महर्षि अरविन्द अपनी कृति ‘गीता प्रबंध’ में लिखते हैं, ‘मानव प्रकृति में भागवत प्रकृति को प्रकट करने के लिए स्रष्टा का अवतार होता है। स्रष्टा के सृष्टि पर आने की यह प्रक्रिया ‘लीला’ कहलाती है। गोस्वामी जी लिखते हैं,
राम जनम के हेतु अनेका। परम विचित्र एक तें एका ।।
जब जब होई धरम की हानि। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ।।
तब तब प्रभु धरि विविध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।।‘
त्रेता युग में जगत पालक श्रीहरि महाविष्णु के सातवें अवतार के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अपनी सहायक शक्तियों के साथ अवतरित हुए थे। शास्त्रज्ञ कहते हैं कि अवतारी ईश्वरीय चेतना को धारण करना हर किसी के बूते की बात नहीं होती। इसके लिए सुनियोजित आधारभूमि तैयार करनी होती है। रामनवमी के पावन पर्व पर आइए जानते हैं इसी ज्ञान विज्ञान से जुड़े आध्यात्मिक तत्वदर्शन को-
अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।
तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः॥ (अथर्व वेद १०.२.३१)
इस मन्त्र में वैदिक मनीषियों ने राम जन्म के संदर्भ में अयोध्या रूपी मानव देह की बहुत ही सुन्दर तात्विक विवेचना की है। ऋषि कहते हैं कि मानव के सूक्ष्म शरीर के आठ चक्र (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञाचक्र, मनश्चक्र और सहस्रार) जो समस्त आध्यात्मिक शक्तियों के केंद्रबिंदु होते हैं तथा स्थूल शरीर के नौ द्वारों (दो आँख, दो नासिका छिद्र, दो कान, एक मुख, दो मल और मूत्र द्वार) से निर्मित मानव देह ही अयोध्या नगरी है। स्वर्णिम प्रकाश और स्वर्गीय ज्योति से संयुक्त इस दैवीय पुरी के हिरण्यमयकोष (हृदय) में दिव्य ज्योति से परिपूर्ण आत्मिक आनन्द का मूल स्रोत परमात्मा निवास करता है। योग-साधना के द्वारा योगी जन इन चक्रों का भेदन करते हुए उस ज्योतिस्वरूप परमात्मा का दर्शन कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
दूसरी ओर ‘अयोध्या’ की ऐतिहासिक व्याख्या करते हुए भारत के प्राचीन इतिहास के अध्येता इतिहासकार डॉक्टर अमित पाठक कहते हैं कि अयोध्या का एक अर्थ है- जिसको युद्ध में जीता न जा सके, जिसके साथ युद्ध करना असंभव हो। रघु, दिलीप, अज, दशरथ( नेमि) और राम जैसे रघुवंशी राजाओं के पराक्रम व शक्ति के कारण उनकी राजधानी को अपराजेय माना जाता था। वहीं अयोध्या का एक दूसरा अर्थ भी निकलता है- अ युद्ध। यानी जहां युद्ध ही न होता हो; जहां हमेशा शांति रहती हो। डॉ. पाठक अयोध्या को भारतीय समाज की पुर्नजागृति के केंद्र रूप में भी स्थापित करते हुए बताते हैं कि भगवान राम के साथ भगवान बुद्ध और भगवान महावीर भी लम्बे समय तक अयोध्या में रहे थे। पांच तीर्थांकरों का जन्म भी अयोध्या में हुआ। वे कहते हैं कि अवध शब्द भी अयोध्या से ही निकला है।
शास्त्र कहते हैं कि राम के पिता राजा दशरथ शरीर रूपी रथ में जुटे हुए दस इन्द्रिय रूपी घोड़ों (५ कर्मेन्द्रिय + ५ ज्ञानेन्द्रिय) को अपने वश में रखने की योग्यता रखने वाले महामनीषी हैं। इसी गुण के कारण उनको परमब्रह्म परमात्मा का पिता होने का गौरव मिला था। कठोपनिषद के ३.३-५ वें मंत्र “आत्मानं रथिं विद्धि शरीरं रथमेव तु / बुद्धिं सारथि विद्धि मनः प्रग्रह मेवच’’ में इसी आशय को स्पष्ट किया गया है और श्रीमदभगवद गीता के ३.४१ श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को इन्हीं दसों इन्द्रियों को वश में करके ‘दशरथ’ बनने का उपदेश देते हैं। इसी तरह जो प्रत्येक कार्य में कुशल व प्रवीण हो वही; परमात्मा का पालन पोषण करने का गुरुतर दायित्व निभा सकती है और राम की माता कौशल्या इसी कौशल की प्रतीक हैं।
