वर्ष 1988 में सलमान रुश्दी का उपन्यास ‘द सैटेनिक वर्सेज’ प्रकाशित हुआ था। इस पर ईरान के शिया नेता खुमैनी ने फतवा जारी किया था। चूंकि सलमान रुश्दी ब्रिटिश नागरिक थे, इसलिए ब्रिटेन सरकार ने तत्काल भारी पुलिस सुरक्षा दी और उन्हें छिपने के लिए मजबूर किया। ब्रिटेन में कट्टर मुस्लिम तत्व रुश्दी की हत्या कर सकते थे। बहुत संभव था कि भीड़ ही उन्हें पीट-पीटकर मार डालती। अंग्रेज यह सब जानते थे। यदि अंग्रेज यह सब जानते थे तो कोई भी यह उम्मीद कर सकता था कि वे इस मामले से जुड़े हर पहलू का पता लगा लेंगे।
मुसलमान पश्चिम की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अवधारणा का सम्मान नहीं करते हैं। ऐसा कोई तरीका नहीं है, जिससे यह पता लगाया जा सके कि कौन-सा मुसलमान ईश निंदा करने वाले किसी व्यक्ति का संभावित हत्यारा हो सकता है। ऐसे कारणों के लिए मुसलमान बेरहम भीड़ की शक्ल ले लेते हैं। इसलिए, यदि ब्रिटेन अपने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कायम रखना चाहता है, तो उसे अपने यहां मुसलमानों के आप्रवासन को रोकना होगा। वास्तव में सभी पश्चिमी देशों को ऐसा करना चाहिए था। लेकिन बजाए इसके उन्होंने इनके लिए पूरी तरह से दरवाजे खोल दिए और मुसलमानों के वैध-अवैध आप्रवासन को भी प्रोत्साहित किया। ब्रिटेन में टोनी ब्लेयर और जर्मनी में एंजेला मर्केल का ही उदाहरण लें। जरा सोचिए, पश्चिम आज इस स्थिति तक कैसे पहुंचा?
भ्रष्टाचार वामपंथ की देन
इसका उत्तर उस दौर में छिपा है, जब पश्चिम के सबसे शिक्षित, उन्नत, समृद्ध और खुशहाल देशों के अभिजात्य वर्ग उन देशों को नष्ट करना चाहते थे, जिन पर वे शासन कर रहे थे और लोग सिर्फ ताली बजा रहे थे। 19वीं सदी में कार्ल मार्क्स के जन्म के बाद इसकी शुरुआत हुई। उसने आम जन को भ्रमित किया और कुलीन वर्ग को भयभीत किया। उसने धन के स्रोत की गलत व्याख्या की, भीड़ को अभिजात्य वर्ग पर हावी होने दिया। लिहाजा, अभिजात्य वर्ग ने समझौता करना शुरू कर दिया। स्थिति यह हो गई थी कि कोई भी व्यक्ति हिंसा की धमकी देता था, तो सामने वाले के पास उससे समझौता करने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं बचता था। बर्नहैम के अनुसार, यह मार्क्सवाद/ साम्यवाद/ वामपंथ की नैतिकता ‘द्वंद्वात्मक सिद्धांत’ का भी उन्मूलन था। बर्नहैम ने रोजर किमबॉल की पुस्तक ‘सुसाइड आफ द वेस्ट’ की भूमिका (पृष्ठ-11 किंडल संस्करण) में लिखा है कि यह केवल एक उपकरण है, जो घोषित करता है कि ‘‘जो कोई भी कम्युनिस्ट सत्ता के हित में काम करता है, वह सच्चा है।’’
पश्चिम पर शासन करने वाले लिबरल मार्क्सवादी हैं। उनमें कोई नैतिकता नहीं है। यह सब उनके सापेक्ष है। इसलिए, उनके पास समाज के विभिन्न वर्गों के लिए अलग-अलग नैतिक कानून हैं। उन्होंने इसकी शुरुआत औद्योगिक श्रमिकों से की। वामपंथियों के अनुसार, उद्योगों-फैक्टरियों में काम करने वाले श्रमिकों का शोषण होता है, इसलिए वे हिंसा का सहारा लेने के हकदार हैं। नैतिकता के सामान्य कानून उन पर लागू नहीं होते हैं। वे औद्योगिक इकाइयों में धरना दे सकते हैं, उसे तहस-नहस कर सकते हैं और यहां तक कि मालिकों को भी मार सकते हैं, क्योंकि उनका शोषण किया जाता है।
