मालवा की राजधानी धार को उच्च प्रतिष्ठा प्रदान करने का श्रेय परमार राजवंश के सबसे महान अधिपति राजा भोज (1000-1055 ईं) को है। उन्होंने धार नगरी के प्राकृतिक परिवेश को और अधिक सुंदर बनाने में स्वयं रु
चि लेते हुए उज्जयिनी से अपनी राजधानी धारानगरी (धार) स्थानांतरित कर इस नगरी के गौरव एवं ज्ञान को असीम सीमाओं तक पहुंचाया। विद्वानों के आश्रयदाता होने के नाते राजा भोज ने धार में एक महाविद्यालय (शारदा सदन) की स्थापना की थी, जो कालांतर में भोजशाला के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यहां सुदूर तथा निकटवर्ती स्थानों से विद्यार्थी अपनी ज्ञान-पिपासा शांत करने के लिए आते थे।
उस समय राजा भोज के राजप्रासाद में परिमलगुप्त, धनपाल, दसबाला जैसे विद्वान रहते थे। राजा भोज ने शारदा सदन में कई विषयों के विद्वानों को अध्यापन कार्य एवं शास्त्रार्थ ज्ञान प्रदान करने हेतु नियुक्त किया। शारदा सदन में मां सरस्वती का मंदिर होने के साथ-साथ यह ज्ञान प्रसार का वृहद् एवं विकसित केंद्र रहा है। राजा भोज ने धारानगरी के अलावा कुछ अन्य स्थानों पर भी शारदा सदनों का निर्माण करवाया था। इनमें माण्डवगढ़ एवं उज्जयिनी के शारदा सदन प्रमुख हैं।
धार स्थित शारदा सदन में बड़ा खुला प्रांगण, सामने एक मुख्यमंडल, स्तंभों की शृंखला तथा पीछे की ओर पश्चिम में एक विशाल प्रार्थना गृह है। भोजशाला में नक्काशीदार स्तंभ हैं। यहां के प्रार्थना गृह की उत्कृष्ट नक्काशीदार छत नागर/वै
सर शैली वास्तुकला का एक उदाहरण है। भोजशाला में उत्कीर्णित शिलापट्टों से बहुमूल्य कृतियां प्राप्त हुई हैं।
1935 से पहले वहां नमाज नहीं पढ़ी जाती थी
भोजशाला का मामला बाकी सभी जगहों से अलग है। यहां पर अभी भी प्रति सप्ताह नमाज होती है, पर मंगलवार को हनुमान चालीसा और पूजा भी होती है। स्मारक अधिनियम के अंतर्गत इस स्थान को 1904 में संरक्षित घोषित कर दिया गया था। बाद में भी उस संरक्षा को दोहराया गया है।
आज यह स्थान ए.एस.आई. के आधिपत्य में है। इसका आधिपत्य कभी भी मुसलमानों के हाथ में नहीं था। इसलिए इसके वक्फ संपत्ति होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। 1935 से पहले यहां के रेवेन्यू रिकॉर्ड में भोजशाला मंदिर लिखा हुआ है, परंतु कहीं पर भी इसको मस्जिद नहीं लिखा है।
1935 से पहले यहां नमाज भी कभी नहीं पढ़ी गई थी। पूजा स्थल कानून में उन सभी स्थानों के लिए एक छूट है, जो पुरातात्विक स्मारक के अंतर्गत संरक्षित नहीं हैं। इसलिए यह उसमें भी नहीं आता है। इसका मूल चरित्र क्या है? खंभों पर वराह, राम, लक्षमण, सीता की मूर्ति हैं। जय-विजय द्वारपालों की मूर्ति है। इसके अलावा जमीन के अंदर का भाव क्या कहता है, इन सभी की विधिवत जांच हो रही है।
इसका हम सबको स्वागत करना चाहिए और विश्वास करना चाहिए कि इसमें हिंदू समाज को न्याय मिलेगा। मैं यह भी कहना चाहता हूं कि वहां पर एक बड़ा मकबरा है, जो कि उस सर्वे नंबर में नहीं है, जहां भोजशाला का मंदिर है। इसलिए इन दोनों को मिलाकर देखने का कोई अर्थ नहीं है।
प्राप्त शिलालेख