युग ऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य लिखते हैं,’’काया की दसों इन्द्रियों को वश में रखने के कारण ही राजा दशरथ को जीवन के चार महा पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष) की सिद्धि के रूप में चार पुत्र रत्न प्राप्त हुए थे। “रामो विग्रहवान् धर्मः’’ की वैदिक सूक्ति राम को ‘धर्म’ के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में स्थापित करती है। दूसरा पुत्र भरत राष्ट्र के भरण पोषण का दायित्व निभाने के कारण ‘अर्थ’ का, तीसरा पुत्र लक्ष्मण सकल जगत का आधार होने के कारण ‘काम’ का और चौथा पुत्र शत्रुघ्न वीतरागी होने के कारण चतुर्थ पुरुषार्थ ‘मोक्ष’ का प्रतीक है।‘’ ऋषि वाणी कहती है कि जिससे अभाव में हम अपनी पहचान खो देते हैं, वह नियामक तत्व धर्म ही है। हमारी सोच, विचार, मन और आचरण सब धर्म से ही निर्धारित होता है। इस धर्म रूपी राम के अनेक रूप हैं और सबकी अपनी अपनी अनुभूति है -“एक राम दशरथ का बेटा, एक राम है घट-घट लेटा / एक राम का जगत पसारा, एक राम है सबसे न्यारा।”
एक ओर लक्ष्मण के जीवन की धुरी हैं श्रीराम जो आजीवन भोग विलास से दूर रहकर सतत राम की सेवा में समर्पित रहे; वहीं भरत का चरित्र भी महानता की सीमा है। जो सतत ज्ञान की साधना (भा = ज्ञान, रत = लीन) में जुटे रहे ; वह हैं भरत। जिसकी सोच, विचार, कार्य व जीवनशैली हेय दृष्टि से देखने वालों की धारणा बदल नमनीय और वन्दनीय बना दे; वह हैं भरत। सामान्य व्यक्ति कामना की पूर्ति न होने पर अशांत और क्रोधित होता है परन्तु जिसकी कोई कामना ही नहीं; वह है शत्रुघ्न। लक्ष्मण की कामना हैं ‘राम’, भरत की भी कामना हैं ‘राम’ परन्तु जिसे राम की भी कामना नहीं है, जिसका न कोई शत्रु है न मित्र; जो वीतरागी है, जिसने अपनी समस्त मनोवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर ली है, वह है ‘शत्रुघ्न’। यही मोक्ष, जीवनमुक्ति की स्थिति है, जिसे गीताकर ‘स्थित प्रज्ञ कहते हैं। हालांकि एक अन्य शास्त्रीय वर्णन शत्रुघ्न को महायोद्धा के रूप में रूपायित करता है। गोस्वामी जी का ‘मानस’ कहता है कि शत्रुघ्न का अर्थ है जिसे देख कर शत्रुओं का दिल दहल जाए, जिसे युद्ध में कभी जीता न जा सके, वह है शत्रुघ्न।
वैदिक दर्शन कहता है कि हमारी आत्मा ‘राम’ है, मन ‘सीता’ है, जीवनी शक्ति (प्राणतत्व ) ‘हनुमान’ है, ‘जागरूकता ‘लक्ष्मण’ तथा हमारा अहंकार रावण है। अहंकार रूपी रावण जब मनरूपी सीता को चुरा लेता है तो आत्मारूपी राम बेचैन हो जाते हैं। चूंकि आत्मा (राम) अपने आप मन (सीता) तक नहीं पहुंच सकती; इसलिए उसे जागरूकता (लक्ष्मण के साथ) प्राण तत्व (हनुमान) की मदद लेनी होती है और हनुमान रूपी प्राणतत्व की सक्रियता और जागरूकता (लक्ष्मण) के बल पर अहंकार रूपी (रावण) का विनाश हो जाता है और मनरूपी सीता का आत्मारूपी राम) से पुनर्मिलन हो जाता है। रामायण का कथानक हमारे अपने शरीर में सतत घटित होता रहता है। ‘रामायण’ का शाब्दिक अर्थ राम का आयण अर्थात् राम का घर। रामायण कहती है- ‘’व्यापक विश्व रूप भगवाना, तेहिं धरि देह चरित कृत नाना’’- अर्थात परमशक्ति जब अवतारी स्वरूप में संसार में आती है तो मानवी लीलाओं के माध्यम से यह सीख देना चाहती है कि हम ईश्वर के घर तक, उनके निकट कैसे पहुँच सकते हैं ?