लिहाजा, सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग ने हार मान ली। उन्हें डर था कि यदि श्रमिकों को औद्योगिक संयंत्र को जलाने की अनुमति नहीं दी गई, तो वे संसद भवन तक मार्च कर सकते हैं और उसे जला सकते हैं। यह नैतिक कानूनों से सभ्य लोगों द्वारा दी गई पहली छूट थी और तब से इसमें लगातार गिरावट आई है। इससे पश्चिम में औद्योगिक इकाइयों का विनाश और निर्भर वर्ग का उदय हुआ। काम में यह गहन जादुई गुण होता है, जो इसे करने वाले लोगों में एक चरित्र का निर्माण करता है। लेकिन काम के बिना कल्याण से पश्चिम के लोगों ने उस चरित्र को खो दिया। साथ ही, चारों ओर यह बात भी फैल गई की ‘पीड़ित’ या ‘उत्पीड़ित’ होने से नैतिक कानूनों से छूट मिल जाती है। इस तरह उदारवादियों ने ‘पीड़ित वर्ग’ तैयार करना शुरू किया और लोग खुशी से इसमें शामिल होते गए। भला कौन नैतिकता का बोझ उठाना चाहता है? बहुत कम लोग हैं, जो धन के स्रोत को समझते हैं। यहां तक कि बहुत अच्छे अर्थशास्त्री भी प्राय: उस स्रोत को इंगित करने में विफल रहते हैं, जो हिंसा से बाधित न हो तो धन देता रहता है।
पश्चिम की सबसे बड़ी गलती
धन के स्रोत को अर्थशास्त्र के दो सिद्धांतों से समझा जा सकता है। पहला है रिकार्डो का श्रम विभाजन सिद्धांंत और दूसरा है कार्ल मेन्जर का सीमांत उपयोगिता का नियम। रिकार्डो का सिद्धांत कहता है कि यदि दो व्यक्ति ‘ए’ और ‘बी’ दोनों वस्तुओं का उत्पादन करते हैं और कुल उत्पादन ‘सी’ है, तो ‘सी’ बड़ा हो जाएगा, यदि दोनों व्यक्ति इस बात पर सहमत हों कि उनमें से एक केवल ‘ए’ वस्तु और दूसरा केवल ‘बी’ वस्तु का उत्पादन करेगा। यह एक गणितीय समीकरण की तरह है, जो हमेशा सही होता है। वहीं, कार्ल मेन्जर का नियम कहता है कि किसी भी वस्तु का आंतरिक आर्थिक मूल्य नहीं होता है, किसी वस्तु का संपूर्ण आर्थिक मूल्य व्यक्तिपरक होता है।
यह स्पष्ट है कि दोनों नियम निजी संपत्ति की शुचिता, व्यापार की स्वतंत्रता और सोचने की स्वतंत्रता को कुछ ज्यादा ही मौलिक मानते हैं। यदि व्यक्ति जो उत्पादन करता है, वह उसकी निजी संपत्ति नहीं है और वह अपने उत्पादों का व्यापार करने के लिए स्वतंत्र नहीं है, व्यापार में वह जो वस्तु खरीदना चाहता है उसका मूल्य तय करने के लिए स्वतंत्र नहीं है, तो कोई व्यापार संभव नहीं है। इसलिए श्रम का विभाजन भी संभव नहीं है। यदि व्यक्ति सोचने, मन की बात कहने के लिए स्वतंत्र नहीं है, तो आर्थिक वस्तुओं का मूल्यांकन भी संभव नहीं है। एक बार फिर इसका मतलब यह हुआ कि कोई व्यापार नहीं है, इसलिए श्रम का विभाजन संभव नहीं है। यानी यदि निजी संपत्ति सुरक्षित नहीं है, तो समृद्धि संभव नहीं है और यदि व्यक्ति का दिमाग व उसके उत्पाद सुरक्षित और स्वतंत्र नहीं हैं, तो वह व्यापार करने, सोचने और बोलने के लिए स्वतंत्र नहीं है।
