राजस्थान में झालावाड़ जिले के कृषक हुकुमचंद पाटीदार ने 2004 में अनूठे तरीके से प्राकृतिक खेती की शुरुआत की थी और देखते-देखते सफलता की जीती-जागती मिसाल बन गए। वे स्वामी विवेकानंद जैविक कृषि अनुसंधान केंद्र के जरिए रासायनिक खाद और कीटनाशकों से जैव विविधता को होने वाली क्षति के विरुद्ध पूरे क्षेत्र में अलख जगा रहे हैं और जैविक खेती से उन्नति कर रहे हैं।
झालावाड़ जिले के गांव मानपुर में 1957 में जन्मे हुकुमचंद पाटीदार उम्र के इस पड़ाव पर भी जैविक खेती की जड़ों को मजबूत करने के लिए हर समय जुटे नजर आते हैं। खेतों में अंधाधुंध रासायनिक खाद और कीटनाशकों के प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति को किस हद तक क्षति पहुंच रही है, इस सचाई को कृषि वैज्ञानिक भी स्वीकारते हैं। जागरूक किसान पाटीदार ने कृषि भूमि एवं मानव जीवन दोनों को सेहतमंद बनाए रखने के लिए जैविक खेती पर काम शुरू किया था।
हुकुमचंद बताते हैं कि गो-आधारित कृषि की शुरुआत के साथ उन्होंने अपनी जमीन को पंचगव्य के जरिए पोषण देना शुरू किया। गाय का गोबर और गोमूत्र में धरती की घटती हुई प्राण शक्ति को ठीक करने की अद्भुत क्षमता है और यह प्रयोग उनके लिए बहुत कारगर साबित हुआ।
वे जैविक तरीके से गेहूं 20 कुंतल, चना 25 कुंतल, धनिया 6 कुंतल और लहसुन 30 कुंतल प्रति एकड़ तक का उत्पादन कर लेते हैं। इससे वे न सिर्फ आर्थिक मोर्चे पर मजबूत होकर सामने आए, बल्कि सामाजिक तौर पर भी सबके लिए प्रेरणा बन गए हैं। जैविक कृषि के मंत्र को समझाते हुए वे कहते हैं, ‘‘खेती की प्राकृतिक व्यवस्था का सबसे बड़ा फायदा यह है कि यह बाजार पर निर्भर नहीं है। देसी बीज, वानस्पतिक दवाएं यह सब खेत-खलिहान में ही आसानी से उपलब्ध हैं। कम लागत में होने वाली गुणवत्तापूर्ण उपज के दाम भी बहुत अच्छे मिलते हैं।
अन्न ब्रह्म है और कृषि उपासना, समाज को निरंतर यह संदेश दे रहे पाटीदार कहते हैं कि जैविक खेती से जमीन को निरोग बनाए रखने का प्रयास उन्हें न केवल आत्मिक संतुष्टि देता है, बल्कि इससे सशक्त मानव जीवन का भाव भी मजबूत हो रहा है। जैविक कृषि में मृदा प्रबंधन के बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए वे बताते हैं कि गो-आधारित कृषि से जमीन, जल, सौर ऊर्जा से ऐसा सुरक्षित खाद्यान पैदा होता है, जो राष्ट्र को सशक्त एवं सेहतमंद बनाता है।
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