विश्वभर में भी फैला हुआ है राम का नाम!

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रवि कुमार

रामायण सत कोटि अपारा-4 (विदेशों में रामकथा का प्रभाव)

प्रसिद्ध भजन है – “हमारे साथ श्री रघुनाथ तो, किस बात की चिंता। शरण में रख दिया जब माथ तो, किस बात की चिंता।।” राम का नाम ऐसा है कि एक बार राम नाम की शरण में चले गए तो प्राणी सब चिंताओं से मुक्त हो जाता है। इन्हीं चिंताओं से मुक्ति के लिए अयोध्या में रामलला के प्रत्यक्ष दर्शन के उमड़ पड़ा है भारत! और मात्र भारत ही नहीं तो विश्वभर की दृष्टि आज अयोध्या में विराजित रामलला पर है। रामनाम का विस्तार भारत में तो है ही, साथ में विश्वभर में भी फैला हुआ है राम का नाम!

इन देशों में है रामकथा का प्रभाव

विश्वभर के 60 से अधिक देशों में रामकथा का प्रभाव है। इन देशों में रामकथा कैसे पहुंची? सभी के बारे में जानकारी व तथ्य मिलना संभव नहीं है। शरद हेबालकर की दो पुस्तकें हैं – ‘भारतीय संस्कृति का विश्व संचार’ और ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’। इन दोनों पुस्तकों में ‘भारतीय संस्कृति दुनिया के कहां-कहां किस रूप में है’ का वर्णन है। भारत से लोग व्यापार करने विश्वभर में जाते रहे हैं। भारत के वैभव को सुनकर भारत दर्शन के लिए भी विश्व के अनेक देशों से लोग यहां आते रहे हैं। बौद्ध मत का विस्तार जब अनेक देशों में हुआ, तब यहां के अनेक बौद्ध भिक्षु वहां गए। यही सब माध्यम रहे होंगे, जिसके कारण रामकथा इतने देशों में पहुंची। जिन देशों में रामकथा का विस्तार हुआ, उनमें प्रमुख देश हैं – नेपाल, लाओस, कंपूचिया (कंबोडिया), मलेशिया, बाली, जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, थाईलैंड, फिलीपींस, वियतनाम, बांग्लादेश, तिब्बत, भूटान, श्रीलंका, चीन, मंगोलिया, जापान, कोरिया, सूरीनाम, मॉरीशस, इराक, तुर्किस्तान, सीरिया, मध्य अमेरिका के होंडूरास, मिस्र, तुर्की। इन देशों में साहित्यिक ग्रंथ, शिलालेख, भित्ति चित्र, लोक संस्कृति श्रीराम नाम की विरासत को समेटे हुए है।

शिलालेखों व शैल चित्रों में मिलते हैं राम

श्रीलंका में वह स्थान मिल गया है जहां रावण की सोने की लंका होती थी। जंगलों के बीच रानागिल की विशालकाय पहाड़ी पर रावण की गुफा है, जहां रावण ने तपस्या की थी। पुष्पक विमान के उतरने के स्थान को भी ढूंढ लिया गया है। श्रीलंका के इंटरनेशनल रामायण रिसर्च सेंटर व पर्यटन विभाग ने मिलकर रामायण से जुड़े पुरातात्विक व ऐतिहासिक महत्व के ५० स्थान ढूंढे हैं। जावा के प्रम्बनन का पुरावशेष चंडी सेवू (चंडी लाराजोंगरांग) है, इस परिसर में २३५ मंदिरों के भग्नावशेष हैं। मध्य भाग में स्थित तीन मंदिरों के मध्य शिव व ब्रह्मा मंदिर में रामकथा के शैल चित्र हैं। इन मंदिरों का निर्माण दक्ष नामक राजकुमार ने ९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में करवाया गया था। शिव मंदिर में ४२ और ब्रह्मा मंदिर में ३० शैल चित्र हैं। पूर्वी जावा में स्थित चंडी पनातरान में रामकथा के १०६ शैलचित्र बने हुए हैं।

