Hubballi Murder Case: कर्नाटक के हुबली में एक मासूम बच्ची की हत्या उसके सिरफिरे एकतरफा आशिक ने इसलिए कर दी क्योंकि उस बच्ची ने फैयाज का यौन प्रलोभन का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। ये पहला मामला नहीं है और जब तक ये सोच जिंदा है और इस सोच को “ईंधन” देने वाले संसाधन मिलते रहेंगे तब तक ऐसे मामले हमें आईना दिखाते रहेंगे और हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को चुनौती देते रहेंगे।
आखिर क्या है यह सोच ?
यह पुरुषों को श्रेष्ठ मानकर स्त्रियां को केवल उपभोग की संपत्ति मानने वाली सोच, मासूम बच्चियों के यौन शोषण को धार्मिक व्यवस्था बताने वाली कट्टरपंथी सोच, कम उम्र की बच्चियों के रज्स्वला होते ही उनको संतति उत्पन्न करने की मशीन मानने वाली सोच, नाबालिग बालिकाओं के यौन शोषण को पौरुष शक्ति के प्रदर्शन का तरीका मानने वाली सोच है, जिसकी उत्पत्ति न तो हमारी संस्कृति से हुई है और न ही यह हमारी पुरातन व्यवस्था का अंग है। फिर भी यह सोच हमारे समाज में मौजूद है यह हमारे लिए एक गंभीर प्रश्न है।
तो हुबली में लड़की की हत्या पर दुखी होने वाले समाज के लोगों को आंसू बचा कर और आक्रोश दबा कर रखना चाहिए। अभी ऐसे मौके और भी आते रहेंगे क्योंकि दशकों तक हमने इस जहरीली सोच के पौध को पनपने के लिये न केवल अनुकूल वातावरण दिया है बल्कि खाद, पानी खून-पसीना सब उपलब्ध करवाया और अपनी ही लड़कियों की इस तरह से लिंचिंग किये जाने के लिए “फैयाज” तैयार कर खुद के लिए यह सब तय किया है, जानिए कैसे फ़िल्मों में ऐसे आपराधिक कृत्यों के महिमामंडन पर अपनी खून पसीने की कमाई लुटा कर टिकट खरीद कर सीटियां बजाने वाले समाज ने खुद के लिए यही तय किया है, याद कीजिए 90 के दशक में जब फ़िल्म का हकला खलनायक “तू हाँ कर या ना कर तू है मेरी क कक… किरण” गाकर मासूम लड़की की हत्या करने पर आमादा था तब उसके इस कृत्य का महिमामण्डन करने वाला समाज असल में अपराधियों की फसल तैयार करने का बीजारोपण कर रहा था ।
इसी प्रकार वह हमारे ही बीच के लोग हैं जो बच्चों की पाठ्य पुस्तकों में जब अकबर को”महान” बताकर दिल्ली के मीना बाजार (जहां मुगल काल में कमसिन लड़कियों की नीलामी होती थी) और अन्य राजाओं की बहन बेटियों के अपहरण कर यौन शोषण करने के लिए बनाए गए हरम को सभ्यता की निशानियां बताकर महिमामंडन करते रहे और ये समाज लड़कियों के शोषण को सामान्य मान कर ये सब सहन करने वाली एक पीढ़ी तैयार कर रहा था। विशेष कानूनों के नाम पर संवैधानिक व्यवस्था को ठेंगा दिखाकर पुरुषों की बहुविवाह जैसी कुरीतियों को व नाबालिग लड़कियों की शादी के नाम पर बलात्कार को एक संप्रदाय का विशेष अधिकार बताने से एक पूरी पीढ़ी के लड़कों के दिमाग में यह जहर घर कर चुका है कि लड़कियां केवल यौन पिपासा शांत करने का साधन हैं और उनका ऐसा उपयोग करना लड़कों का विशेष अधिकार है।