इन शिलापट्टों में श्री विष्णु के कूर्मावतार के प्राकृत में रचित दो भावगीत हैं। इस स्थान से दो सर्वबंध स्तंभ (नागबंध), प्राप्त हुए हैं, जिनमें से एक संस्कृत वर्णमाला तथा संज्ञा और क्रियाओं के मुख्य विभक्ति प्रत्यय तथा दूसरे में संस्कृत व्याकरण के दस कालों, लकारों और अवस्थाओं के पुरुष प्रत्यय दिए गए हैं। ये शिलालेख 11/12वीं शताब्दी की लिपि में लिपिबद्ध हैं। इसके ऊपर अनुष्टुपछंद में संस्कृत के दो श्लोक उत्कीर्णित हैं। उनमें परमार नरेश उदयादित्य तथा नरवर्मन का यशोगान किया गया है, जो राजा भोज के तत्काल बाद उनके उत्तराधिकारी बने थे। द्वितीय श्लोक में कहा गया है कि राजा भोज का महाविद्यालय या सरस्वती मंदिर यहीं पर था और उनके उत्तराधिकारियों द्वारा इसका विकास किया गया था।
यहां से प्राप्त दो विशाल काले शिलापट्ट, जो द्वारों पर स्थित मंडपों के संस्तर के रूप में लगाए गए थे, के पृष्ठ भाग पर उत्कीर्णित थे। इन शिलालेखों पर शास्त्रीय संस्कृत में नाटक उत्कीर्णित है। इसे अर्जुन वर्मनदेव के शासनकाल (1215-18 ईं.) में उत्कीर्णित किया गया था। इस काव्यबद्ध नाटक की रचना प्रख्यात जैन विद्वान राजगुरु मदन द्वारा की गई थी, जो परमार राजाओं के दरबारी आशाधर के शिष्य थे। इस नाटक के नायक पूर्रमंजरी हैं और यह धार के वसंतोत्सव में अभिनीत किए जाने के लिए अर्जुन वर्मनदेव के सम्मान में लिखा गया था, जिसे उसने शिक्षा दी थी और जिसके दरबार की वे शोभा थे। यह नाटक परमारों तथा चालुक्यों के बीच हुए युद्धों से संबंधित है, जिनकी परिणति वैवाहिक संबंधों में हुई थी।
इस नाटक में 76 श्लोक तथा गद्य भाग भी है। इस नाटक में उस समय विद्यमान उच्च सभ्यता तथा समृद्धि की एक झलक प्रस्तुत की गई है, और उसे महलों के ऐसे नगर के रूप में वर्णित किया गया है, जिनमें नगर के आसपास की पहाड़ियों पर आनंदोद्यान बने हुए थे। लोगों को राजा भोज के वैभव पर गर्व था, जिसने धारानगरी को मालवा की रानी बना दिया था। इसमें धार के संगीतकारों तथा विद्वानों की श्रेष्ठता का भी उल्लेख है। इस शाला की स्थापना भोज द्वारा 11वीं शताब्दी में की गई थी और उनके उत्तराधिकारियों ने इसे संरक्षण प्रदान किया था। इसे 14वीं शताब्दी में एक मस्जिद के रूप में परिवर्तित कर दिया गया।
कवि मदन अपने उक्त नाटक में लिखते हैं, ‘‘यह मूलत: सरस्वती मंदिर था। इस नगर को महलों, मंदिरों, महाविद्यालयों, रंगशालाओं तथा उद्यानों की नगरी, धार नगरी की 84 चौंको (भवन समूहों) का अलंकार कहा जाता था।’’
राजा भोज ने वेदों के पठन-पाठन को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से मालवा के बाहर से विद्वान ब्राह्मणों को दुर्गाई, विराणक, किरकैक, कदम्बपद्रक, बड़ौद, उथरणक एवं पिडिविडि नामक धार के आसपास के ग्रामों में भूमि दान में देकर धार को शिक्षा केंद्र के रूप में विकसित किया था। धार का शारदा सदन इसका केंद्र रहा, जहां राजा भोज द्वारा विद्या की अधिष्ठात्री मां वाग्देवी की प्रतिमा स्थापित की गई थी, जो आज ब्रिटिश म्यूजियम (लंदन) में है। कवि मदन की ‘पारिजातमंजरी’ नाटिका में इस भवन को शारदा सदन तथा भारती भवन के नाम से संबोधित किया गया है। इसे ‘सरस्वतीकण्ठाभरण प्रासाद’ भी कहा गया है।
