बदायूं। अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल सिंह शायद खुद को बूढ़ा महसूस कर रहे हैं, इसलिए पुत्र आदित्य के लिए टिकट की पैरोकारी करते हुए उन्होंने बदायूं का चुनावी मैदान छोड़ छोड़ रहे हैं। शिवपाल के तेवर और तैयारी देखकर लग रहा है कि वह भी मुलायम सिंह की तरह अपने बेटे को जल्दी ही मुख्यधारा की राजनीति में लाना चाहते हैं। सैफई खानदान में अकेले वही ऐसे शख्स हैं, जो न तो खुद सांसद बन सके हैं और न उनका लाड़ला बेटा आदित्य। अखिलेश ने चचेरे भाई धर्मेन्द्र यादव का टिकट काटकर चाचा शिवपाल को बदायूं के रण में लड़ने भेजा था लेकिन वह भी बीच चुनावी डगर दाएं-बाएं होते दिखाई दे रहे हैं। समाजवादियों का यही हाल देख बदायूं आए सीएम योगी आदित्यनाथ कहकर भी गए हैं कि परिवारवादी सपा-कांग्रेस की यही कहानी है, जिनके लिए स्वार्थ सब कुछ है और जनहित जैसे शब्द बेमानी हैं।
परिवारवाद की सच्चाई सपा और सैफई खानदान को देखकर समझी जा सकती है। देश क्या, पूरी दुनिया में इनको छोड़कर शायद ही ऐसा कोई परिवार होगा, जिसमें बड़े से छोटे सब एक दूसरे को चुनावी मोर्चे पर जुटाते हैं और समाजवादी होने का शोर उठाकर पार्टी के आम कार्यकर्ता, पदाधिकारी व नेताओं को पीछे धकेलकर खुद आगे बढ़ते जाते हैं। बदायूं में जो कुछ हो रहा है, वो न अप्रत्याशित लगता है और न अचंभित करने वाला। आखिर भी शिवपाल भी कब तक मन मारकर रहते ! भारी मुस्लिम विरोध देखते हुए वह पहले दिन से बदायूं से चुनाव नहीं लड़ना चाह रहे थे। इसके बाद भी अखिलेश ने धर्मेन्द्र यादव का टिकट बदलकर उन्हें बदायूं से उम्मीदवार घोषित कर दिया तो अनुसार वह 22 दिन कोप भवन में रहे थे।
जैसे तो मान-मनोब्बल के बाद शिवपाल बदायूं में प्रचार करने उतरे भी थे तो पार्टी के क्षेत्रीय छत्रपों में समाजवादी पार्टी के प्रति पनप रहे असंतोष व आक्रोश से अपने लिए चुनावी राह मुश्किल महसूस कर रहे थे। ऐसे में मौका ताड़कर शिवपाल ने अब वही दांव चल दिया है, जैसा कि परिवार में पहले होता दिखा था। नरेश प्रताप सिंह जैसे बदायूं के जिन समाजवादियों ने आदित्य यादव को चुनाव लड़ाने की खुले मंच से पैरोकारी की, वे सब शिवपाल के ही करीबी बताए जाते हैं। कुछ ऐसे ही 2012 में यूपी में सपा की सरकार बनने के बाद अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाए जाने की मांग सपा कैंप में उठी थी और उसके बाद सैफई परिवार में यू टर्न लेकर नेताजी मुलायम सिंह के राजनैतिक उत्तराधिकार की कहानी बेटे अखिलेश यादव उर्फ टीपू की तरफ मुड़ गई थी। उससे आगे अखिलेश-शिवपाल में अलगाव, विघटन, बंटवारा, तुम अलग हम अलग के रूप में पूरे यूपी देख चुका है।
नेताजी मुलायम सिंह यादव के स्वर्गवास के बाद परिवार की कहानी फिर बदली और अखिलेश-शिवपाल पुर्नमिलन के रूप में सामने आई। हालांकि, पार्टी में शिवपाल की उसके बाद भी कितनी चली-चलाई गई, इस सच्चाई को शिवपाल भले न स्वीकारें मगर चुनावी व संगठन के मोर्चे पर बार-बार हाशिए पर जाते रहे उनके करीबी जरूर सुनते-कहते देखे जाते हैं। समाजवादी कैंप से जुड़े लोग नाम न छापे जाने की शर्त पर बताते हैं कि बदायूं से शिवपाल यादव का अचानक चुनावी रण छोड़ देना योजन-नियोजन की श्रंखला का ही एक हिस्सा प्रतीत होता है। पूरे सैफई खानदान में अकेले उनके बेटे आदित्य यादव ही ऐसे युवा बाकी हैं, जो हम उम्र भाई-भतीजों की तरह अभी तक मुख्यधारा की राजनीति से दूर हैं। शिवपाल 1996 से पैत्रिक इटावा जिले की जसवंत नगर सीट से विधायक बनते आ रहे हैं मगर समाजवादी पार्टी में सांसद-विधायक का चुनाव लड़ने तक का मौका उनके इकलौते बेटे आदित्य को अब तक नहीं मिला है।
परिवार में प्रो. रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव फिरोजाबाद से सांसद रह चुके हैं और फिर वहीं से समाजवादी पार्टी के लोकसभा उम्मीदवार हैं। उपचुनाव हारने के बाद भी सपा प्रमुख अखिलेश पूर्व सांसद धर्मेन्द्र यादव को आजमगढ़ से लड़ा रहे हैं। मुलायम सिंह यादव के पोते और अखिलेश के भतीजे तेज प्रताप यादव अभी कहीं से चुनाव मैदान में जरूर नही हैं, लेकिन वह भी मैनपुरी सीट का लोकसभा में प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। अखिलेश यादव खुद कहां से चुनाव लड़ने वाले हैं, पार्टी ने अभी यह स्पष्ट नहीं किया है लेकिन उनकी सांसद पत्नी डिंपल यादव फिर से मैनपुरी के मैदान में उतर चुकी हैं। परिवार के दूसरे सदस्य भी अपनी अपनी तरह से ब्लाक, जिला पंचायत की राजनीति करते नजर आते हैं। बाकी बचते हैं तो हमउम्र पारिवारिक सदस्यों में अकेले आदित्य यादव, जो सहकारिता के खेल में तो अब तक दौड़ लगाते आ रहे हैं मगर बाकी खानदानवालों की तरह मुख्यधारा की राजनीति से दूर हैं। इसे पुत्रमोह कहें या 2019 के बाद से बदायूं के बदले समीकरणों का प्रभाव, शिवपाल खास वजह से ही अपने कदम यहां से पीछे खींच रहे हैं। शिवपाल अब बदायूं के समाजवादियों के जरिए भतीजे अखिलेश के सामने पार्टी को जवान बनाए रखने की दुहाई दे रहे हैं और अपनी जगह लाड़ले बेटे आदित्य को चुनावी मौका देने की मांग उठा रहे हैं। अखिलेश अब चाचा की सुनते हैं या फिर नहीं, यह आगे पता लगेगा मगर शिवपाल सियासी बिसात पर अपने अंदाज में खास चाल चल चुके हैं।
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