गणगौर : राजपूतानी लोक संस्कृति का रंग बिरंगा लोक पर्व
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गणगौर : राजपूतानी लोक संस्कृति का रंग बिरंगा लोक पर्व

गणगौर एक ऐसा लोक पर्व है जो चैत्र नवरात्र के तीसरे दिन मनाया जाता है। पर्व से जुड़ी पौराणिक कथा के अनुसार मां पार्वती ने शिव को पति के रूप में पाने के लिए घोर तपस्या की थी।

by पूनम नेगी
Apr 11, 2024, 11:58 am IST
in धर्म-संस्कृति
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अपनी रंग-बिरंगी लोकसंस्कृति के लिए समूची दुनिया में विख्यात राजस्थान का युग प्राचीन लोकपर्व गणगौर राजपूतानी कला संस्कृति का अनूठा सौन्दर्य अपने आप में संजोए हुए है। गणगौर एक ऐसा लोक पर्व है जो चैत्र नवरात्र के तीसरे दिन मनाया जाता है। पर्व से जुड़ी पौराणिक कथा के अनुसार मां पार्वती ने शिव को पति के रूप में पाने के लिए घोर तपस्या की थी। उनके कठोर तप से प्रसन्न होकर महादेव शिव ने उनसे वरदान मांगने को कहा था और मां पार्वती ने वरदान में उनको पति रूप में प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की थी। शिव पार्वती के विवाह के रूप में वह वरदान फलित हुआ था। कहा जाता है कि इसी दिन भगवान शिव ने मां पार्वती को तथा मां पार्वती ने गौर माता के रूप में सुहागिन स्त्रियों को अखंड सौभाग्य का वरदान दिया था। तभी से कुंआरी कन्याओं द्वारा इच्छित वर पाने की कामना से और सुहागिनों द्वारा पति की दीर्घायु व सुखी स्वस्थ जीवन की प्रार्थना से इस व्रत पर्व की परम्परा शुरू हो गयी।

धर्मशास्त्रों में इसे गौरी उत्सव, गौरी तृतीया, ईश्वर गौरी, दोलनोत्सव के नाम से भी जाना गया है। तत्व रूप में कहें तो इस पर्व के मूल में सुखमय दाम्पत्य जीवन की मंगलकामना ही निहित है। चैत्र नवरात्र की तृतीया को पड़ने वाले इस व्रत पर्व का विशेष महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह दिन देवी मां के चंद्रघंटा स्वरूप को समर्पित है। मां चंद्रघंटा मन की शक्ति शक्ति की स्वामिनी हैं। उनकी अर्चना से मानसिक बल बढ़ता है और मन वांछित अनुदान-वरदान की प्राप्ति होती है।

पारंपरिक रूप में इस दिन शिव के अवतार के रूप में ‘गण’ या ‘ईशर’ तथा मां पार्वती के अवतार के रूप में गौर माता और की पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि सावन की तीज से शुरू हुए त्योहारों का सिलसिला गणगौर तीज पर जाकर खत्म होता है। राजस्थानी में कहावत भी है ‘तीज तींवारा बावड़ी ले डूबी गणगौर। अर्थात सावन की तीज से त्योहारों का आगमन शुरू हो जाता है और गणगौर पर विसर्जन के साथ ही त्योहारों पर चार महीने का विराम लग जाता है। ज्ञात हो कि मूलतः राजस्थान का यह लोकपर्व विगत कुछ दशकों में विस्तारित होकर अब मध्य प्रदेश, हरियाणा तथा राजस्थान की सीमा से सटे उत्तर प्रदेश के ब्रज प्रान्त में भी हर्षोल्लास से मनाया जाने लगा है। लेकिन राजपूतानी कला संस्कृति की सर्वाधिक रौनक राजस्थान और मालवा-निमाड़ में दिखायी देती है। खास बात यह है कि जहां एक ओर भारत के अनेक लोक पर्व आधुनिकता की आंच में धूमिल हावी गये हैं किन्तु राजपूताने के ग्राम्यांचलों में गणगौर उत्सव की रौनक आज भी कायम है।

पारंपरिक रूप से गणगौर पूजा की शुरुआत चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया से आरंभ हो जाती है। महिलाएं सोलह दिन तक इस पूजा के समूचे विधि विधान का पालन करती हैं। राजस्थान में आज भी मां गौरा को सोलह दिन तक दूब से दूध का छींटा दिया जाता है। आज के पश्चिमी सभ्यता वाले युग और फैशन के बदलते रूप में भी इस लोकपर्व ने अपना पारंपरिक स्वरूप नहीं खोया है। विवाह के बाद पहली गणगौर मायके में पूजने का रिवाज है।

बेहद रोचक है गणगौर पूजन की विधि

होलिका दहन की राख को एकत्र कर घर लाया जाता है। इसमें बाग या तालाब की मिट्टी मिलाकर गण और गौर की मूर्तियां बनायी जाती हैं। कुछ स्थानों पर लकड़ी की मूर्तियों की पूजा की जाती है। फिर इन मूर्तियों की सुंदर रंग-बिरंगे वस्त्रों और आभूषणों से सजा कर पूजास्थल स्थापित कर दिया जाता है। तदुपरांत अक्षत, चंदन, हल्दी सिंदूर, अगरबत्ती, धूप, कपूर और फूल-दूब तथा हलवा, पूरी, चूरमा व गुने के भोग प्रसाद से विधिवत पूजा अर्चना कर कथा कही जाती है और बाद में सभी महिलाएं भोग ग्रहण करती हैं और माता का सिंदूर लेती हैं। बताते चलें कि गणगौर पर्व के एक दिन पहले, विवाहित महिलाओं को अपने माता-पिता से उपहार मिलते हैं, जिसमें गहने, कपड़े, घेवर जैसी मिठाई और बहुत कुछ शामिल होता है। इसे ‘’सिंजारा’’ कहा जाता है। जानना दिलचस्प हो कि गणगौर को चढ़ाया हुआ प्रसाद पुरुषों को नहीं दिया जाता है। पूजा के बाद शाम को शुभ मुहूर्त में गणगौर को पानी पिलाकर किसी पवित्र सरोवर या कुंड आदि में इनका विसर्जन किया जाता है। वैदिक पंचांग के अनुसार इस वर्ष गणगौर पूजा 11 अप्रैल दिन गुरुवार को की जाएगी। पूजा का सर्वाधिक शुभ मुहूर्त 11 अप्रैल को सुबह 06 बजकर 29 मिनट से लेकर 08 बजकर 24 मिनट तक पूजा करने का है।

लोकगीतों के जरिए की जाती है गणगौर पूजा

गणगौर माता से प्रार्थना लोकगीतों से की जाती है। इन गीतों में स्त्री मन की हर उमंग हर भाव को जगह मिली है। भावों की मिठास और अपनों की मनुहार से सजे ये लोकगीत पूजा के समय निभाई जाने वाली हर रीत को समेटे होते हैं। पूजन करने वाली समस्त स्त्रियां बड़े चाव से गणगौर के मंगल गीत गाती हैं। इस अवसर पर गाये जाने वाले ‘’भंवर म्हाने पूजण दे गणगौर’’ तथा ‘’खोल ऐ गणगौर माता खोल किवाड़ी’’ जैसे सुमधुर लोकगीत इस लोकोत्सव की रौनक में चार चांद लगा देते हैं।

 

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