पश्चिम की समृद्धि निजी संपत्ति के अधिकार, व्यापार की स्वतंत्रता और बोलने की स्वतंत्रता से बनी थी। ये अधिकार उन लोगों ने बनाए थे, जिनमें सत्यनिष्ठा, चरित्र और सम्मान की भावना थी। लेकिन कार्ल मार्क्स ने दावा किया कि संपत्ति शोषित श्रमिकों द्वारा खड़ी की गई है, तो उसके अनुयायियों ने हिंसा शुरू कर दी और यह सब खत्म हो गया। उस समय तक पश्चिम पर भ्रष्ट अभिजात्य वर्ग का शासन था। उन्होंने भ्रष्टाचार खत्म करने की बजाए नैतिकता को ही खत्म कर दिया और श्रमिकों को हिंसा का अधिकार दे दिया। इससे अभिजात वर्ग का भ्रष्टाचार नीचे तक फैला और हर जगह पहुंच गया। यह उन लोगों तक पहुंच गया, जिन्हें केवल तथ्यों से निपटना था, जैसे विज्ञान क्षेत्र से जुड़े लोग।
आज के डॉक्टर, विज्ञान क्षेत्र से जुड़े लोग ‘लैंगिक अस्थिरता’ की आड़ में सेवा के नाम पर धोखाधड़ी कर नई पीढ़ी को विकृत कर रहे हैं। व्यक्ति का अंग-भंग करने वाले सर्जनों का ही उदाहरण लें। जीवन भर विज्ञान की पढ़ाई करने वाले सर्जन यह भली-भांति जानते हैं कि मानव शरीर 37.2 खरब से अधिक कोशिकाओं से बना है। प्रत्येक व्यक्ति का लिंग निर्धारण इन्हीं कोशिकाओं द्वारा होता है और कोई सर्जरी या परामर्श इसे किसी सूरत में नहीं बदल सकता है। इसके बावजूद सर्जन सर्जरी करके व्यक्ति का अंग-भंग कर देते हैं। आश्चर्य की बात है कि वे इस सबसे घृणित धोखाधड़ी को खुशी-खुशी स्वीकार कर रहे हैं। वास्तव में, पश्चिम की मृत्यु तो उस दिन हो गई, जब लिंग परिवर्तन के नाम पर धोखाधड़ी के पहले शिकार डेविड रीमर ने आत्महत्या कर ली थी। डॉ. जॉन विलियम मनी ने उसकी सर्जरी की थी।
काफिरों की ‘कमजोरी’ इस्लाम की ‘ताकत’
विज्ञान में भ्रष्टाचार ने जल्द ही ‘जलवायु परिवर्तन’ नामक धोखाधड़ी को जन्म दिया, जो इस्लाम और जादू-टोना के साथ एक और महामारी है, जो पश्चिम को भी मार रही है। डेविड रीमर की तरह, जो लोग ‘जलवायु परिवर्तन’ धोखाधड़ी को उजागर कर रहे हैं, उन्हें भी बर्बाद किया जा रहा है। कानून का दुरुपयोग कर उन्हें नौकरियों से निकाला जा रहा है। धोखेबाजों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। अभी तक पश्चिम में साहित्यिक चोरी को करियर खत्म करने वाला अपराध माना जाता था। चाहे शिक्षण, पत्रकारिता या लेखन से जुड़ा क्षेत्र हो, यदि किसी ने साहित्यिक चोरी की, तो उसका करियर तत्काल समाप्त हो गया। अब, इस पर आंसू टपका कर और माफी मांग कर व्यक्ति अपनी स्थिति बनाए रखता है। आज अमीरों और लिबरल्स के अधिकांश बच्चे असफल हैं, जो खुद कुछ नहीं कर सकते हैं। लेकिन राजनीति, शिक्षा, मीडिया, निगमों में मानव संसाधन विभाग आदि पर यही असफल लोग काबिज हैं। नैतिक और चारित्रक रूप से पतित यही लोग लोग व्यवसायों को विनियमित करते हैं, विज्ञान के क्षेत्र में मिलने वाले अनुदान को विनियमित करते हैं।