यह भोजशाला ज्ञान-विज्ञान का केंद्र रही व संभवत: महाकवि भोज के 84 ग्रंथों का रचना स्थल भी रही है। यह नाट्यशाला भी रही, जिसकी दीवारों पर नाटक उत्कीर्ण किए गए, जिससे ‘प्राम्पटिंग’ में मदद मिलती रही हो तो आश्चर्य नहीं। आज भी कूर्मशतक, नाटक के उत्कीर्ण शिलाखंड इसका प्रमाण हैं। इसी भवन में विद्वतमंडली के बीच राजा भोज अन्य राजाओं के दूतों का स्वागत व राज्य की उपलब्धियों को प्रसारित करते रहे।
उज्जयिनी का शारदा सदन
राजा भोज द्वारा उज्जयिनी का राजधानी के रूप में विकास किया गया, साथ ही उन्होंने यहां क्षिप्रा नदी के किनारे शारदा सदन का भी निर्माण करवाया। प्रारंभिक अवस्था में इसका स्वरूप लघु रहा होगा। क्षिप्रा तट पर आज एक भवन ऐसा है, जो आकृति, बनावट व स्थापत्य में धार की भोजशाला से मिलता-जुलता है। आज इसे बिना नींव की मस्जिद कहा जाता है। इसका उल्लेख राजशेखर सूरि कृत ‘चतुर्विंशतिप्रबंध’ में मिलता है। यहां पूर्व में हुए उत्खनन से प्राप्त परिखा, प्राकार, वीथी, वापी, भव्य भवन, देवायतन इत्यादि की पुष्टि भास, कालिदास, क्षुद्रक, श्यालिक, बाणभट्ट, दण्डी, धनपाल, पद्मगुप्त, परिमल आदि विद्वानों की कृतियों एवं ब्रह्म, स्कन्द इत्यादि पुराणों में उपलब्ध उज्जयिनी के वर्णन से होती है।
यूं चला आंदोलन
भोजशाला के लिए हिंदू समाज लगातार संघर्ष करता रहा है। 1992 में वसंत पंचमी के अवसर पर आयोजित धर्मसभा में साध्वी ऋतंभरा ने भोजशाला परिसर में हनुमान चालीसा का आह्वान किया तथा आगामी मंगलवार से ही सत्याग्रह आरंभ हो गया। इसके बाद यह मामला बढ़ता ही गया। 2003 में 1,00,000 से अधिक लोगों ने भोजशाला की मुक्ति का संकल्प लिया। इसी वर्ष हुए एक आंदोलन में 3 लोग हुतात्मा हुए और 1400 पर प्रतिबंधात्मक कार्रवाई हुई। इसके परिणामस्वरूप 650 वर्ष बाद हिंदुओं की विजय हुई और उन्हें सशर्त पूजन और प्रवेश का अधिकार मिला। समय के साथ बढ़ती जागरूकता और बढ़ते समभाव के कारण भोजशाला का संघर्ष मात्र धार और आसपास के क्षेत्रों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि शनै:-शनै: समस्त प्रदेश और पूरे भारत में भोजशाला की चर्चा होने लगी।
इससे हिंदू समाज में वह भाव जागृत हुआ जिसके कारण प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने स्तर पर भोजशाला की मुक्ति के लिए मुखर हो रहा है। लेकिन यह संघर्ष तब तक अधूरा रहेगा, जब तक हमारी सांस्कृतिक विरासत भोजशाला पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो जाती है और यहां लंदन के संग्रहालय में रखी मां वाग्देवी की प्रतिमा की पुन: प्राण प्रतिष्ठा नहीं हो जाती है। खिलजी के आक्रमण से आरंभ हुआ यह संघर्ष भले ही आने वाले कुछ वर्षों तक और चले, लेकिन यह संघर्ष भोजशाला को अवैध अतिक्रमण से मुक्त करके तथा उसका वैभव लौटाने के पश्चात् ही खत्म होगा।
-अथर्व पंवार
ऐसे होता है पुरातात्विक सर्वेक्षण
