प्रत्येक समाज कुछ निश्चित मान्यताओं, मूल्यों और संस्कृति के साथ आचरण करता है। पीढ़ियों से चली आ रही सांस्कृतिक परंपराओं से उसे पहचान मिलती है। वनवासियों के बीच कन्वर्जन की बढ़ती गतिविधियां उनकी सांस्कृतिक अस्मिता को खत्म करने की साजिश की तरह हैं। वनवासी समाज के बीच कन्वर्जन का मुद्दा नया नहीं है। आर्थिक और अन्य प्रलोभनों की आड़ में देश की विभिन्न जनजातियां लंबे समय से कन्वर्जन का शिकार होती रही हैं। कन्वर्जन का यह खेल अक्सर कथित समाज सेवा का लिबास ओढ़े एजेंडे के साथ होता है। अब इसमें आरक्षण भी एक अहम जरिया बन रहा है। अपनी संस्कृति, प्रथाओं, विश्वास और रीति-रिवाज को छोड़कर ईसाई या मुस्लिम बनने वाला व्यक्ति एक ओर जहां ‘अल्पसंख्यक’ कोटे का लाभ लेता है, वहीं जरूरत पड़ने पर खुद को वनवासी साबित कर लेता है।
जनजातीय समाज की एक ही मांग
किसी भी समुदाय को सामाजिक और आर्थिक स्थितियों के आधार पर संवैधानिक व्यवस्था में सम्मिलित किया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 में क्रमश: अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए विशेष संवैधानिक व्यवस्था है। कन्वर्जन समाज को शैक्षणिक और नौकरियों में आरक्षण मिलने के साथ वन अधिकार, पांचवीं-छठवीं सूची के क्षेत्र और उससे संबंधित अधिकार प्राप्त होते हैं। कन्वर्टेड तबके द्वारा आरक्षण की दोहरी सुविधा का लाभ लिए जाने पर जनजातीय समाज में आक्रोश के स्वर सुनाई दे रहे हैं। छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र समेत देश के अलग-अलग हिस्सों में जनजातीय समाज ने ऐसे लोगों को अनुसूचित जनजाति वर्ग से बाहर करने की मांग की है। डी-लिस्टिंग अर्थात् असूचीकरण को लेकर जनजातीय समाज से जुड़े संगठन लगातार विरोध प्रदर्शन और जागरुकता कार्यक्रम संचालित कर रहे हैं।
जनजातीय सुरक्षा मंच के राष्ट्रीय संयोजक गणेश भगत कहते हैं कि डी-लिस्टिंग की मांग को लेकर साल भर में 260 जिलों में विरोध प्रदर्शन हो चुके हैं। इनमें 750 जनजातीय समाज के 23 लाख लोग शामिल हुए हैं। जनजातीय समाज से जुड़े संगठनों की मांग है कि आदिवासी परंपराओं को छोड़कर ईसाई मत अपना लेने वालों की आरक्षण सुविधा तत्काल समाप्त होनी चाहिए। जून में हम दिल्ली में एक बड़ी रैली करने वाले हैं। हमने इससे पहले देशभर में सांसदों को ज्ञापन सौंपकर इस मुद्दे पर संवैधानिक संशोधन की मांग की है।
‘समाज को कन्वर्जन के विरुद्ध जागृत होना पड़ेगा’
अपने अधिकारों पर ईसाइयों, मुसलमानों और कन्वर्जन के बाद भी जनजातीय समाज के अधिकारों पर डाका डालने वाले लोगों के खिलाफ जनजातीय समाज आक्रोशित और उद्वेलित है। डी-लिस्टिंग के मुद्दे पर जनजातीय रक्षा मंच के राष्ट्रीय संयोजक गणेश राम भगत से बातचीत के मुख्य अंश-
अभी लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में डी-लिस्टिंग को लेकर दिल्ली कूच की बात कहकर आप क्या मुद्दा खड़ा करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं?
