मध्यकालीन भारत के जिन संत-सुधारकों ने एक मौन क्रांति के द्वारा मुस्लिम आक्रांताओं के क्रूर अत्याचारों से कराह रहे भारतीय जनमानस को ईश्वरीय आलम्बन प्रदान किया था; उनमें चैतन्य महाप्रभु का अप्रतिम योगदान है। भगवान श्रीकृष्ण का “प्रेमावतार” माने जाने वाले इस अप्रतिम संत का जन्म बंगाल के नवद्वीप नामक गांव (अब मायापुर) में संवत 1407 में फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा को होलिका दहन के दिन पंडित जगन्नाथ मिश्र और शची देवी के घर हुआ था। एक ऐसे अंधयुग में जहां एक ओर हिंदू समाज छुआछूत व ऊंच-नीच की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था तो वहीं दूसरी ओर जनता क्रूर मुस्लिम शासकों के अत्याचार व मतांतरण की तलवार से आतंकित थी। इस महान विभूति ने सार्वजनिक हरिनाम संकीर्तन की रसधार बहाकर पीड़ित मानवता को श्रीकृष्ण प्रेम की जो संजीवनी सुधा पिलायी थी; वैष्णव भक्तों के हृदय में उसकी गमक सैकड़ों वर्षों बाद भी बरकरार है। हरिनाम संकीर्तन की अपनी अनूठी शैली से उन्होंने समाज में मानवीय एकता व सद्भावना का बिगुल फूंका था। उनके इस भक्ति आंदोलन का मूल लक्ष्य था “सर्व-धर्म समभाव, प्रेम, शांति और अहिंसा की भावना को जन-जन के हृदय में संचारित कर लोगों का हृदय परिवर्तन करना।
भगवान श्रीकृष्ण की द्वापरयुगीन विलुप्त लीलास्थली वृन्दावन को पुनः चैतन्य करने का श्रेय महाप्रभु जी को ही जाता है। आज से पांच सौ साल पहले भारत के इसी महान संत ने देश-दुनिया के सनातनधर्मियों को वृंदावन की पुरातन महत्ता से परिचित कराकर उनके मन में दिव्य तीर्थ के प्रति भक्ति भाव जागृत किया था। ‘इस्कॉन’ के संस्थापक आचार्य ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के अनुसार चैतन्य महाप्रभु को गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय का आदि आचार्य माना जाता है, जिन्होंने अपने छह प्रमुख अनुयायियों को वृंदावन भेजकर वहां सप्त देवालयों की आधारशिला रखवायी थी जो बाद में गौड़ीय संप्रदाय के षड्गोस्वामियों के नाम से विख्यात हुए। इन छह आध्यात्मिक विभूतियों- गोपाल भट्ट गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, जीव गोस्वामी व रघुनाथ दास गोस्वामी ने वृंदावन में सात वैष्णव मंदिरों की स्थापना कर कृष्ण की क्रीड़ास्थली को पुनः जीवंत बनाने में उल्लेखनीय योगदान दिया था। गौड़ीय संप्रदाय के ये सात प्रमुख वैष्णव मंदिर हैं- गोविंददेव मंदिर, गोपीनाथ मंदिर, मदन मोहन मंदिर, राधा रमण मंदिर, राधा दामोदर मंदिर, राधा श्यामसुंदर मंदिर और गोकुलानंद मंदिर। वृंदावन की आध्यात्मिक विरासत के संरक्षण में इन ऐतिहासिक सप्त देवालयों की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है।
जिस तरह बंगभूमि में प्रति वर्ष फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को गौरांग प्रभु का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया जाता है ठीक वैसे ही वृंदावन में कार्तिक पूर्णिमा के दिन गौरांग प्रभु का आगमनोत्सव हर्षोल्लास से मनाया जाता है। श्री चैतन्य महाप्रभु की प्रेरणा से जगन्नाथ रथयात्राओं के माध्यम से शुरू हुई श्रीकृष्ण संकीर्तन यात्रा भी आज तक जारी है। आज भी जगन्नाथ रथयात्रा में चैतन्य महाप्रभु का नाम लेकर “निताई गौर हरि बोल” का उद्घोष करके संकीर्तन शुरू किया जाता है।
कहते हैं कि इस महान कृष्णभक्त का बचपन अनेक विलक्षणताओं से भरा था। वे 13 माह तक मां के गर्भ में रहे थे। तीन माह की दुधमुहीं आयु में एक दिन वे खटोले पर लेटे-लेटे बहुत जोर से रो रहे थे, लाख कोशिश पर भी रुदन थम नहीं रहा था; तब माँ ने उन्हें खटोले से उठाकर ज्यों ही कंधे पर लिटा कर “हरि बोल, हरि बोल…” पद गाकर थपकी दी, वे तत्क्षण चुप हो गये। यूं तो उनके बचपन का नाम विशम्भर था; मगर नीम के पेड़ के नीचे जन्म लेने के कारण सब उन्हें प्यार से ‘निमाई’ नाम से पुकारते थे। उनका रंग दूध जैसा उजला था; सो वे गौरांग नाम से भी पुकारे जाते थे। जब वे 11 वर्ष के हुए तो पिता का स्वर्गवास हो गया और बड़े भाई विश्वरूप भी किशोरवय में संन्यासी बन गये। उसके बाद से निमाई ही माँ का एकमात्र सहारा रह गये। पिता व भाई के असमय विछोह में चंचल निमाई को गंभीर बना दिया। कहते हैं कि तीक्ष्ण बुद्धि के निमाई 15 वर्ष की किशोरवय में न्यायशास्त्र पर एक अपूर्व ग्रंथ लिखकर ‘निमाई पंडित’ के नाम से विख्यात हो गये थे। यह देख कर उस क्षेत्र के न्यायशास्त्र के एक अन्य विद्वान को भय हो गया कि निमाई के ग्रंथ के कारण उनकी लोकप्रियता कम हो जाएगी। यह पता चलते ही निमाई पंडित ने अपना ग्रंथ उसी समय गंगा में बहा दिया। 