कंपूचिया (कम्बोडिया) के अंकोरवाट मंदिर का निर्माण सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय (१११२-५३ ई.) के काल में हुआ। इस मंदिर में समुद्र मंथन, देव-दानव युद्ध, महाभारत व रामायण से सम्बंध अनेक शैलचित्र हैं। अंकोरवाट के शैलचित्रों में रामकथा अत्यंत विरत व संक्षिप्त है। थाईलैंड की राजधानी बैंकाक के राजभवन परिसर में जेतुवन विहार है। इसके दीक्षा कक्ष में संगमरमर के १५२ शिलापटों पर रामकथा के चित्र बने हुए हैं। लाओस के राजप्रसाद में थाई रामायण ‘रामकिएन’ और लाओ रामायण ‘फ्रलक-फ्रलाम’ की कथाएं अंकित हैं। लाओस का ‘उपमु’ बौद्ध विहार रामकथा-चित्रों के लिए विख्यात है। थाईलैंड के राजभवन परिसर में सरकत बुद्ध मंदिर की दीवारों पर सम्पूर्ण थाई रामायण ‘रामकिएन’ को चित्रित किया गया है।

वियतनाम के बोचान से एक क्षतिग्रस्त शिलालेख मिला है, जिस पर संस्कृत में ‘लोकस्य गतागतिम्’ उकेरा हुआ है। दूसरी या तीसरी शताब्दी में उकेरा गया यह उद्धरण वाल्मीकि रामायण के एक श्लोक की अंतिम लाइन पंक्ति है।

“क्रुद्धमाज्ञाय रामं तु वसिष्ठ: प्रत्युवाचह।
जाबालिरपि जानीते लोकस्यास्यगतागतिम्।।”
अयोध्या कांड ११०.१ ।।

वियतनाम के त्रा-किउ से मिले एक और शिलालेख जिसे चंपा के राजा प्रकाशधर्म ने खुदवाया था, में महर्षि वाल्मीकि का स्पष्ट उल्लेख है- ‘कवेराधस्य महर्षे वाल्मीकि पूजा स्थानं पुनस्तस्यकृत’। ईरान-इराक की सीमा पर स्थित बेलुला में ४००० वर्ष पुराने गुफा चित्र मिलते हैं जिसमें श्रीराम का वर्णन है। मिस्र में १५०० वर्ष पूर्व राजाओं के नाम तथा कहानियां ‘राम’ के जैसी ही मिलती हुई हैं। इटली में ५वीं शताब्दी ईसा पूर्व रामायण से मिलते-जुलते चित्र दीवारों पर मिले हैं। प्राचीन इटली में ‘रावन्ना’ क्षेत्र में रावण की कथा की कलाकृतियाँ मिलती हैं। मध्य अमेरिका के देश होंडुरास के घने जंगलों में हनुमान जी की प्रतिमा है। चीन के उत्तर पश्चिम में स्थित मंगोलिया के लोगों को राम कथा की विस्तृत जानकारी है। वहां के लामाओं के निवास स्थल से वानर पूजा की अनेक पुस्तकें व प्रतिमाएं मिली हैं। मंगोलिया से रामकथा से संबंधित अनेक काष्ठचित्र प्राप्त हुए हैं। इराक में एक भित्ति चित्र में भगवान राम का चित्र मिला है। यह भित्ति चित्र २००० ईसा पूर्व का है, ऐसा कहा जाता है।

विदेशी साहित्य में राम का नाम

इंडोनेशिया की रामायण ‘काकविन’ २६ अध्यायों का एक विशाल ग्रन्थ है। इंडोनेशिया के पहले राष्ट्रपति सुकर्णो ने पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल के एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि भले ही इस्लाम हमारा मजहब है, पर राम और रामायण हमारी संस्कृति है।
लाओस की संस्कृति पर भारतीयता की गहरी छाप है। लाओस में रामकथा पर आधारित चार रचनाएँ उपलब्ध है- फ्रलक फ्रलाम (रामजातक), ख्वाय थोरफी, ब्रह्मचक्र और लंका नोई। थाईलैंड का रामकथा साहित्य बहुत समृद्ध है। यहां छह प्रकार की रामायण उपलब्ध हैं- १. तासकिन रामायण, २. सम्राट राम प्रथम की रामायण, ३. सम्राट राम द्वितीय की रामायण, ४. सम्राट राम चतुर्थ की रामायण (पद्यात्मक), ५. सम्राट रामचतुर्थ की रामायण (संवादात्मक), ६. सम्राट राम षष्ठ की रामायण (गीति-संवादात्मक)। बर्मा में रामकथा साहित्य की १६ रचनाओं की जानकारी है जिनमें रामवत्थु कृति प्राचीनतम है।