इसका लोकसभा चुनाव से कोई संबंध नहीं है। यह गैर राजनीतिक मुद्दा है। यह जनजातीय समाज की अस्मिता का प्रश्न है। समाज ने स्वयं इस आंदोलन को खड़ा किया है। हम पिछले कई वर्षों से इस मुद्दे पर गांव, कस्बे, तहसील और जिला मुख्यालयों में धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। सांसदों से लेकर राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपा गया। हमें भरोसा है कि मोदी सरकार जनजातीय समाज के साथ न्याय करेगी।
डी-लिस्टिंग का मुद्दा सिर्फ छत्तीसगढ़ तक सिमटा नजर आता है। क्या ऐसा है?
बिल्कुल नहीं। 24 दिसंबर, 2023 को रांची में हमने एक बड़ी रैली की। इसमें एक लाख से अधिक जनजातीय समाज के लोग पहुंचे। जहां भी जनजातीय समाज है, जो इस मुद्दे पर एकजुट है। मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र से लेकर उत्तर-पूर्व के राज्यों तक, जहां भी वनवासी समाज है, वह अपने अधिकारों के लिए आगे आ रहा है।
संवैधानिक रूप से आपका दावा कितना मजबूत है?
बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर जी ने हमें जो संविधान प्रदान किया, उसके अनुच्छेद 341 में यह प्रावधान है कि हिंदू, जैन, बौद्ध समाज से जुड़ा कोई व्यक्ति यदि अपनी परंपराएं, रीति-रिवाज, संस्कृति को छोड़कर दूसरे मत-मजहब को स्वीकार कर लेता है, तो उसे अनुसूचित जाति का आरक्षण छोड़ना पड़ेगा। यह व्यवस्था 1956 से लागू है। हम कोई नई बात नहीं कह रहे हैं। हम संविधान के दुरुपयोग को रोकने के साथ आदिवासी समाज को संविधान से जो अधिकार मिले हैं, उसे प्रदान किए जाने की मांग कर रहे हैं।
वनवासी बहुल मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ समेत कई राज्यों में भाजपा की सरकार है। क्या कन्वर्जन की गतिविधियों पर रोक लगने की उम्मीद है?
कई राज्य सरकारों ने कन्वर्जन रोकने के लिए कानून बनाए हैं। इन्हें और मजबूत बनाए जाने की आवश्यकता है। मैं फिर दोहराना चाहूंगा कि समाज को कन्वर्जन के विरुद्ध जागृत होना पड़ेगा। इस पर सिर्फ जनजातीय समाज के नजरिए से नहीं, बल्कि राष्ट्र के नजरिए से विचार किया जाना चाहिए।
कानून में कमी का फायदा उठा रही मिशनरी
जनजातीय संगठनों का आरोप है कि कन्वर्जन के इस खेल में मौजूदा कानून की कमी का फायदा मिशनरियों द्वारा उठाया जाता है। कई राज्यों में लागू धर्म स्वातंत्र्य कानून में यह प्रावधान किया गया कि कोई भी व्यक्ति कन्वर्जन करने से पहले जिला कलेक्टर (डीएम) को इस बात की सूचना देगा। जिलाधिकारी मामले की पड़ताल करेंगे कि वह व्यक्ति किसी के दबाव अथवा प्रलोभन में तो ऐसा नहीं कर रहा है, लेकिन अब तक शायद ही देश के किसी जिलाधिकारी के पास ऐसा कोई आवेदन आया हो। जाहिर है कि कन्वर्जन का यह खेल अवैध तरीके से लगातार जारी है।
संसद तक पहुंचा डी-लिस्टिंग का मुद्दा
डी-लिस्टिंग का लड़ाई सड़क से संसद तक पहुंच चुकी है। इस मुद्दे को संसद में पहली बार 1967 में कार्तिक उरांव ने उठाया था। वे अनुसूचित जाति-जनजाति आदेश संशोधन विधेयक-1967 लेकर आए। इस विधेयक पर संसद की संयुक्त संसदीय समिति ने जांच की। समिति ने 17 नवंबर, 1969 को अपनी सिफारिशें दीं। संसदीय समिति ने अपनी सिफारिश में कहा, ‘‘कंडिका में निहित तथ्यों के होते हुए कोई भी व्यक्ति, जिसने जनजाति आदि मान्यताओं तथा विश्वासों का परित्याग कर दिया हो और ईसाई या इस्लाम