16 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह लक्ष्मी देवी से हुआ किंतु विवाह के कुछ ही दिन बाद सर्पदंश से असमय उनकी मृत्यु हो गयी। माँ की इच्छापूर्ति के लिए दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ किया और घर पर ही रहकर लोगों को शिक्षित करने तथा वैदिक साहित्य के अध्ययन में जुट गये।
बताया जाता है कि पिता के निधन के एक वर्ष बाद निमाई उनका श्राद्ध करने जब गया तीर्थ गये तो वहां उनकी भेंट ईश्वरपुरी नाम के एक वैष्णव संत से हुई जिन्होंने उन्हें कृष्णभक्ति का मंत्र दिया। उसके कुछ समय बाद केशव भारती से संन्यास की दीक्षा लेकर निमाई से चैतन्य महाप्रभु बन कृष्ण भक्ति में आकंठ डूब गये। उनके “हरे-कृष्ण हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे-हरे। हरे-राम हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे।। संकीर्तन मंत्र का ऐसा प्रभाव हुआ कि लाखों लोग महाप्रभु के अनुयायी हो गये। इस हरि नाम संकीर्तन यात्रा के साथ महाप्रभु जब पहली बार पुरी के जगन्नाथ मंदिर पहुंचे तो भगवान की मूर्ति देखकर भाव-विभोर नृत्य करते करते मूर्छित हो गये। वहां उपस्थित पुरी के प्रकाण्ड पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य उन्हें उठाकर अपने घर ले आये। घर पर शास्त्र-चर्चा के दौरान सार्वभौम के पाण्डित्य प्रदर्शन को देख महाप्रभु ने जब उन्हें अपने वास्तविक रूप का दिग्दर्शन कराया तो सार्वभौम के ज्ञान चक्षु खुल गये और वे सदा-सदा के लिए उनके शिष्य बन गये।
पंडित सार्वभौम भट्टाचार्य द्वारा की गयी चैतन्य महाप्रभु की शत-श्लोकी स्तुति को आज ‘चैतन्य शतक’ के नाम से जाना जाता है। पंडित सार्वभौम से प्रेरित होकर उड़ीसा के सूर्यवंशी सम्राट गजपति महाराज भी महाप्रभु के अनन्य भक्त बन गये थे। अपने जीवन के अंतिम दो दशकों में महाप्रभु नीलांचल धाम जगन्नाथ पुरी में ही रहे थे। जीवन के उतरार्द्ध में उनका कृष्ण प्रेम परकाष्ठा तक पहुंच गया था। वे मंदिर के गरुड़ स्तम्भ के सहारे खडे़ रहकर सुध-बुध खोकर घंटों प्रभु की छवि निहारते रहते और उनके नेत्रों से अश्रुधाराएं बहती रहती थीं। एक दिन उड़ीसा प्रान्त की एक वृद्धा जगन्नाथ जी के दर्शन को गरुड़ स्तम्भ पर चढ़कर महाप्रभु के कंधे पर पैर रख आरती देखने लगी। यह देख महाप्रभु के सेवक ने जब वृद्धा पर नाराजगी जतायी तो वे मुस्कुरा कर बोले- इसके दर्शनसुख में विघ्न मत डालो। यह सुनकर वृद्धा उनके चरणों में गिर गयी तो महाप्रभु उन्हें उठाकर बोले-माँ ! प्रभु के दर्शनों की तुम्हारी जैसी विकलता मुझमें नहीं; मेरा नमन स्वीकारो। इतना कह वे रोते हुए सीधे मन्दिर के गर्भग्रह में जा पहुंचे और देव प्रतिमा को आलिंगन में लेकर प्रार्थना करते करते सदा-सदा के लिए श्रीविग्रह में विलीन हो गये।
हरि कीर्तन के साथ चैतन्य देव जी ने जन कल्याण के भी अनेकानेक कार्य किये थे। विशेषकर कुष्ठ रोगियों की सेवा और विधवाओं का उद्धार। उन्होंने बंगाल की विधवाओं को वृंदावन आकर प्रभु भक्ति के रास्ते पर आने को प्रेरित किया। वृन्दावनदास की “चैतन्य भागवत”, कृष्णदास की “चैतन्य चरितामृत”, कवि कर्णपुर की “चैतन्य चंद्रोदय” तथा प्रभुदत्त ब्रह्मचारी द्वारा रचित “श्री श्री चैतन्य-चरितावली” आदि रचनाओं में चैतन्य महाप्रभु की महिमा गान के साथ के उनके लोकहित के कामों के बारे में भी अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं।
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