मलयेशिया में रामकथा से सम्बंधित चार रचनाएँ उपलब्ध है- (१) हिकायत सेरीराम, (२) सेरी राम, (३) पातानी रामकथा और (४) हिकायत महाराज रावण। हिकायत सेरीराम हिन्दू रामायण महाकाव्य का मलय साहित्यिक रूपांतरण है। फिलिपींस की रचना महालादिया लावन का स्वरुप रामकथा से बहुत मिलता-जुलता है। चीन में रामकथा बौद्ध जातकों के माध्यम से पहुँची थीं। वहाँ अनामक जातक और दशरथ कथानम का क्रमश: तीसरी और पाँचवीं शताब्दी में अनुवाद किया गया था। तिब्बती रामायण की छह पांडुलिपियाँ तुन-हुआन नामक स्थल से प्राप्त हुई हैं। इनके अतिरिक्त दमर-स्टोन तथा संघ श्री विरचित दो अन्य रचनाएँ भी हैं।

तुर्किस्तान के भाग पूर्वी खोतान की भाषा खोतानी है। खोतानी रामायण की प्रति पेरिस पांडुलिपि संग्रहालय से प्राप्त हुई है। इस पर तिब्बती रामायण का प्रभाव परिलक्षित होता है। मंगोलिया में राम कथा पर आधारित जीवक जातक नामक रचना है। इसके अतिरिक्त वहाँ तीन अन्य रचनाएँ भी हैं। जापान के एक लोकप्रिय कथा संग्रह होबुत्सुशु में संक्षिप्त रामकथा संकलित है। इसके अतिरिक्त वहाँ अंधमुनिपुत्रवध की कथा भी है। श्रीलंका में कुमार दास के द्वारा संस्कृत में जानकी हरण की रचना हुई थी। वहाँ सिंहली भाषा में भी एक रचना है, मलयराजकथाव। श्रीलंका के पर्वतीय क्षेत्र में कोहंवा देवता की पूजा होती है। इस अवसर पर यह कथा कहने का प्रचलन है। नेपाल में रामकथा पर आधारित अनेकानेक रचनाएँ हैं जिनमें भानुभक्तकृत रामायण सर्वाधिक लोकप्रिय है।

कहां कहां होता है रामलीला मंचन

एशिया के विभिन्न देशों में रामलीला को प्रधानत: दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है – मुखौटा रामलीला और छाया रामलीला। मुखोटा रामलीला में इंडोनेशिया और मलेशिया के ‘लाखोन’, कंपूचिया के ‘ल्खोनखोल’ तथा बर्मा के ‘यामप्वे’ का प्रमुख स्थान है।
कंपूचिया में रामलीला का अभिनय ल्खोनखोल (‘ल्खोन’ अर्थात नाटक) के माध्यम के होता है। इसके अभिनय में मुख्य रुप से ग्राम्य परिवेश के लोगो की भागीदारी होता है। कंपूचिया के राजभवन में रामायण के प्रमुख प्रसंगों का अभिनय होता था। मुखौटा रामलीला को थाईलैंड में ‘खौन’ कहा जाता है। इसमें संवाद के अतिरिक्त नृत्य, गीत एवं हाव-भाव प्रदर्शन की प्रधानता होती है। केवल विदूषक अपना संवाद स्वयं बोलता है। स्याम से आई बर्मा की मुखौटा रामलीला को यामप्वे कहा जाता है। इसलिए यामप्वे में विदूषक की प्रधानता होती है। हास्यरस के प्रेमी बर्मा के लोगों के लिए रामलीला आरंभ होने के पूर्व एक-दो घंटे तक हास-परिहास और नृत्य-गीत का कार्यक्रम चलता रहता है।

जावा तथा मलेशिया के ‘वेयांग’ और थाईलैंड के ‘नंग’ नामक छाया रामलीला का विशिष्ट स्थान है। जापानी भाषा में ‘वेयांग’ का अर्थ छाया है। इसमें सफ़ेद पर्दे को प्रकाशित किया जाता है और उसके सामने चमड़े की पुतलियों की छाया पर्दे पर पड़ती है। छाया नाटक के माध्यम से रामलीला का प्रदर्शन पहले तिब्बत और मंगोलिया में भी होता था। थाईलैंड में छाया-रामलीला को ‘नंग’ (दो रुप- ‘नंगयाई’ और ‘नंगतुलुंग’) कहा जाता है। नंग का अर्थ चर्म या चमड़ा और याई का अर्थ बड़ा है। ‘नंगयाई’ का तात्पर्य चमड़े की बड़ी पुतलियों से है। ‘नंग तुलुंग’ दक्षिणि थाईलैंड में मनोरंजन का लोकप्रिय साधन है। इसकी चर्म पुतलियाँ नंगयाई की अपेक्षा बहुत छोटी होती हैं। थाईलैंड के ‘नंग तुलुंग’ और जावा तथा मलेशिया के ‘वेयांग कुलित’ में बहुत समानता है। वेयांग कुलित को वेयंग पूर्वा अथवा वेयांग जाव भी कहा जाता है।