वैज्ञानिक शोधों से राम जन्म की पुष्टि
भगवान राम भारत के पुरा इतिहास के एक ऐसे महामानव हैं जिनकी जीवन गाथा युगों युगों से हम सनातनधर्मियों को अनुप्राणित करती आ रही है। हर्ष का विषय है कि श्रीराम के समकालीन महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में दी गयी राम जन्म की तिथि व समय अब वैज्ञानिक शोधों द्वारा भी स्थापित हो चुकी है। महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण के बालकाण्ड के जन्म सर्ग 18वें श्लोक 18-8-10 में उल्लेख है कि श्रीराम का जन्म चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र और कर्क लग्न के अभिजीत महूर्त में हुआ था। वाल्मीकि जी लिखते हैं कि जिस समय राम का जन्म हुआ उस समय पांच ग्रह अपनी उच्चतम स्थिति में थे। ज्ञात हो कि वाल्मीकि रामायण में दी गयी राम जन्म की इस तिथि की पुष्टि करते हुए दिल्ली की एक संस्था ‘इंस्टीट्यूट ऑफ साइंटिफिक रिसर्च ऑन वेदा’ यानी ‘आई सर्वे’ ने अपनी शोध में बताया है कि भगवान राम का जन्म 10 जनवरी 5114 को हुआ था। वेदा ने खगोलीय स्थितियों की गणना के आधार पर यह थ्योरी प्रतिपादित की है। आईवेदा की अध्यक्ष सरोज बाला, अशोक भटनागर तथा कुलभूषण मिश्र द्वारा कराए गए इस शोध के अनुसार राम जन्म का समय चैत्र मास के शुक्लपक्ष की नवमी तिथी को पुनर्वसु नक्षत्र और कर्क लग्न निकलता है। बताते चलें कि तुलसीदास की रामचरित मानस के बाल काण्ड के 190 वें दोहे के बाद पहली चौपाई में तुलसीदास ने भी इसी तिथि और ग्रहनक्षत्रों का जिक्र किया है। ज्ञात हो कि ‘यूनीक एग्जीबिशन ऑन कल्चरल कॉन्टिन्यूटी फ्रॉम ऋग्वेद टू रोबॉटिक्स’ संस्था द्वारा की गयी आधुनिक कंप्यूटर गणना में भी यह समय 10 जनवरी 5114 ईसा पूर्व सुबह बारह बजकर पांच मिनट (12:05 ए.एम.) का निकलता है।
श्रीराम जय राम जय जय राम !
भारतीय मनीषा ने ‘राम’ नाम को राष्ट्र का प्राणतत्व माना है। सनातन हिन्दू धर्म में राम नाम को तारक मंत्र कहा जाता है। शास्त्र कहते हैं कि देवाधिदेव महादेव सदैव इसी राम नाम का जप किया करते हैं। स्वामी रामभद्राचार्य जी महराज कहते हैं, ‘’राम का अर्थ है ‘प्रकाश’ और ‘म’ का अर्थ है मैं; आत्मा। अर्थात जो आत्मा को प्रकाशित करे, वह है राम नाम। नाम की शक्ति अपरिमित है। उनके नाम से लिखे पत्थर तैर गए। उनके द्वारा चलाया गया अमोघ बाण रामबाण अचूक कहलाया तो उनके मंत्र की शक्ति का तो कहना क्या? जप माला में कुल 108 मनके होते हैं; किसी भी मंत्र को 108 बार जपने पर एक माला पूर्ण मानी जाती है। हिंदी वर्णमाला में ‘र’ अक्षर 27 नंबर पर, ‘आ’ अक्षर 2 नंबर पर और ‘म’ अक्षर 25 नंबर पर आता है। इन तीनों अक्षरों को जोड़ने पर कुल योग आता है- 54 और दो बार राम कहने से यह योग हो जाता है 108। इस तरह इस तरह यदि कोई व्यक्ति अपनी जिह्वा से मात्र दो बार राम-राम बोलता है तो वह सहज ही एक माला जप का पुण्य अर्जित कर लेता है। ॐ नमो भगवते रामचंद्राय! प्रभु राम के इस मंत्र के जाप से सारी विपत्तियां भागती हैं और जीवन में आनंद की अनुभूति होने लगती है। श्रीराम जय राम, जय-जय राम! इस मंत्र के समान कोई और मंत्र नहीं है।‘’
इसी तरह स्वामी अवधेशानन्द गिरि जी महराज कहते हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम भारत के जन-जन के मन में बसे हुए हैं। और उनका पतित पावन नाम जन्म से मृत्यु तक हर सनातनधर्मी के जीवन से गहरायी से जुड़ा हुआ है। भले ही दुनिया के सारे सेतु ( उपाय) टूट जाएं मगर राम सेतु सदैव साथ बना रहेगा जिसके ह्रदय की तिजोरी में राम नाम का अनमोल रत्न रखा हुआ है, उसको हर घड़ी आनंद ही आनंद है। जो सदा राम जी की रजा में रजामंद रहता है, उसको हर घड़ी आनंद ही आनंद है। राम तो इस भारतभूमि के घर-घर में बसे हुए हैं। तभी तो राम भक्त तन्मय होकर गा उठते हैं- मेरे रोम-रोम में बसने वाले राम, मैं तुमसे क्या मांगू। ओ जगत के स्वामी! ओ अन्तर्यामी! मैं तुमसे क्या मांगू।
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