ग्रहण कर लिया हो, वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा। अर्थात् कन्वर्जन के बाद उस व्यक्ति को अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत मिलने वाले आरक्षण और अन्य सुविधाओं का लाभ नहीं मिलेगा। संयुक्त संसदीय समिति की सिफारिश के बाद भी एक वर्ष तक इस विधेयक पर बहस नहीं हो सकी। बाबा कार्तिक उरांव की अगुआई में उस समय भी 200 से अधिक सांसदों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर इस विधेयक को खारिज करने की मांग की थी, लेकिन उन्होंने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया।
2 अप्रैल, 1975 को इंदिरा गांधी की अगुआई वाली सरकार इस मुद्दे पर एक अध्यादेश लेकर आई, जिसमें कहा गया कि आदिवासियों का कोई धर्म नहीं होता। वह जो भी मत-मजहब मानेगा ‘आदिवासी’ ही रहेगा। हालांकि अध्यादेश को इंदिरा सरकार कानून का रूप नहीं दे सकी। लेकिन तब से ही पूरे देश में यह धारणा बन गई कि वनवासी दूसरे मत-मजहब में कन्वर्ट होने के बाद भी वनवासी ही रहेगा। डी-लिस्टिंग के मुद्दे पर पिछले कई वर्षों से सक्रिय वरिष्ठ अधिवक्ता राम प्रकाश पांडे कहते हैं कि ‘‘कन्वर्जन बढ़ने के साथ मूल आदिवासियों और कन्वर्टेड लोगों के बीच कई बार संघर्ष की स्थिति बनने लगती है। लंबे समय से देखा जा रहा है कि ईसाई में कन्वर्ट होने वाली महिलाएं हिंदू शृंगार से परहेज करती थीं, अब डी-लिस्टिंग की मांग जैसे-जैसे तेज हो रही है, वे खुद को वनवासी साबित करने के लिए पहनावे और जीवनशैली में बदलाव ला रही हैं। यहां तक कि करमा और सरूल जैसे वनवासी नृत्य के दौरान उपयोग में आने वाले मादर वाद्य यंत्र की मांग पिछले कुछ समय से अचानक बढ़ गई है। कई चर्चों में भी वनवासियों के नृत्य और कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं, जो पहले नहीं होते थे।’’ कन्वर्जन की बढ़ती गतिविधियां अब जनसांख्यिकी असंतुलन पैदा कर रही हैं। छत्तीसगढ़ के जशपुर, जहां एशिया का सबसे बड़ा चर्च स्थित है, में ईसाई मिशनरियों की सक्रियता हमेशा संदिग्ध रही है। यहां 22 प्रतिशत से अधिक लोग ईसाई बन चुके हैं।
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
2004 में सर्वोच्च न्यायालय में केरल राज्य विरुद्ध चंद्रमोहन मामले में वनवासी समाज से कन्वर्ट हुए लोगों को वनवासी मानने के मुद्दे पर बहस हुई थी। इस मामले में एक ईसाई लड़की ने चंद्रमोहन पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के तहत मुकदमा किया था। इसमें चंद्रमोहन ने दलील दी थी कि लड़की और उसके पूर्वज कई वर्षों से वनवासी परंपराओं को नहीं मान रहे हैं। ऐसे में इस अधिनियम के तहत कार्रवाई का आधार नहीं बनता। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह सही है कि वनवासी समाज के किसी व्यक्ति ने यदि अपनी परंपराएं रीति-रिवाज को छोड़ दिया है तो वह वनवासी नहीं रह जाता लेकिन इस बात का निर्णय उस न्यायालय में होगा जहां मामले का विचारण हो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई स्पष्टता के बाद भी आज तक स्पष्ट नीति नहीं बन पाई। डी-लिस्टिंग को लेकर आंदोलन कर रहे संगठनों का तर्क है कि कन्वर्जन के बाद जब अनुसूचित जाति को आरक्षण नहीं मिलता, तो यह वनवासी जनजातियों के साथ भेदभाव क्यों?
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