष वजह उनके चिंतन के केंद्र में सोवियत रूस और सर्वहारा की सत्ता नहीं, बल्कि भारतीयता थी। उनकी प्राथमिकता ब्रिटिश हित का संरक्षण नहीं, बल्कि साम्राज्यवाद की समाप्ति का संकल्प था। इसके बावजूद उन्हें कमतर दिखाने का प्रयास हुआ। इसके लिए गांधीवाद का प्रभाव एक बेहतर आधार बना। जैसा कि डॉ. लोहिया लिखते हैं, ‘‘मैंने हमेशा श्री बोस के मुकाबले श्री नेहरू को पसंद करने की गलती की है और शायद इस गलती का एक बड़ा कारण शायद महात्मा गांधी ही रहे हों।’’
गांधीवाद के प्रभाव में यह गलती सिर्फ लोहिया ने ही नहीं, बल्कि देश के एक बड़े वर्ग ने की और अब तक करता आ रहा है। यदि विश्लेषित करें तो गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी ‘चाचा’ की आलोचनाओं से परे ‘महानता’ को इस देश से जबरन स्वीकृत करवाया गया। सुभाष बाबू के व्यक्तित्व का यथेष्ट मूल्यांकन डॉ.लोहिया इन शब्दों में करते हैं, ‘‘नेताजी सुभाषचंद्र हल्दी घाटी भावना के समाहार थे। हमारे राष्ट्रीय जीवन में आज ठीक इसी भावना की बहुत आवश्यकता है। उनका लक्ष्य स्पष्ट था, उन्होंने न हार में, न कमजोरी में पलायन किया और सभी स्थितियों में वे काम करने की कोशिश करते रहे। हल्दी घाटी भावना दूरदृष्टि से काम लेती है और लगातार हार की परवाह नहीं करती। वह नहीं मानती कि वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ संसार का भी अंत हो जाएगा। वह नहीं मानती कि शक्ति और कल्याण का चरम मेल संकल्प के अधीन है और वह कितना पवित्र और विज्ञ और नि:स्वार्थ एवं अविजेय है।’’
भारत को सुभाषचंद्र बोस रूपी इसी हल्दी घाटी भावना से प्रेरित होने की जरूरत है। अब प्रश्न राष्ट्र के समक्ष है। क्या वह इस भावना को आत्मसात करने को तैयार है?
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