एक पूरी की पूरी पीढ़ी को इन्हीं विशेष अधिकारों के चलते शिक्षा की मूल धारा से दूर कर मदरसों मे अशरफ अली थानवी जैसे मौलानाओं की लिखी किताबें पढ़ाई गईं जिनमें नाबालिग लड़कियों से यौन संसर्ग के तरीके बताए गए हैं। मदरसों में बच्चों के विकास के अवसर निरुद्ध किए गए, कम उम्र मे लड़कों को खासतौर पर जब यह बताया जाता है कि औरत उपभोग की वस्तु है तो उनके बाल मन पर इसका कुप्रभाव पड़ता है और उम्र बढ़ने के साथ कुंठित सोच की युवा पीढ़ी तैयार होती है।
हाल के दिनों मे सोशल मीडिया के प्रसार के चलते यूट्यूब और इंस्टाग्राम रील्स पर पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के तथाकथित धर्मगुरु भी युवा पीढ़ी मे आश्चर्यजनक रूप से लोकप्रिय हो रहे हैं जिनको जवान लड़के घंटो – घंटो देख सुन रहे हैं इसका कंटेंट भयंकर महिला विरोधी होता है, हमारी युवा पीढ़ी के दिमाग मे यह तालिबानी सोच धीमे जहर की तरह डाली जा रही है।
यौन पिपासु राक्षस जब सरेआम लड़कियों की लिंचिंग करते हैं या उनकी लाश को सूटकेस मे पैक करते हैं या लाश को महीनों तक फ्रीजर मे रखकर अंगों को काट काट कर ठिकाने लगाते हैं तब देश भर में एक आक्रोश की लहर उठती है परंतु न्यायलयीन प्रक्रिया के दौरान इन दरिंदों को फांसी से बचाने वाला इकोसिस्टम सक्रिय हो जाता है ‘अपराधी की जगह अपराध से नफरत’ करने की दलीलें दी जाती हैं टीवी पर दरिंदों की बूढ़ी माँ को दिखाकर सहानुभूति अर्जित की जाती है। इन पिशाचों के मानव अधिकार की दुहाई देने वाले एनजीओ अदालत पहुंच जाते हैं। और हम सब ये होते हुए देखकर कोमल भावनाओं के सम्प्रेषण से प्रभावित हो जाते हैं वो इन रक्तबीजों के पनपने का अवसर होता है ।
कुल मिलाकर यह हमारी मूल सभ्यता और आक्रांता संस्कृति का संघर्ष है। एकतरफ हमारी भारतीय सभ्यता है जो बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ को मन वचन कर्म से अंगीकार कर लड़कियों की दैहिक, वैचारिक, सामाजिक व व्यक्तिगत समानता तथा स्वतन्त्रता का सम्मान करती है। दूसरी और एक बर्बर सोच है जो औरत को उपभोग की वस्तु मानकर केवल उसका दैहिक शोषण करना चाहती है।
सभ्यताओं के संघर्ष में वही जीवित बच पाता है जो सभ्यतागत संस्कार को अगली पीढ़ी मे संप्रेषित कर पाता है और यह प्रक्रिया समूहिक है। इस प्रक्रिया मे पूरा समाज केवल एक इकाई है, इसलिए बेटियों को बचाने का काम सामाजिक दायित्व के रूप में पूरे समाज को निभाना होगा। बेटियों के संरक्षण की साझा जिम्मेदारी की परंपरा को पुनर्जीवित करने का यही सही समय है।
समय की यह चेतावनी है कि सामाजिक,राजनितिक,धार्मिक,जातीय, क्षेत्रीय,भाषाई भेदभाव को तत्काल त्याग कर राष्ट्रीय आध्यात्मिक चेतना के पुनर्जागरण के लिए जमीनी स्तर पर काम प्रारम्भ करना होगा और अपनी मूल सभ्यता,संस्कृति के प्रति गौरव का भाव उत्पन्न कर समाज को नई दिशा दिखानी होगी जहां अक्रांता सोच को हमारा समाज को पूरी तरह से नकार देगा।
(लेखक राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग,भारत सरकार, के अध्यक्ष हैं)
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