कंबोडिया में रामलीला तुलसीदास रचित रामचरितमानस के आधार पर होती है और इस पर कंबोडिया की कला का साफ प्रभाव दिखाई देता है। लाओस में वाल्मीकि रामायण का मंचन गीत-संगीत और नृत्‍य के साथ होता है। मॉरीशस में हर वर्ष रामलीला का आयोजन यहाँ का कला और सांस्कृतिक मंत्रालय कराता है।

तुलसीकृत रामचरितमानस का विदेशों में प्रभाव

गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ विदेशों में काफी लोकप्रिय रही। भारत से बाहर जो लोग गए, वे इसे साथ ले गए। विदेशी विद्वान भी तुलसी साहित्य के प्रति आकर्षित हुए। तीन प्रमुख नाम ऐसे विदेशी विद्वानों के आते हैं।

१. अमेरिका के ‘अब्राहम जॉर्ज ग्रियर्सन’, २. फ्रांस के ‘गार्सा द तासी’, ३. इंग्लैंड के ‘एफ.एस.ग्राउज’। ग्रियर्सन का लेख ‘द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्थान’ शीर्षक से एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल के ‘जर्नल’ में प्रकाशित हुआ जिसमें तुलसीदास के रचना संसार का विवेचनात्मक वर्णन है। १८९३ में उनकी दूसरी पुस्तक ‘नोट्स ऑफ तुलसीदास’ प्रकाशित हुई। इसके अलावा तुलसी साहित्य पर उनके और भी दो लेख प्रकाशित हुए। फ्रांसीसी विद्वान तासी ने रामचरितमानस के सुंदर कांड का फ्रेंच में अनुवाद किया जो काफी लोकप्रिय हुआ। इंग्लैंड के विद्वान ग्राउज ने रामचरितमानस का अंग्रेजी में अनुवाद किया जो ‘द रामायण ऑफ तुलसीदास’ शीर्षक से १८७१-७८ के मध्य अलग अलग भागों में छपा।

१९११ में इटली के फ्लोरेंस विश्वविद्यालय में पी.एल.तेस्सी तोरी ने रामकथा के लिए तुलसीदास पर पहली पी.एच.डी. की। १९१८ में लंदन के जे.एन. कारपेंटर ने दूसरा शोध किया जिसे ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय ने प्रकाशित किया। रूसी साहित्यकार अलेक्सेई वरान्निकोव (१८९०-१९५२) ने डॉ. श्यामसुंदर द्वारा संपादित रामचरितमानस का रूसी भाषा में अनुवाद किया, जिसे १९४८ में सोवियत संघ की साहित्य अकादमी ने प्रकाशित करवाया। अमेरिकी विद्वान मीसो केवलैंड ने रामकथा को बाल साहित्य के रूप में रूपांतरित कर ‘एडवेंचर ऑफ रामा’ शीर्षक से प्रकाशित करवाया।

ईसाई मिशनरी से ‘मानस मनीषी’

श्रीराम को विश्व मंच पर लोकप्रिय बनाने में ‘फादर कामिल बुल्के’ का योगदान भी महत्वपूर्ण है। वे ईसाई मिशनरी से मानस मनीषी बने। उन्होंने अपने शोध प्रबंध ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’ में विश्व में श्रीराम की ऐतिहासिकता के ३०० से अधिक प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। १९३४-३५ में बेल्जियम से भारत आए बुल्के ने रामकथा की उत्पत्ति और विकास पर बड़ा काम किया। उन्होंने सिद्ध किया कि रामकथा वियतनाम से कम्बोडिया तक फैली हुई है। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा कि उनके एक इंडोनेशियाई मित्र डॉ. होयकास सायंकाल टहल रहे थे तो उन्होंने एक मौलाना को रामायण पढ़ते देखा। डॉ. होयकास ने उस मौलाना से पूछा कि आप मौलाना है, फिर आप रामायण क्यों पढ़ रहे है। मौलाना से उत्तर मिला – “और भी अच्छा मनुष्य बनने के लिए”। ‘रामकथा’के इस विस्तार को बुल्के भारतीय संस्कृति की ‘दिग्विजय’ कहते है।
(लेखक विद्या भारती जोधपुर (राजस्थान) प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)

 

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