नौकरशाहों के करियर को नियंत्रित करते हैं, न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं, स्कूलों में बच्चों को शिक्षा देते हैं और मीडिया के माध्यम से प्रचार करते हैं। यही लोग भ्रष्टाचारियों को पकड़ते हैं, भ्रष्टाचारियों को बढ़ावा देते हैं और उन्हें आश्रय भी देते हैं। भ्रष्ट अभिजात्य वर्ग के इस दलदल के कारण ही इस्लाम अब पश्चिम में फल-फूल रहा है। इस्लाम को भ्रष्ट ‘काफिर’ अभिजात्य वर्ग से अधिक कुछ भी पसंद नहीं है। शुरुआत में इस्लाम साथ निभाता है, अच्छी-खासी घूस देता है। लेकिन सत्ता से बाहर रहता है और अभिजात्य वर्ग के गुटों को एक-दूसरे के खिलाफ लड़ाकर ताकतवर बन जाता है। फिर एक दिन वह अभिजात्य वर्ग के करीब आता है और उसकी गर्दन पकड़ कर मरोड़ देता है।
‘काफिर समाज’ में मतभेद ही इस्लाम की मूल ताकत है। इसलिए इस्लाम उन लोगों की पहचान कर उनका पालन-पोषण करता है और उन्हें धन उपलब्ध कराता है, जो मतभेद पैदा करते हैं और समाज में फॉल्ट लाइन बनाते और उसे बढ़ाते हैं। अभी तक पश्चिम के साथ वामपंथी जो कर रहे थे, वही भी इस्लाम कर रहा है। इसने वामपंथियों के हथकंडों को अपना लिया है। वामपंथियों ने पहले ही वास्तविक इतिहास को मिटा कर पश्चिम और इस्लाम के इर्द-गिर्द एक छद्म वास्तविकता तैयार कर दी थी। दरअसल, इस्लाम शिकार बनाने में माहिर है, लेकिन कई दशक पहले वामपंथियों ने इस्लाम को पश्चिम का शिकार घोषित किया था। इसलिए शुरुआत में पश्चिम के लोगों ने खुले मन से मुसलमानों का स्वागत किया। लेकिन आगे क्या? यदि कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया तो पश्चिम में आने वाले वर्ष कैसे होंगे?
इस्लाम की निगाह सत्ता पर
‘काफिर’ की तरह मुसलमान शिक्षा, करियर, धन, घर, खेल आदि नहीं चाहते हैं। पश्चिम में वे बेहतर जीवन के लिए नहीं आए हैं। वे तो सत्ता पर कब्जा करने आए हैं। वे पूरे विश्व में, हर देश में सत्ता चाहते हैं। कुरान की आयत 8.39 और 9.29 में अल्लाह ने उन्हें ऐसा करने का आदेश दिया है। कुरान की आयत 9.120, 9.14 और 9.15 में भी यही कहा गया है कि काफिरों के साथ किया गया हर बुरा काम अच्छा होता है। वे काफिरों को जो भी नुकसान पहुंचाते हैं, वास्तव में वह अल्लाह द्वारा ईमान वालों के हाथों काफिरों को दिया गया दंड है।
आयत 60.4, 58.22, 4.89, 4.144, 5.51, 5.54, 6.40, 9.23, और 60.1 (अल वला वा अल बारा का सिद्धांत) में अल्लाह ने ईमान वालों को काफिरों से नफरत करने के लिए कहा है, चाहे काफिर उनके साथ कैसा भी व्यवहार करें। 4.144 में अल्लाह ईमानवालों को काफिरों के साथ शांति से रहने पर गंभीर दंड की चेतावनी भी देता है और मुसलमान इस सब पर विश्वास करते हैं। उनके रहनुमाओं के दिमाग पर नियंत्रण से औसत मुसलमानों के दिमाग पर पूर्ण नियंत्रण हो जाता है।
एक मुसलमान को कभी भी नैतिक दिशा-निर्देश विकसित करने के लिए आवश्यक वयस्क चेतना को जगाने की अनुमति ही नहीं दी जाती है। उन्हें इस मामले में कभी कोई विकल्प नहीं दिया गया। यदि जिहाद में शामिल होने के लिए संपर्क किए जाने के बाद भी कोई इससे इनकार करता है, तो उसे मार दिया जाता है। इससे पता चलता है कि अफगानिस्तान जैसे देशों में लोग अमेरिका के बजाय तालिबान को क्यों चुनते हैं, बावजूद इसके कि अमेरिका उन पर तमाम सौगातें बरसा रहा था। जो भी मुसलमान इन सबको सुधारने की कोशिश करता है, उसे मार दिया जाता है।