पुरातात्विक सर्वेक्षण के अंतर्गत ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार (जी.पी.आर.) और आधुनिक तकनीक का प्रयोग किया जाता है। इसके माध्यम से धरती के भीतर स्थित अवशेषों का परीक्षण किया जाता है। सर्वेक्षण स्थल पर मिलने वाली मिट्टी, पत्थर एवं अन्य अवशेषों की जानकारी ली जाती है। कार्बन डेटिंग तकनीक के अंतर्गत परिसर में जितने भी प्रकार के ठोस अवशेष मुख्य रूप से पाषाण निर्मित संरचनाओं की जांच की जाती है। इसके अंतर्गत दीवारों, खंभों, फर्श, छत आदि सभी संरचनाओं की वैज्ञानिक जांच कर आयु पता लगाई जा सकती है। उत्खनन के माध्यम से भी पुरातत्व विभाग द्वारा भोजशाला परिसर की वैज्ञानिक जांच की जाएगी। इसी के साथ भोजशाला से जुड़े साहित्य और अन्य लिखित ग्रंथों आदि का अध्यनन भी किया जाएगा।
-सनी राजपूत
माण्डवगढ़ का शारदा सदन
उज्जयिनी व धार के भोजशाला भवनों जैसा एक भवन माण्डू में भी विद्यमान है। आज इस भवन को दिलावर खां स्मारक कहा जाता है। जैसा सर्वविदित है नाट्यशास्त्र व परमार शासक एक सिक्के के दो पहलू की भांति एक-दूसरे से जुड़े रहे। वैसे ही यह भवन भी है, जो माण्डू में नाट्यशाला से लगा हुआ है व अन्य स्थलों धारानगरी एवं उज्जयिनी के शारदा सदन की भांति ही समानानुकार हैं।
परमार राजा भोज के विद्यानुराग व शिक्षा केंद्रों को प्रोत्साहित करने के प्रयासों के फलस्वरूप ही उन्हें ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ की उपाधि से अलंकृत किया गया था। भोज ने अपनी उपराजधानियों, उज्जयिनी, धार व माण्डू में सरस्वतीकण्ठाभरण प्रासाद, संस्थान स्थापित किए। उन्होंने सरस्वतीकण्ठाभरण नामक नाटक, व्याकरण व अलंकारशास्त्र पर ग्रंथ लिखे। इस प्रकार कवि भोज एवं सरस्वतीकण्ठाभरण एक-दूसरे के पर्याय हैं। एक का नाम आते ही दूसरे की स्मृति उभर आती है।
11-12वीं शताब्दी के विभिन्न साहित्यकारों, विद्वानों, जिन्होेंने धारानगरी में राजा भोज एवं उनके परवर्ती शासकों द्वारा शारदा सदन के विकास की पुष्टि अपने ग्रंथों, साहित्य में की है।
पद्मगुप्त ने धार को पुराण प्रसिद्ध प्राचीन नगरी अलका तथा लंका से अधिक श्रेष्ठ तथा परमारों की राजधानी कहा है। कश्मीरी कवि विल्हण ने अपने ग्रंथ ‘विक्रमांकदेवचरित’ में इस नगर का वर्णन काव्यात्मक शैली में किया है। भोजशाला को प्रबंधचिंतामणि, सरस्वतीकण्ठाभरण और पारिजातमंजरी ग्रंथों में शारदा सदन कहा गया है। इसके प्रांगण में सरस्वती कूप है, जिसे राजा भोजकृत ग्रंथ ‘चारुचर्या’ में विशेषकर चमत्कृत जल के रूप में वर्णित किया गया है।
मान्यता थी कि इस जल के सेवन से मस्तिष्क संबंधी रोगों का निदान हो जाता था। यह संस्कृत पाठशाला के रूप में प्रसिद्ध थी। इसमें कई प्राकृत संस्कृत के काव्य नाटक तथा नागबंध इत्यादि व्याकरण चित्र उत्कीर्ण हैं। राजा भोज एवं उनके परवर्ती परमार शासकों के काल में यहां काव्य गोष्ठियां, विद्वत्सभा और नाट्यप्रदर्शन होते थे।
(लेखक देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर में परमारवंशी राजाओं द्वारा निर्मित संरचनाओं पर शोध कर रहे हैं)
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