पाकिस्तानी राजनेता सलमान तासीर ने पाकिस्तान के ईशनिंदा कानूनों का विरोध किया, तो उसके अंगरक्षक ने ही उसकी हत्या कर दी। यदि पश्चिम सोचता है कि उसकी समृद्धि या उसकी उदारता उपरोक्त में से कुछ भी बदल देगी, तो यह सोच ही गलत है। इसकी बजाए आतंकी ही होगा। इस्लाम अब पश्चिमी काफिरों के दिलों में खौफ पैदा करेगा। पाकिस्तानी सेना के ब्रिगेडियर एस.के. मलिक ने अपनी पुस्तक ‘द कुरानिक कॉन्सेप्ट आफ वॉर’ में कहा है कि काफिरों को समर्पण करने के लिए आतंक फैलाया जाता है। आतंकवाद दुश्मन पर निर्णय थोपने का साधन नहीं है; यह वह निर्णय है जिसे हम थोपना चाहते हैं।
‘‘धिम्मी को अपनी आत्मा, सौभाग्य और इच्छाओं को मौत के घाट उतारने का आदेश दिया गया है। सबसे बढ़कर, उसके जीवन के प्रेम, नेतृत्व और सम्मान को मार देना चाहिए। उसकी (धिम्मी) आत्मा की लालसाओं को उल्टा करना है, उस पर इतना अधिक बोझ डालना है जितना वह सहन कर सके, जब तक कि वह पूरी तरह से विनम्र न हो जाए। उसके बाद उसके लिए कुछ भी असहनीय नहीं रहेगा। वह वशीकरण या पराक्रम के प्रति उदासीन रहेगा। गरीबी और अमीरी उसके लिए एक समान होंगी, स्तुति और अपमान एक समान होंगे, रोकना और छोड़ना एक ही होगा, खोना और पाना एक समान होगा। फिर, जब सभी चीजें समान होंगी, तो यह (आत्मा) विनम्र होगी और स्वेच्छा से वही देगी, जो उसे देना चाहिए।’’ (तफसीर इब्न अजीबा, कुरान की आयत 9:29 पर टिप्पणी)
यह (अहमद इब्न मुहम्मद इब्न अजीबा) ऐसी दुर्दशा है, जिससे इस्लाम दुनियाभर में काफिरों को कम करना चाहता है। काफिरों का अस्तित्व केवल मुसलमानों को धन, दास और यौन दासियां उपलब्ध कराने के लिए है। वास्तव में इस्लाम ने यह समझ लिया है कि आतंक मनुष्य के अवचेतन मन पर प्रहार करता है। आतंक से त्रस्त लोगों को यह अहसास भी नहीं होता कि वे इनसान होने की चेतना खो रहे हैं और इस प्रकार समर्पण कर देते हैं और बोझ ढोने वाले पशु बन जाते हैं। वे पहले से ही मुसलमानों का तुष्टीकरण करना शुरू कर देते हैं, क्योंकि केवल जीवित रहना ही उनके दिमाग में है। वे लगातार इस्लाम की प्रशंसा करते हैं और साथी काफिरों के साथ सामाजिक जुड़ाव खो देते हैं।
वे अविश्वसनीय और चालाक बन जाते हैं और उनमें शर्म की भावना भी नहीं रहती। इसीलिए इस्लाम का उद्देश्य काफिरों के दिलों में दहशत पैदा करना है। माजिद खद्दुरी के अनुसार, ‘‘यदि सख्ती सैन्य नहीं है, तो मजहब में इस्लाम की सार्वभौमिकता ईमान वालों पर युद्ध, मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक के रूप में थोपी जाती है। इसी प्रकार, जिहाद को युद्ध की स्थायी स्थिति के सिद्धांत के रूप में कहा जा सकता है, न कि निरंतर लड़ाई के रूप में।’’ नियमित आतंकी हमलों और मनोवैज्ञानिक युद्ध से इस्लाम आतंक की इस स्थिति को हासिल कर लेगा। यह हत्या करेगा, बलात्कार करेगा और लूटपाट करेगा और साथ ही, पीड़ित होने का विलाप जारी रखेगा, यह सुनिश्चित करने के लिए कि काफिर प्रतिक्रिया न करें।
इब्न अल-मुनीर (मृत्यु 1333) ने लिखा है, ‘‘युद्ध छल है, यानी एक मजहबी योद्धा द्वारा छेड़ा गया सबसे पूर्ण और परिपूर्ण युद्ध धोखे का युद्ध है, टकराव का नहीं, क्योंकि उत्तरार्द्ध के अंतर्निहित खतरे के कारण, और यह तथ्य कि कोई व्यक्ति (स्वयं को) नुकसान पहुंचाए बिना विश्वासघात से विजय हासिल की जा सकती है।’’ इब्न हजर (मृत्यु 1448) ने मुसलमानों को सलाह दी है कि ‘‘युद्ध में बहुत सावधानी बरतें, काफिरों को धोखा देने के लिए (सार्वजनिक रूप से) विलाप और मातम करें।’’
मीडिया की भूमिका
पश्चिम में लिबरल लोग प्रत्येक आतंकी हमले के लिए पश्चिमी देशों को दोषी ठहराएंगे। वे हर आतंकी हमले के बाद इस्लाम के लिए और अधिक रियायतों की मांग करेंगे। इस प्रकार, पश्चिम लगातार आत्मसमर्पण करता रहेगा और इस्लाम अपने अनुकूल राजनेताओं को रिश्वत देगा और जो इसका विरोध करेंगे, उन्हें कलंकित कर, नौकरियों से निकाल कर सीधे तौर पर खत्म कर देगा। विडंबना यह है कि काफिर राजनेताओं को इस्लाम जो रिश्वत देता है, उसका वित्तपोषण भी ‘काफिरों’ द्वारा ही किया जाता है। जिन राजनेताओं को यह रिश्वत देता है, वे इस्लामिक तहजीब केंद्रों, मदरसों और मुस्लिम गैर सरकारी संगठनों जैसे अपने संगठनों को कर का पैसा अनुदान में देते हैं।
पश्चिम में इस्लाम पहले ही दो स्तरीय पुलिस व्यवस्था हासिल कर चुका है। अंत में स्थिति यह हो जाएगी कि ‘काफिरों’ के पास मुसलमानों के पालतू जानवरों से भी कम अधिकार होंगे। उदाहरण के लिए, पाकिस्तान में यदि कोई मुसलमान अपने पड़ोसी मुस्लिम की भैंस चुरा लेता है, तो पुलिस आती है, जांच करती है और उस पर भैंस वापस करने के लिए दबाव डालती है। लेकिन अगर वही मुसलमान अपने हिंदू पड़ोसी की दस साल की बेटी का अपहरण कर लेता है और घोषणा करता है कि उसने इस्लाम कबूल कर लिया है और उससे शादी कर ली है, तो कोई भी पुलिस, कोई अदालत और कोई भी सरकार उसे लड़की वापस नहीं दिला सकती।
भारत में हम देखते हैं कि मुसलमान उन राजनेताओं को वोट नहीं देते हैं, जो अच्छा शासन करते हैं, बल्कि उन राजनेताओं को वोट देते हैं जो दो स्तरीय पुलिस व्यवस्था की अनुमति देते हैं। और दो स्तरीय पुलिसिंग शरिया के अलावा कुछ नहीं है, क्योंकि शरीयत में मुसलमानों और काफिरों के लिए अलग-अलग कानून हैं। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए लिबरल वर्ग इस्लाम की सेवा में वर्तमान को गलत साबित करने जैसे उपकरणों से इस्लाम की मदद कर रहे हैं।
ऐसा कोई भी समाचार, जो लोगों को इस्लाम की वास्तविकता से परिचित करा सकता है, उसे मीडिया द्वारा प्रकाशित या प्रसारित नहीं किया जाता है। दुनिया में कहीं भी मुसलमानों के साथ होने वाली किसी भी प्रतिकूल घटना को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है और कई दिनों तक चर्चा में रखा जाता है। इस प्रकार, एक छद्म वास्तविकता निर्मित होती है। इसका असर यह होता है कि औसत नागरिक यह निष्कर्ष निकालता है कि मुसलमानों को ‘हर जगह प्रताड़ित किया जा रहा है’। इसलिए जब वह उन्हें पश्चिमी शहर की सड़कों पर ‘काफिरों’ को मारते हुए देखता है, तो वह सब कुछ माफ कर देता है।
यह लंदन है!
दक्षिण-पूर्वी लंदन में चलती ट्रेन में 27 मार्च को एक व्यक्ति पर चाकू से हमले की घटना पर इंग्लैंड क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान केविन पीटरसन खासे नाराज हैं। इस घटना पर आक्रोश जताते हुए उन्होंने ट्वीट किया, ‘‘लंदन में यह क्या बकवास हो रहा है? एक समय लंदन सबसे अद्भुत शहर हुआ करता था। अब तो यह एक जगह के नाम पर कलंक है।
- आप किसी भी मूल्य की घड़ी नहीं पहन सकते।
- आप अपना फोन हाथ में लेकर नहीं घूम सकते।
- महिलाओं के बैग और आभूषण छीन लिए जाते हैं।
- चोरी के लिए कारों में तोड़फोड़ की जाती है।
- वीडियो में चाकूबाजी होती दिख रही है।
सादिक खान, तुमने जो बनाया है, उस पर तुम्हें गर्व होना चाहिए?
सादिक खान ब्रिटेन के मुख्य विपक्षी दल लेबर पार्टी के नेता और 2016 से लंदन के मेयर हैं।
उनके कार्यकाल में मुस्लिम उन्माद के साथ अपराध भी बढ़े हैं।
मुस्लिम-दलित गठजोड़
इस्लाम हर संभव प्रयास करता है कि ‘काफिर’ तब तक सोते रहें, जब तक कि पूर्ण नियंत्रण प्राप्त नहीं कर लेता। इसीलिए इंटरनेट पर कुरान के जो अनुवाद हैं, उनमें से उन हिस्सों को हटाया जा रहा है, जो इस्लाम के अनुकूल नहीं हैं। किसी देश में किसी भी हाशिए पर रहने वाले समूह को इसके पीछे छिपने के लिए, ‘काफिरों’ के उत्पीड़ित वर्गों के लिए लड़ने का नाटक करने के लिए एक सहयोगी बनाया जाता है ताकि पूरे इस्लामी आतंक को लिबरलों से ‘पंथनिरपेक्षता’ का टैग मिल सके।
उदाहरण के लिए, भारत के दलितों को सहयोगी के रूप में खोजा जा रहा है। डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान, और पार्टिशन आफ इंडिया’ (1945 में लिखी गई, अमेजॅन पर उपलब्ध) में इस्लाम के बारे में वह सच्चाई लिखी है, जो किसी ‘काफिर’ नेता ने नहीं लिखी, यहां तक कि चर्चिल ने भी नहीं। उन्होंने कहा है कि ‘‘मुसलमानों के साथ सह-अस्तित्व असंभव है और भारत के विभाजन के दौरान आबादी का कुल आदान-प्रदान होना चाहिए।’’ यानी विभाजन के बाद किसी भी मुसलमान को भारत में रहने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। इसके बावजूद भारत में सभी मुस्लिम रैलियों में आंबेडकर के पोस्टर प्रमुखता से लगाए जाते हैं, क्योंकि मुसलमान अभी दलितों को अपने सहयोगी के रूप में चाहते हैं।
लोग अक्सर समाधान पूछते हैं। इसका समाधान गैर-राजनीतिक सामाजिक संगठन हैं, जो राजनेताओं और सरकार पर नजर रख सकते हैं। पश्चिमी समाजों ने सब कुछ राजनेताओं और राजनीतिक दलों पर छोड़कर गलती की, क्योंकि राजनेता केवल एक ही चीज जानते हैं- जीतना और सत्ता बरकरार रखना। वे जिन लोगों पर शासन करते हैं, उनके प्रति उनकी कोई सहानुभूति नहीं है। सत्ता हासिल करने और इसके बरकरार रखने के लिए राजनेता कुछ भी कर सकते हैं और देश को थोक भाव में बेच भी सकते हैं।
पश्चिम को सामाजिक संगठनों को पुनर्जीवित करने की जरूरत है। ऐसे संगठन, जिनका राजनीति में शामिल होने या सत्ता हासिल करने का कोई लक्ष्य नहीं हो। संगठन लोगों में चारित्रिक विकास करने, हर जगह अन्याय से लड़ने, सत्तारूढ़ अभिजात्य वर्ग (राजनेता, नौकरशाही, मीडिया, शिक्षाविद्, न्यायपालिका) पर नजर रखने के लिए काम करते हैं और ऐसे लोगों द्वारा चलाए जाते हैं जिनका राजनीति में शामिल होने का कोई इरादा नहीं है, सत्ता की कोई लालसा नहीं है। साथ ही, यह सब धिम्मी स्थापित होने से पहले करने की जरूरत है, क्योंकि उसके बाद काफिरों को संगठित करना असंभव हो जाएगा।
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